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मुगलकालीन भारत में नगरीकरण (शहरीकरण)

मुगलकालीन भारत में नगरीकरण

इतिहास में ‘शहर’ के दो मुख्य लक्षण हैं : पहला, एक सीमित स्थान पर आबादी का उच्च घनत्व और दूसरा जनसंख्या का मुख्यतः गैर-कृषक खासकर गैर-खेतिहर स्वरूप मनुष्य-स्थान अनुपात और व्यावसायिक विभिन्नता और उनके परिणामतः संबंध ही ‘शहरों’ और ‘धर्मों’ में भिन्नता के आधार हैं। ग्रामीण वातावरण के अंदर ही शहरी केंद्रों में शहरों का विकास हुआ- “नगरों की संख्या और संभवतः उनके आकार में वृद्धि हुई, और शिल्प-उत्पादन और वाणिज्य में भी वृद्धि हुई।” राजपूत ग्रामीण अभिजातवर्ग के स्थान पर तुर्की शहरी शासकवर्ग के आ जाने और गाँवों के उत्पादन-अधिशेष को हस्तगत करने की नई प्रणाली के परिणामस्वरूप उत्पादन-अधिशेष के अपेक्षाकृत अधिक भाग को नगरों और शहरों में खपत होने लगी।

मुगलकाल के दौरान शहरीकरण की प्रक्रिया का महत्व सल्तनत काल के शहरीकरण से असाधारण रूप से भिन्न है। प्रमाणों से पता चला है कि कुछ शहरी केंद्र पुनः विकसित हुए, कुछ पुराने केंद्रों (जैसे दिल्ली और लाहौर) का विस्तार हुआ और नए शहरी केंद्र उभरे (इलाहाबाद, फतेहपुर सीकरी, गुजरात, लाहौर प्रांत-अटक, बनारस और फरीदाबाद)। यह सब अकबर और उसके उत्तराधिकारियों के काल में हुआ। यह प्रकिया 18वीं शताब्दी में भी जारी रही। मुगलकाल के अधिकतर क्षेत्र के बाहर भी विजयनगर, गोलकुंडा, बीजापुर, कोचीन, कालीकट आदि पुराने शहर थे और मसूलीपत्तनम जैसे नए शहर भी विकसित हुए। जबकि मुगलकाल के दौरान बहुत से सहवर्ती कारणों से शहरी विस्तार में तीव्रता आई, ग्रामीण समुदायों का शहरी समुदायों में परिवर्तन हुआ “कारिया” ओर “कस्बा” से “शहर” बने। गाँवों और कस्बों से, जहाँ भूमि का महत्व अधिक था, शहर बने। वहाँ व्यापार की भूमिका सर्वोपरि थी। प्रशासनिक ढाँचों के कारण भी शहरीकरण में तीव्रता से वृद्धि हुई। कृषि के उन्नत तरीकों और कृषि उत्पादन के बढ़ने से साम्राज्य की राजधानी, प्रांतीय-क्षेत्रीय राजधानियों और जिला मुख्यालयों (सरकार) का विकास हुआ। मुगलकाल में किसान, बीजों की बुवाई के लिए भूमि में छेद करते और कपास आदि फसलों की बुआई के लिए गढ़ा खोदने की विधि प्रयोग में लाते थे। वर्षा और बाढ़ से प्राप्त जल की कमी को पूरा करने के लिए सिंचाई की व्यवस्था की जाती थी। कुँओं से पानी निकाल कर खेतों में डालने के लिए कई तरीके पहले से प्रयोग में थे, जैसे “धेकली” जो लीवर-प्रणाली पर कार्य करती थी। सबसे अच्छा तरीका फारसी जल यंत्र (साकिया) था। देश में कृषि अधिशेष बढ़ने का कारण माल, खराज अथवा भूराजस्व की व्यवस्था भी थी।

यह सर्वत्र स्वीकार किया गया है कि मुगल शासक वर्ग पूर्णतः नगरोन्मुख था। यह अनुमान लगाया गया है कि भूराजस्व सकल कृषि उत्पाद के पचास प्रतिशत के करीब था। मुगल शासकवर्ग की आय का लगभग चालीस प्रतिशत शिल्प-उत्पादन में लगाया जाता था। टोडरमल के स्मरणपत्र में नाप-जोख करने वाले अधिकारियों के लिए सुझाई गई देय राशि के आधार पर भूराजस्व के संग्रह का कम-से-कम दसवाँ भाग मुख्यतः शहर में कार्यरत कर्मचारियों को नकद-भत्ता के रूप में दिया जाता रहा होगा। (देखें अकबरनामा, खंड 3) नगरों की जनता के जीवन-निर्वाह के लिए भौतिक उपभोग की वही वस्तुएँ आवश्यक रही होंगी जो गाँवों को जनता के लिए थीं। “शहरी जनसंख्या में वे लोग भी शामिल थे जो ग्रामीण माल का शहर के बाजारों में परिवहन करते थे (अनाज ढोने वाले, गाड़ीवान, व्यापारी)। इन लोगों को अंशतः ग्रामीण और अंशतः शहरी श्रेणी में रखा जा सकता है। तथापि यह स्वीकार करना होगा कि हमारे पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे यह सही अंदाजा लगाया जा सके कि गाँव और शहर के बीच परिवहन का काम करने वाले व्यक्तियों में कितने ग्रामीण होते थे।

शहरों के शिल्प-कला उत्पाद शासक वर्ग, शहरी जनसंख्या और निर्यात बाजार की माँग पूरी करते थे। गाँव की आबादी शिल्प उत्पादों की कितनी खपत होती थी इसका आकलन करना कठिन सामान्यतः यह माना जाता है कि गाँवों में महीन कपड़े, आभूषणों तथा अस्त्र-शस्त्रों की माँग थी। खपत की इस सूची को देखने से यह प्रश्न उठता है कि क्या गाँवों की माँग से शहरी उत्पादनों की माँग बढ़ती थी। इस विषय में तपन राय चौधरी ने इरफान हबीब के विचार की आलोचना की है। गाँवों की मुख्य माँग नमक, हल और कृषि के अन्य उपकरण बनाने के लिए लोहे की रही होगी।

इस संदर्भ में अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या 7वीं और 10वीं शताब्दी के दौरान भारत में शहरी जीवन में गिरावट आई थी। संभवतः अपेक्षाकृत बड़े शहरों में गिरावट आई लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि सारे भारत में शहरी जीवन में कितनी गिरावट आई। तुर्को के आगमन से राजनीतिक एकीकरण की प्रक्रिया को सहायता मिली ( 11वीं से 13वीं शताब्दी)। भारत, मध्य एशिया और पश्चिम के बीच थलीय मार्ग से व्यापार आरंभ हुआ। यह जानकारी महत्वपूर्ण है क्योंकि इतिहासकारों की यह आदत रही है कि वह शहरों के विकास की प्रक्रिया से राजनीतिक घटनाओं को जोड़ देते हैं। पंद्रहवीं शताब्दी (तुगलक काल के बाद) राजनीतिक विखंडन का काल था। लेकिन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि इस काल में शहरी जीवन में कोई गिरावट नहीं आई।

फिरोजशाह तुगलक के बाद दिल्ली सल्तनत की सीमाएँ छोटी होने के फलस्वरूप शहर छोटे नहीं हुए। वस्तुतः इस अवधि में नए शहर बसे। फिरोजशाह के शासनकाल में बागों और उद्यान विज्ञान के विकास के कारण जल-आपूर्ति के लिए नहरों के जाल बिछाए गए।

16वीं और 17वीं शताब्दियों में ‘कस्बों’ का विकास हुआ। सल्तनत काल में ऐसे गाँव को कस्बा कहते थे जिसमें किला होता था। 16वीं और 17वीं शताब्दियों में उन गाँवों को कस्बा कहते थे जिनमें बाजार होता था। इस प्रकार कस्बे की अवधारणा में परिवर्तन आया। कस्बों के बीच की दूरी के परिप्रेक्ष्य में संचार व्यवस्था की विशेष भूमिका थी। अलग-अलग क्षेत्रों में कस्बों के बीच की दूरी अलग-अलग थी। अनेक स्थानों को जाने के लिए यात्री घोड़ों और बैलों का प्रयोग करते थे। हमें “सरायो” (संपन्न गाँवों) का भी उल्लेख मिलता है जहाँ यात्री ठहर सकते थे। अधिकतर “सरायों” कस्बे के भीतर ही होती थीं या कालांतर में “कस्बे” ने “सराय” का रूप ले लिया। यह प्रक्रिया भिन्न-भिन्न प्रकार से हुई। उदाहरणार्थ गंगा-जमुना दोआब में राजस्थान की तुलना में कस्बे अधिक पास-पास थे।

मुगलकालीन भारत में शहरों की संख्या, आकार और उनकी धन-संपदा में तेजी से वृद्धि हुई। उनमें से कुछ की आबादी यूरोप और इंग्लैंड के समकालीन शहरों से भी अधिक थी। लेकिन उनकी वृद्धि से पारंपरिक गाँवों के जीवन का कोई अहित नहीं हुआ। कुछ शहर पुनर्जीवित हुए और कुछ नए शहर बने। कुछ शहर अफसरशाहों ने बनवाए और कुछ अभिजात वर्ग के लोगों ने। यह सब बादशाह की अनुमति लेकर किया गया। शहरीकरण के लिए बहुत से कारण उत्तरदायी थे-प्रशासनिक, सैनिक, भौगोलिक, आर्थिक, और धार्मिक। वाणिज्य से बल मिला। छोटे शहर स्थानीय जरूरतों और स्थानीय व्यापार की पूर्ति करते थे।

बड़े शहरों में विविध प्रकार के निर्माण कार्य होते थे, बाजार थे, तथा ऋण एवं संचार की सुविधाएँ थीं जिनका विश्वव्यापी महत्व था। ये शहर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के केंद्र थे। प्रकटतः शहरी केंद्र विभिन्न श्रेणी के थे क्योंकि उनकी प्रकार्यात्मक और सांस्कृतिक भूमिकाएं भिन्न-भिन्न थीं।

किसानों के द्वारा व्यक्तिगत आधार पर कृषि और आत्मनिर्भर ग्रामीण समुदाय इस काल की विशेषताएँ थीं। इससे उस समय ‘ग्रामीण अर्थव्यवस्था’ का वर्चस्व होने की पुष्टि होती है। पूँजीवादी कृषि अभी प्रारंभिक अवस्था में थी। इसका प्रमाण “खुद काश्त” व्यवस्था से मिलता है जिसमें वस्तु उत्पादन तत्व निहित थे। श्रमिकों का विस्तृत बाजार उपलब्ध था जिसमें शहरी जनसंख्या भी होती थी। विस्तृत शहरी बाजार होने के प्रमाण हैं। कारखानों में निर्माण का कार्य होता था। आद्योगिक पूँजी के विकास का कोई प्रमाण नहीं है। इससे हम यह तिष्कर्ष निकाल सकते हैं कि पूँजीवादी विकास सीमित था। सामाजिक ढाँचा प्रभावित नहीं हुआ था। शहरीकरण से सामाजिक ढाँचे की स्थिरता प्रभावित नहीं हुई थी। इस संदर्भ में मोरलैंड द्वारा वर्गो का उल्लेख पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं है। बर्नियर का कहना है कि “दिल्ली में कोई मध्यवर्ती स्थिति नहीं है।” कदाचित मोरलैंड ने इसी कथन से प्रभावित होकर अपना निष्कर्ष निकाला। इसमें संदेह नहीं कि गरीब और अमीर के अंतर के बीच “मध्यवर्ग” ही कड़ी थी। इसी कड़ी में औद्योगिक मध्यवर्ग, जमींदार मध्यवर्ग और व्यावसायिक मध्यमवर्ग के लोग आते थे।

मुगलकाल में भारत में भीषणतम अकाल पड़े। संभवतः इनमें सबसे विनाशकारी 1630-32 ई० का अकाल था। समकालीन स्रोतों में इसके सामाजिक एवं आर्थिक प्रभावों का दर्दनाक वर्णन किया गया है। अकाल के दुष्प्रभाव शहरीकरण पर भी दृष्टिगोचर होते हैं। इससे प्रवजन प्रभावित हुआ, औद्योगिक और शहरी केंद्र निष्क्रिय हो गए, बाजार की स्थिति पर प्रभाव पड़ा (अपमिश्रण, तस्करी आदि) , परिवहन और संचार की सुविधाओं में बाधा आने के कारण आंतरिक और विदेशी व्यापार प्रभावित हुआ। सरकार की ओर से जो सहायता प्रदान की गई, वह कम थी और इस विनाश से उबरने में काफी समय लगा।

मुगलकाल के दौरान भारत में शहरीकरण की दिशा में हुई प्रगति पर काफी प्रकाश डाला गया है। अनेक प्रश्न उठाए गए है जिनके संतोषपद्र उत्तर दिए जाते हैं। इन प्रश्नों का उत्तर अनुभवजन्य शोध और सिद्धांतों के द्वंद्वात्मक प्रयोग के द्वारा मिल सकता है। हमारे पास अनुभवजन्य प्रमाणों की कमी है। तथापि यह मानना होगा कि राज्यतंत्र और अर्थव्यवस्था के व्यापक संदर्भ में, जिसमें राजनीतिक परिवर्तनों, प्रशासनिक संघटन, भौतिक और सामाजिक पर्यावरण से संबंधित राज्य की कार्यवाही तथा उत्पादन, वितरण और विनिमय का अध्ययन शामिल हैं, विद्वान लोग आकारविज्ञान, सामाजिक, संरचना, आर्थिक प्रकार्यों और उनके निहितार्थो का गहराई से अध्ययन करने की दिशा में ध्यान दे रहे हैं।

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