संसदीय समितियों से नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के सम्बन्ध
संसदीय समितियों से नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के सम्बन्ध
लोक लेखा समिति से सम्बन्ध
नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक लोक लेखा समिति का मित्र, दार्शनिक एवं पथ-प्रदर्शक होता है। इस समिति को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की सेवाएँ नियमित रूपरेखा से प्राप्त होती हैं। यह अधिकारी (C. and A.G.) ही लोक लेखा समिति को परीक्षण की एक रेखा प्रस्तावित करती है। इन दोनों के कार्य परस्पर सम्बन्धित ही नहीं अन्योन्याश्रित भी हैं। समिति के कार्य को अधिक प्रभावी बनाने के लिए यदि आवश्यक हो तो नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा अन्तरिम प्रतिवेदन भी तैयार किए जाते हैं। इस प्रकार लोक लेखा समिति नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के प्रस्तुत प्रतिवेदन को आधार बनाकर अपने कार्यों को सम्पन्न करती है।
इन दोनों के सम्बन्धों को निम्नलिखित आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-
- नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन के सन्दर्भ में उन समस्त लेखाओं के विवरणों की जाँच करना जिनमें राज्य निगमों, व्यापार तथा निर्माण करने की योजनाओं तथा परियोजनाओं की आय-व्यय का उल्लेख किया गया हो।
- उन स्वायत्त तथा अर्द्ध-स्वायत्त संगठनों में आय-व्यय के लेखा विवरणों की जाँच करना जिनका अंकेक्षण भारत के नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा राष्ट्रपति के निर्देश से अथवा संसद द्वारा पारित किसी अधिनियम द्वारा किया गया है।
- नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन पर उस अवस्था में विचार करना, जब राष्ट्रपति द्वारा किन्हीं प्राप्तियों का अंकेक्षण करने या भण्डारों तथा सामग्री के लेखाओं का परीक्षण करने की सिफारिश की हो।
लोक उद्यम समिति से सम्बन्ध
भारत का नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक लोक उद्यमों के अंकेक्षण से सम्बन्धित प्रतिवेदन इस समिति को भेजता है, जिसका समिति परीक्षण करती है। उसके बाद संसद् में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती है।
कुछ पर्यवेक्षकों का मत है कि वह संसद का एजेण्ट होता है। संसद केवल उसी के माध्यम से कार्य करती है। यह विचार संसदात्मक प्रजातन्त्र में उसके महत्वपूर्ण योगदान को प्रकट करता है। संसद के प्रतिनिधि के रूप में वह स्वयं को इस बात से संतुष्ट करता है कि सरकारी व्यय में बुद्धिमानी, सच्चाई और ईमानदारी से काम लिया गया है। संविधान-विशेषज्ञ लेखा-परीक्षण की वर्तमान व्यवस्था को उपयुक्त मानते हैं, क्योंकि इससे मानव-शक्ति की बचत होती है, विशेषीकरण बढ़ता है और कार्यकुशलता में सुधार आता है।
भारतीय संविधान में नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक को जो शक्तियाँ प्रदान की गई हैं वे अद्वितीय नहीं हैं वरन् दूसरे संसदात्मक प्रजातन्त्रों में भी प्रायः प्राप्त होती हैं। दूसरे देशों में लेखा-परीक्षण को एक आवश्यक वुराई के रूप में सहन नहीं किया जाता वरन् एक मूल्यवान मित्र समझा जाता है, क्योंकि यह प्रक्रिया सम्बन्धी तकनीकी अनियमितताओं को प्रकाश में लाता है जो गलत निर्णय, अवहेलना तथा बेईमानी के कारण पैदा होती है। लेखा-परीक्षण एवं प्रशासन का सहयोगपूर्ण सम्बन्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण है। लेखा-परीक्षा की जाँच तथा आपत्तियों की और उपयुक्त ध्यान नहीं दिया जाता। इसके परिणामस्वरूप अनियमितता पनपती है और बेईमान अधिकारियों के मस्तिष्क में लापरवाही की भावना को प्रोत्साहन मिलता है। लेखा-परीक्षा के प्रति उपयुक्त दृष्टिकोण अपनाकर ही प्रशासन लाभान्वित हो सकता है।
दूसरी ओर लेखा-परीक्षा का दृष्टिकोण भी बदलना चाहिए। अतीत काल में लेखा-परीक्षा ने प्रशासन से पृथक् रहकर कार्य किया है। दोनों ने एक-दूसरे को समझने की चेष्टा नहीं की तथा समस्याओं को स्पष्ट करने और उनका उपचार खोजने का प्रयास नहीं किया। लेखा-परीक्षा के प्रतिवेदन में ऐसी अनेक बातें शामिल कर ली जाती हैं जिनका सन्तोषजनक स्पष्टीकरण नहीं किया जाता। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि लेखा-परीक्षण का लक्ष्य प्रशासन की पोल खोलना मात्र है। जिन योजनाओं और परियोजनाओं को कुशलतापूर्वक क्रियान्वित किया जाता है उनके सम्बन्ध में भी तकनीकी बाधाएँ उपस्थित की जाती हैं। तथ्य यह है कि योजना सम्बन्धी नियम परिस्थिति एवं लक्ष्य परिवर्तन के साथ बदलने लगते हैं, इसलिए तकनीकी दृष्टि से पूर्वस्थित नियमों का पालन करने का आग्रह करना गलत है।
स्पष्ट है कि गलत व्यवहारों एवं अनियमितताओं को रोकने के लिए तथा लेखा-परीक्षा और प्रशासन को निकट लाने के लिए एक नए तथा सकारात्मक दृष्टिकोण की आवश्यकता है, तद्नुसार लेखा-परीक्षा की जाँच एवं आक्षेपों पर विचार करने के लिए एक नई प्रक्रिया विकसित की गई है। इसके अन्तर्गत लेखा-परीक्षा और प्रशासन के बीच विभिन्न स्तरों पर व्यक्तिगत सम्पर्क एवं विचार-विमर्श होता है। फलतः स्थिति को वस्तुगत रूप से समझाया जा सकता है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की शक्ति एवं योगदान के सम्बन्ध में विचार करने के बाद निष्कर्ष रूप में अशोकचन्द्रा के अनुसार यह कहा जा सकता है कि “सी० एण्ड ए० जी० की सांविधानिक या कानूनी स्थिति चाहे कुछ भी हो, किन्तु उसके कार्यों को कम करना राष्ट्रीय वित्त पर संसदीय नियन्त्रण के प्रति एक आघात माना जाएगा।”
जनलेखा समिति में सी० एण्ड ए० जी० का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। वह इसका परामर्शदाता है, व्याख्याता है तथा राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों के बीच की कड़ी है। वह समिति का सक्रिय शीर्ष है। उसे समिति का एक पथ-प्रदर्शक, दार्शनिक तथा मित्र माना जाता है। जन- लेखा समिति महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन को अधिक प्रभावशाली बनाती है। देश के वित्तीय प्रशासन को नियंत्रित करने में नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक की प्रभावशाली भूमिका रहती है।
महत्वपूर्ण लिंक
- लोक उपक्रमों पर मन्त्रिपदीय नियन्त्रण | मन्त्रिपदीय उत्तरदायित्व
- भारत का नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक | मन्त्रिपदीय नियन्त्रण की समस्याएँ एवं सुझाव
- प्राचीन भारतीय राजनीति की विशेषताएँ (Features of Ancient Indian Politics)
- सार्वजनिक निगम (लोक निगम)- परिभाषा, प्रकार, विशेषताएँ एवं लाभ
- विभागीय संगठन- विशेषताएँ, प्रकार, लाभ, दोष एवं सुधार
- सार्वजनिक निगम की लाभ-हानि
- सरकारी कंपनी- आशय, प्रमुख विशेषताएं
- सरकारी कम्पनी की लाभ हानि (Demerits & Merits)
- संसदीय नियंत्रण- उद्देश्य, आवश्यकता एवं महत्त्व, अधिकार एवं कर्तव्य
- संसदीय प्रश्न (Parliamentary Questions)- 7 प्रकार
- संसदीय समिति- अर्थ, आवश्यकता एवं महत्व
- राज्य स्तर पर नियोजन तन्त्र
- राष्ट्रीय विकास परिषद- आवश्यकता, उद्देश्य, रचना, कार्य इत्यादि
Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए, अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हमसे संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है, तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।