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सल्तनत काल में उलेमा वर्ग के प्रभाव

सल्तनत काल उलेमाओं का सामाजिक प्रभाव

सल्तनत काल उलेमाओं का सामाजिक प्रभाव

उलेमाओं की स्थिति सल्तनत काल मे भारतीय समाज विशेष रूप से मुस्लिम समाज में परम विशिष्ट थी। डॉ0 आशीर्वाद लाल श्रीवास्तव के शब्दों में, “मुसलमानों और उलेमाओं, मौलवियों और उलेमाओं का एक बड़ा व्यवस्थित समूह था, जिसे अपने महत्व का पूरा ज्ञान था और वे परस्पर एक दूसरे को मिली हुई सुविधाओं को देखकर बड़ा द्वेष करते थे।”

उलेमा लोगों का समाज व राजनीति पर इतना प्रभाव था कि न्याय, धर्म तथा शिक्षा से संबंधित सभी मुख्य पदों पर उन्हीं का एक मात्र अधिकार था। ये उलेमा लोग मुस्लिम संस्कृति के विशेषज्ञ माने जाते थे। प्रत्येक विवादग्रस्त विषय पर उलेमा का निर्णय स्वीकार किया जाता था।

दिल्ली सल्तनत के प्रारंभिक काल में भी उलेमा मुस्लिम समाज का प्रभावशाली एवं श्रेष्ठ वर्ग था। सुल्तान एवं मंत्रिगण द्वारा प्रत्येक नियम तथा राज्य की नीति में उलेमाओं से ही परामर्श लिया जाता था। अपने उच्च सम्मान एवं उच्च स्थान के अनुकूल उलेमा भी प्रत्येक कार्य में सुल्तान को परामर्श देना अपना अधिकार समझने लगे थे। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत काल के प्रारंभिक समय में उलेमाओं का विशिष्ट सामाजिक स्थान था।

दास वंशीय शासन में उलेमा प्रभाव

दास वंशीय शासन में सुल्तान की सर्वोपरि स्थिति का आधार उलेमा ही था। उन्होने ही सुल्मानों को दैवीय अधिकार प्रदान कियें और जनता को यह समझा दिया कि सुल्तान की आज्ञाओं का पालन ईश्वरीय आज्ञा का पालन है। उलेमा वर्ग के कारण ही वास्तव में सुल्तान की आज्ञा का पालन नहीं करता, वह अधर्मी है। सुल्तान के अधिकारियों में दैवी अधिकारों का प्रचार किया था। सुल्तान के अधिकारों के समर्थन में उनका विचार था, सुल्तान के होने के कारण ही निर्बल मनुष्य संसार में जीवित रह सकते हैं अन्यथा उनको सबल मनुष्यों का ग्रास बनना पड़ेगा।

उलेमा दिल्ली के सुल्तानें के पथप्रदर्शक

दास वंशीय शासन में धर्म और राज्य के सभी विषयों के संबंध में समुचित निर्णय लेने का कार्य उलेमाओं द्वारा ही किया जता था और वे ही सुल्तानें को मार्गदर्शन करते थे। कोई भी सुल्तान उलेमाओं के विरुद्ध आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर सकता था और सभी प्रकार के शासन कार्यों में उलेमा वर्ग का प्रभाव था। सुलतानों की राज्य संबंधी नीति और धर्म संबंधी नीतियों के निर्धारण में उलमा वर्ग की प्रमुख भूमिका थी, तुर्की सल्तनत के आरंभ से ही उनका प्रभाव इतना बढ़ गया था कि स्वयं सुल्तान उनसे समर्थन मांगा करते थे। कभी-कभी उलेमाओं के नाराज होने पर सुल्तान के लिए अस्थायित्व के खतरे उत्पन्न होते थे । दास वंशीय शासन दिल्ली सल्तनत का प्रमुख आधारशिला स्वरूप शासन था। इस वंश का सुल्तान ‘बलबन’ था जो अपने कठोर शासन के लिए प्रसिद्ध है, उलेमा वर्ग को नाराज करने का साहस नहीं कर सकता था। वह स्वयं उलेमाओं के घर आया करता था यद्यपि कि वह इस वर्ग के लोगों के हाथे की कठपुतली नहीं था परन्तु उलेमा वर्ग को अप्रसन्न नही कर सकता था।

खिलजी वंशीय शासन में उलेमा प्रभाव

दास वंशीय शासन में उलेमाओं का प्रभाव धार्मिक क्षेत्र के साथ सभी क्षेत्रों में था। परन्तु खिलजी सुल्तानों के शासन में इस प्रभाव में परिवर्तन हुआ। उलेमाओं का प्रभाव धार्मिक क्षेत्र तक ही सीमित रह गया। अलाउद्दीन खिलजी के राजीतिक सिद्धान्तों का वर्णन करते हुये जियाउद्दीन बर्नी ने लिखा है, “अलाउद्दीन का विचार है कि राजनीतिक तथा धर्मिक सिद्धान्तों में महान् विभिन्नता है। राजाज्ञों का संबंध सुल्तानों से परन्तु धर्मात्माओं का अथवा पैगम्बरों के आदेशों का संबंध काजियों तथा मुफितयों से है।” इस प्रकार स्पष्ट है कि अलाउद्दीन खिलजी ने उलेमाओं के वर्ग के प्रभाव को केवल धार्मिक मामलों तक ही सीमित कर रखा था। डॉ० आर० पी० त्रिपाठी के शब्दों में “दिल्ली सल्तनत को खिलाफत से स्वतंत्र कर लिया और अपने साम्राज्य से बाहर की किसी भी शक्ति को अपने से सर्वोपरि स्वीकार करना नामंजूर कर दिया।”

अलाउद्दीन ने उलेमाओं के राजनीतिक प्रभावों को समाप्त कर दिया। उसने स्वयं काजी मुगीसुद्दीन ने कहा था, ” मैं नहीं जानता कि नियमानुसार क्या है और क्या नियम विरुद्ध है परन्तु मैं जिसे राज्य की भलाई के लिये अथवा संकट काल के लिये उपयुक्त समझता हूँ उसके लिये मैं आदेश देता हूँ और जहाँ तक इस बात का संबंध है कि कयामत के दिन मुझको क्या होगा मैं कुछ नही जानता।” अलाउद्दीन ने उलेमा वर्ग को केवल मात्र एक परामर्शदाता वर्ग का दर्जा ही दिया। अलाउद्दीन ने उलेमाओं के अधिकारों को सीमित कर दिया। उसने उनके विशेषाधिकार भी समाप्त कर दिया। वह उलेमाओं के विरुद्ध कानून बनाने में भी हिचकिचाया नहीं। अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद भी उलेमा वर्ग अपने प्राचीन गौरव को नहीं प्राप्त कर सका। कुतुबुद्दीन और मुबारकशाह ने उलेमा वर्ग को उपेक्षित ही रखा इसी बीच खुसरो को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर प्राप्त हो गया, सुल्तान की हत्या हो जाने पर वह कुछ कर सकने में स्वतंत्र हो गया। उसने मुसलमानों के विरुद्ध विशेष रूप से उलेमा वर्ग के विरुद्ध कार्य करना प्रारम्भ कर दिया जिससे कि उलेमा वर्ग उसके विरोधी हो गया और गाजी मलिक ने उसकी हत्या करके मुस्लिम धर्म का उद्धार किया आकर तुगलक वंश की आधारशिला रखी। इस प्रकार स्पष्ट है कि खिलजी वंश के शासन में उलेमा वर्ग का प्रभाव काफी कम हो गया था।

तुगलक वंशीय शासन में उलेमा प्रभाव

तुगलक वंशीय शासन काल में उलेमाओं के प्रभाव में पुनः उतार चढ़ाव आया जिसका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है।

  1. मुहम्मद तुगलक द्वारा कठोर व्यवहार

    इस उलेमा वर्ग के प्रति मुहम्मद तुगलक ने भी कठोता का व्यवहार किया । न इस वर्ग को राजीति में कोई स्थान दिया और न उलेमा वर्ग को कोई विशेष अधिकार ही दिये। अन्य प्रजा की भाँति ही मुहम्मद तुगलक ने इनके साथ व्यवहार किया। जियाउद्दीन बर्नी ने तो यहाँ तक लिखा है कि सुल्तान मुहम्मद तुगलक रक्त पिपासु था और एक अत्याचारी शासक के रूप में अविवेकपूर्वक निरपराध मुसलमानों का रक्त बहाया करता था। सुल्तान घोर अपराध करने पर भी उलेमा को क्षमा प्रदान नहीं करता था। उसने करो की दृष्टि से भी उन्हें माफ नहीं किया।”

हिन्दुओं के साथ सहिष्णुता का व्यवहार किया जाने लगा था। कहा जाता है कि सुल्तान गंगा जल भी पसन्द करने लगा था। सुल्तान के इन कृत्यों से तंग आकर प्रतिशोध की भावना से उलेमा वर्ग ने सुल्तान की आयोजनाओं के विरुद्ध प्रचार किया था और उसकी असफलता पर खुशियाँ मनायी थीं। कहा जाता है कि “ मुहम्मद तुगलक की असफलता के कारणें में से एक उसके द्वारा किया जाने वाला उलेमा वर्ग से संघर्ष था।” उलेमा वर्ग का इस काल में राजनैतिक व सामाजिक प्रभाव दोनों समाप्त थे।

  1. फिरोज तुगलक द्वारा उलेमा वर्ग की पुनः प्रतिष्ठापना

    उलेमा वर्ग का भाग्य सितारा मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के उपरान्त एक बार पुनः उठा। सुल्तान फिरोज तुगलक कठोर शासक नही था और उसने यह भी निष्कर्ष निकाला था कि मुहम्मद तुगलक की असफलता में उलेमा वर्ग की उपेक्षा तथा हिन्दुओं से धार्मिक सहिष्णुता की नीति थी। इसलिये उसने हिन्दुओं के प्रति असहिष्णुता, धर्माधता की नीति का,अनुसरण किया तथा उलेमा वर्ग को प्रसन्न करने को दिये उसने उन्हें पुनः विशेषाधिकार प्रदान कर दिये। इस नीति पर चलकर उसने अधार्मिकों को दंडित किया तथा शासन के प्रत्येक कार्य में उलेमाओं की राय लेने लगा।

फिरोज तुगलक के शासन काल में उलेमाओं का सामाजिक धार्मिक तथा राजनैतिक प्रभाव सर्वाधिक प्रबल था । सुल्तान उलेमा वर्ग की कठपुतली बन गया था तथा अपने आपको खलीफा का नायब कहलाने में गर्व का अनुभव करता था। डॉ० त्रिपाठी ने लिखा है कि “ इसी ने सबसे पहले भारतीय मुस्लिम साम्राज्य के सुल्तानों को खलीफा का नायक माने जाने की प्रथा का प्रचलन किया।”

  1. सुल्तान के भाग्य निर्माता के रूप में

    उलेमा वर्ग फिरोज तुगलक के समय अपने प्रभाव के शिखर पर था। राज्य के सभी कार्यों पर उलेमाओं का एकामात्र अधिकार था। फिरोज तुगलक की मृत्यु के उपरान्त उसके इन कृत्यों का प्रभाव और भी अधिक रंग लाया। इस युग में सुल्तान की शक्ति कम होने लगी तथा यह उलेमा वर्ग सुल्तान के भाग्य निर्माता के रूप में उभर कर सामने आया। तैमूर के आक्रमण के फलस्वरूप खिज्रखाँ तथा बहलोल लोदी के शासन काल में भी उलेमा वर्ग का यह प्रभाव कायम रहा।

लोदी वंशी शासन काल में उलेमा प्रभाव

लोदी वंश का आरंभ बहलूल लोदी द्वारा हुआ। इसके काल में उलेमाओं की प्रतिष्ठा में तो वृद्धि हुई किन्तु उनका राजनैतिक क्षेत्र में विशिष्ट सम्मान न हो सका। बहलोल लोदी के उपरान्त सिकन्दर लोदी ने पुनः उलेमा वर्ग के प्रभाव में चार चाँद लगा दिये। फिरोज तुगलक की भाँति सिकन्दर लोदी के शासन काल में भी उलेमा अपनी उन्नति की चरम सीमा पर पहुंच गये थे। विद्वानों का तो यहाँ तक कहना था कि “सिकन्दर लोदी का राज्य उलेमा द्वारा अर्जित शक्ति का द्योतक है।” सिकन्दर धर्माध था। ‘बोधन’ ब्राह्मण के उदाहरण उसकी धार्मिक कट्टरता के स्पष्ट उदाहरण हैं। इस गरीब ब्राह्मण ने उलेमा के सम्मुख केवल यह कहा था कि “ उसका धर्म भी उतना ही अच्छा है कि जितना पैगम्बर का। इस बात पर चिढ़कर उलेमा के संकेत पर सिकन्दर लोदी ने ब्राह्मण को मुत्यु दण्ड दे दिया था सिकन्दर ने उलेमा वर्ग के प्रभाव के कारण मन्दिरों को तुड़वाया और मस्जिदों का निर्माण कराया। इस प्रकार सिकन्दर लोदी का शासन काल उलेमा के उत्थान का अंतिम किन्तु भव्य काल था।

उलेमा प्रभाव की आलोचना

उलेमा वर्ग का भारतीय राजनीति और समाज पर प्रभाव नकारात्मक ही रहा,भले ही वह कुछ सुल्तानों की धर्माधता की दृष्टि से सहायक सिद्ध हुआ हो। किन्तु इसका प्रभाव हानिकारक ही रहा । यहां इसका उल्लेख संक्षेप में किया जा रहा है।

  1. राजनीतिक क्षेत्र में हानिकारक प्रभाव

    उलेमाओं का प्रभाव राजनीतिक क्षेत्र में हानिकारक सिद्ध हुआ। उलेमा चाहे जितना धार्मिक चतुर रहे हो परन्तु किसी भी स्थिति में राजनीतिक क्षेत्र में सफल न हो सके और उनके प्रभाव के फलस्वरूप शासन में अनेक दोष आ गये। राजनीतिक क्षेत्र में जब उलेमाओं का प्रभाव बढ़ा तो वह सल्तनत के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ।

  2. सामाजिक संकीर्णता का द्योतक

    सल्तनत युग में उलेमाओं का प्रभाव सामाजिक संकीर्णता का भी कारण बना । उलेमा वर्ग संकीर्ण विचारों का था। प्रत्येक समस्या को वे अत्यन्त संकीर्ण दृष्टिकोण से देखते थे जिसके फलस्वरूप उनका परामर्श मान लेने के कारण सुल्तान अक्सर कठिनाइयों में पड़ जाता है। उलेमाओं की संकीर्णता के कारण तुर्क शासन कभी भी हिन्दुओं में लोकप्रिय न हो सके।

  3. धार्मिक कट्टरता का द्योतक

    सल्तनत काल में उलेमाओं का बढ़ता हुआ प्रभाव मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता से युक्त था और वह हिन्दुओं को सदैव शत्रुवत देखता था। इन कट्टरता से प्रभावित होकर सल्तनत काल के कुछ सुल्तानों ने धार्मिक असहिष्णुता की नीति अपनायी और हिन्दुओं पर अत्याचार किया। उलेमा वर्ग की राजनीतिक अज्ञानता और धर्मांधतासे प्रभावित होने के कारण सुल्तान कभी-कभी जनता पर अपना प्रभाव खो देता था। और वह जनता से आदर पाने में असफल हो जाता था। इस तरह उलेमा वर्ग जनता और सुल्तान दोनों दृष्टि में गिर जाता था।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पस्ट है कि उलेमा वर्ग सल्तनत काल में अपने राजीतिक प्रभाव के कारण और सुल्तान की शह पाकर शक्तिशाली प्रभाव का स्वामी तथा कभी प्रभाव शून्य होता रहा। युग विशेष में राजनीतिक प्रभाव के साथ ही उलेमा वर्ग का सामाजिक प्रभाव भी न्यूनाधिक प्रभावित होता रहा।

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