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प्रथम कर्नाटक युद्ध एवं महत्व

प्रथम कर्नाटक युद्ध

भारत पर प्रभुत्व स्थापित करने का यह संधर्ष दक्षिण भारत में स्थित कर्नाटक में शुरू हुआ। कर्नाटक तत्कालीन हैदराबाद राज्य का एक प्रान्त था। उस समय दक्षिण भारत असंख्य छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया था जो हमेशा एक दूसरे से लड़ते रहते थे। अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों इस अवसर से लाभ उठाने की योजना बनाने लगे। फ्रांसीसियों का महत्वाकांक्षी नेता डुप्ले अपनी पूरी शक्ति के साथ खुले मैदान में आ धमका। अंग्रेज लोग भी आगे बढ़े और भारत में प्रभुता स्थापित करने के लिए अंग्रेज-फ्रांसीसी संघर्ष शुरू हो गया। इसी अंग्रेज फ्रांसीसी संघर्ष ने भारतीय इतिहास में एक नये अध्याय का सूत्रपात किया।

त्रिचनापल्ली में एक हिन्दू राज्य था। वहाँ के राजा की मृत्यु पर उसकी विधवा पत्नी से कर्नाटक के नवाब दोस्त मुहम्मद के दामाद, चाँद साहब ने त्रिचनापल्ली पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया। शेष कर्नाटक पर जिसकी राजधानी अर्काट थी, दोस्त मुहम्मद राज्य कर रहा था जो नाम-मात्र के लिए निजाम के संरक्षण में था परन्तु वास्तव में वह स्वतन्त्र नवाब के रूप में राज्य करता था। दोस्त मुहम्मद ने फ्रांसीसियों से मित्रता स्थापित की थी तथा उन्हीं की सहायता से कर्नाटक का राज्य हस्तगत किया था। 1714 में दोस्त मुहम्मद की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र सफदर अली कर्नाटक का नवाब बना। 1742 में सफदर अली के चचेरे भाई मुर्तजा अली ने उसके विरुद्ध षडयन्त्र रचकर उसकी हत्या कर दी तथा स्वयं नवाब बन बैठा। परन्तु अर्काट की जनता विद्रोह कर देने के कारण मुर्तजा अली भाग गया तथा मृत सफदर अली का अल्पवयस्क पुत्र मुहम्मद अली अर्काट का नवाब बना। कर्नाटक की आन्तरिक दशा से लाभ उठाकर निजाम ने भी हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया तथा अनवरुद्दीन को उसने मुहम्मद का संरक्षक नियुक्त कर कर्नाटक में शान्ति स्थापित करने का प्रयास किया। अवसर देखकर अनवरुद्दीन ने मुहम्मद अली की हत्या कर डाली तथा स्वयं नवाब बन बैठा। इन्हीं आन्तरिक झगड़ों के समय अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के मध्य प्रथम कर्नाटक युद्ध का आरम्भ हो गया।

कर्नाटक के प्रथम युद्ध का भारतीय राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं था। यह युद्ध यूरोप में ब्रिटेन और फ्रांस के आपसी संघर्ष का परिणाम था। 1740 में यूरोप में आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध प्रारम्भ हुआ। यह युद्ध आस्ट्रिया की गद्दी पर मेरिया थेरेसा के उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में उठे विवाद के कारण शुरू हुआ था जिसमें फ्रांस और ब्रिटेन एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ रहे थे। तुरन्त ही इस युद्ध की प्रतिध्वनि सुदूर भारत में पहुँची। जिस समय यूरोप में युद्ध प्रारम्भ हुआ उस समय डुप्ले ने मद्रास के अंग्रेज गवर्नर को लिखा कि भारत में दोनों कम्पनियों के बीच किसी तरह का युद्ध नहीं होना चाहिए। अंग्रेजों ने भी मित्रता की इच्छा व्यक्त की। दोनों कम्पनियों ने गृह सरकारों को लिखा कि वे भारत में परस्पर युद्ध करना नहीं चाहती। फ्रांसीसी सरकार ने डुप्ले की बात को स्वीकार कर लिया परन्तु ब्रिटिश सरकार ने अपनी कम्पनी की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने तुरन्त ही कमाण्डर बारनेट के नेतृत्व में एक जल-बेड़ा फ्रांसीसी व्यापार पर आक्रमण करने के लिए भेज दिया। उसने कुछ व्यापारिक जहाजों को डुबा दिया। जिनमे एक डुप्ले का जहाज भी था। डुप्ले के क्रोध की सीमा न रही तथा उसने मॉरीशस द्वीप के फ्रांसीसी गवर्नर और जल बेड़े के सेनापति ला-बडिनो से सहायता माँगी। अब अंग्रेज और फ्रांसीसी कम्पनियाँ एक दूसरे के विरुद्ध युद्ध के मैदान में कूद पड़ी। फ्रांसीसियों ने मद्रास पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने पांडीचेरी जीतने का प्रयास किया, पर वे असफल रहे। लगभग सात वर्षों तक यह लड़ाई चलती रही, लेकिन 1748 में एक्सा-ला-सापेल की सन्धि के द्वारा यूरोप में दोनों देशों के बीच लड़ाई बन्द हो गयी तो भारत में भी दोनों कम्पनियों के बीच युद्ध की स्थिति का अन्त हो गया। यहाँ भी उनके बीच सन्धि हो गयी और फ्रांसीसियों ने अंग्रेजों को मद्रास लौटा दिया। उसके बदले में फ्रांस ने अमेरिका में लूबर प्राप्त किया।

प्रथम कर्नाटक युद्ध का महत्व

कर्नाटक की पहली लड़ाई का भारतीय राजनीति से सम्बन्ध नहीं था, यह यूरोप में ब्रिटेन और फ्रांस के पारस्परिक संघर्ष का परिणाम था। न तो इस युद्ध से भारत की राजनीतिक, स्थिति में कोई परिवर्तन हुआ और न दोनों कम्पनियों की स्थिति में ही फिर भी भारत के इतिहास में इस युद्ध का, एक विशिष्ट स्थान है। प्रो० डाड्वेल ने इस युद्ध को भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना बतलाया हैं उन्हीं के शब्दों में “यद्यपि बाहर से देखने पर आस्ट्रियाई उत्तराधिकार युद्ध का कुछ भी परिणाम नहीं निकला और भारत की राजनीतिक समस्यायें ज्यों-की-त्यों बनी रहीं फिर भी यह भारतीय इतिहास की एक युगान्तरकारी घटना हैं इसने स्पष्ट कर दिया कि बुद्धिमानी के साथ प्रयोग किये जाने के सामुद्रिक शक्ति का कितना अधिक प्रभाव पड़ सकता है और यूरोपीय सामरिक पद्धति भारतीय सेनाओं द्वारा अनुसरण की जानेवाली युद्ध-पद्धति से कहीं श्रेष्ठ है। तत्कालीन भारतीय राज्य-व्यवस्था जर्जर होकर किस राजनीतिक पतन तक पहुंच चुकी है, यह भी इससे प्रत्यक्ष दिखाई पड़ा। युद्ध के अन्त में यह स्पष्ट हो गया कि किस तरह इसके परिणामस्वरूप यूरोपीय व्यापारियों में अब उस क्षेत्र में घुसने की प्रवृत्ति जागृत हुई जिसकी अब तक उन लोगों ने एकदम उपेक्षा की थी। संक्षेप में इसने डूप्ले के प्रयोगों तथा क्लाइव की विजयों के लिए रास्ता साफ कर दिया।”

वस्तुतः इस युद्ध से भारत की राजनीतिक और सैनिक व्यवस्था का खोखलापन स्पष्ट हो गया। बात यह थी कि कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन ने इस युद्ध को रोकने की चेष्टा की थी, क्योंकि उसके राज्य के अन्दर विदेशियों को संघर्ष करने का अधिकार नहीं था। लेकिन जब फ्रांसीसी नहीं माने तो नवाब ने उनके विरुद्ध एक सेना भेजी, पर फ्रांसीसियो ने नवाब की सेना को पराजित कर दिया। नवाब की सेना पर फ्रांसीसियों की इस विजय से भारत में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ गयी और साथ-ही-साथ भारत में साम्राज्य की स्थापना के हौसले में भी वृद्धि हुई। यूरोपीयों को यह समझते देर नहीं लगी कि भारतीय नरेशों का संगठन निम्नकोटि का है और उन्हें आसानी से पराजित किया जा सकता है। अभी तक वे अपने को सामुद्रिक शक्ति में ही मजबूत समझते थे लेकिन अब भूमि पर भी अपने को शक्तिशाली समझने लगे।

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