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प्रशासन और सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में अमीरों की भूमिका

प्रशासन और सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में अमीरों की भूमिका

मुगलकालीन अमीर वर्ग को दो समूहों में बाँटा जा सकता है-पहला समहू “तैनात-ए-रकाब” कहलाता था। इसका अर्थ यह है कि वह दरबार में तैनात होता था। दूसरा समूह “तैनात-ए-सूबाजात” कहलाता था जो सूबों या प्रांतों में तैनात होता था। यह विभाजन शुद्ध रूप से अधिकारियों की नियुक्ति के स्थान पर ही आधारित था, क्योंकि वे समय-समय पर एक समूह से दूसरे समूह में स्थानांतरित होते रहते थे। उस समय की स्थापित प्रथम यह थी कि जब कभी किसी बड़े अमीर का तबादला एक स्थान से दूसरे स्थान पर किया जाता था तो वह अमीर अपनी नियुक्ति के नए स्थान पर जाने से पहले मुगल दरबार में हाजिर होता था। लेकिन अगर किसी का तबादला किसी अपराध की वजह से किया जाता था तो उसे दरबार में हाजिर नहीं होने दिया जाता था। जो अमीर दरबार में तैनात होते थे उन्हें एक तरह से आरक्षित बल माना जाता था ताकि सभी महत्वपूर्ण सैनिक अभियानों में उन्हें भेजा जा सके।

दरबार में उपस्थिति के दौरान अमीर को अनेक दरबारी शिष्टाचारों का पालन करना पड़ता था और अलग-अलग अवसरों पर उसे शहंशाह को भेंट या नजराना देना पड़ता था, जिसे “पेशकश” कहते थे। इन विस्तृत दरबारी शिष्टाचारों का वास्तविक उद्देश्य इतना भर था कि इनसे अमीरों पर शहंशाही प्रतिष्ठा और सत्ता की महत्ता का प्रभाव बना रहे। सभी मध्यकालीन पादशाहों की यही नीति रहती थी कि वे जहाँ तक बन पड़े, अपनी शानो-शौकत और चमक-दमक पूरी गर्मजोशी से बनाए रखें। साथ ही, अमीर वर्ग को सदा यह भान होता रहे कि वे खुद चाहे कितने ही महान और शक्तिशाली क्यों न हों, शंहशाह की तुलना में उनकी औकात बित्ता भर नहीं है, और यह भी कि उनकी सत्ता, अधिकार और महानता पूराी तौर पर शहंशाह की मन-मर्जी पर निर्भर है। इसी के साथ पादशाह अपने अवाम पर यह भी प्रभाव डालना चाहता था कि जनता इस बात को समझ ले और याद रखे कि बड़ा-से-बड़ा अमीर शहंशाह का नौकर भर है और इसलिए रियाया की वफादारी पर भी केवल उसी का अधिकार बनता है।

चूँकि मुगलिया अमीर वर्ग मनसबदारी संगठन का अंगा होता था, इसलिए उसे सैनिक, नागरिक (सिविल) और वित्तीय सभी प्रकार के सेवा कार्य करने पड़ते थे। इन कार्यों में न्यायिक कर्तव्यों को छोड़ कर अन्य सभी सार्वजनिक कार्य सम्मिलित थे। हर मनसबदार का अपने ओहदे के अनुसार न्यूनतम सैनिक दायित्व निर्धारित था, फिर भी आवश्यकता पड़ने पर उसे कोई अन्य अतिरिक्त कर्तव्य भी सौंपा जा सकता था। यद्यपि अमीर के मनसब और उसे मिले पद में कोई सीधा संबंध नहीं होता था, फिर भी दोनों के बीच एक मोटी संगति अवश्य होती थी। इसका अर्थ यह हुआ कि बड़े मनसबदारों को प्रायः अधिक महत्वपूर्ण पद ही मिलते थे।

सामाजिक और आर्थिक जीवन में अमीरों की भूमिका

प्रत्येक अमीर अपनी ‘अर्ध-स्वायत्त सरकार होती’ थी, जिसमें उसकी सैनिक टुकड़ी, अफसर, और अमला, घरेलू कर्मचारी, हरम, नौकर-चाकर और आश्रित वर्ग सम्मिलित थे। इस प्रकार की सभी सरकारें अपने-आप में स्वतंत्र इकाइयाँ होती थीं, क्योंकि शहंशाह के प्रति अमीर के सैनिक या अन्य प्रकार के दायित्वों की पूर्ति के बाद बची आय को वह अपनी मन-मर्जी के अनुसार खर्च करने के लिए स्वतंत्र था।

अपने निजी खर्चों के लिए अमीरों को एक बड़ी रकम मिलती थी। एक पाँच हजारी मनसबदारी को तीस हजार, तीन हजारी को सत्रह हजार और एक हजारी को आठ हजार रु० तक हर माह तनख्वाह मिलती थी। सतीश चंद्र के अनुसार उस समय के रुपए का क्रय-मूल्य सन् 1966 के क्रय-मूल्य से लगभग 60 गुना अधिक आंका गया है। इस तरह यद्यपि अमीर अपनी निजी तनख्वाह में से करीब आधी रकम परिवहन के काम में आने वाले जानवरों के रख-रखाव और अपनी जागीर के प्रशासन पर खर्च कर देते थे, फिर भी जो रकम बचती थी उससे वे पूरी तरह आडंबरपूर्ण और विलासिता की जिंदगी बसर करते थे। सच पूछे तो पक्का आडंबरपूर्ण जीवन जीने के लिए अमीर वर्ग के बीच मुगल पादशाहों की नकल उतारने की होड़ मची हुई थी। उनके खर्चों की फेहरिस्त में एक अति महत्वपूर्ण मद शहंशाह को दी जाने वाली भेंटों से संबंधित थी। फिर भी यह बात याद रखने योग्य है कि दी जाने वाली भेंटों का मूल्य हर अमीर के स्तर के अनुसार निर्धारित था। बदले में अमीरों को भी पादशाह की ओर से उपहार मिलते “रहते थे।

कुछ इतिहासकारों का मत है कि मुगलकालीन अमीर वर्ग में बचत के प्रति तनिक भी रुचि नहीं थी। इसका कारण “राजगामिता कानून’ को मानते हैं क्योंकि इस कानून के अनुसार अमीरों की मृत्यु के बाद उनकी सारी संपत्ति शाही खजाने में वापस आ जाती थी। जैसा कि हमने पहले कहा है, इन इतिहासकारों का मत विवादस्पद है अर्थात उनके तर्क अकाट्य नहीं हैं। जो भी हो, धन जमा करने के बजाय उसे खर्च करना ही मुगलिया अमीर वर्ग की प्रमुख विशेषता थी। यद्यपि हमारी जानकारी में कुछ ऐसे अमीर अवश्य हुए हैं जिन्होंने अपनी मृत्यु के बाद अपार धन-दौलत (नकद और हीरे-जवाहरात दोनों रूपों में) पीछे छोड़ी थी, किंतु ज्यादातर अमीर तो अपनी फिजूलखर्ची की आदतों की वजह से अपने पीछे बड़े-बड़े कर्ज ही छोड़ जाते थे।

केवल कुछ अमीर ने ही अपनी आय विभिन्न प्रकार के उद्यमों में लगाई। तत्कालीन यूरोपीय यात्रियों के वृत्तांतों से ऐसा लगता है कि कुछ अमीरों में व्यापार और वाणिज्य के प्रति भी रुचि थी। जहाँगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में आसफ खाँ ने गहरी वाणिज्यिक रुचि प्रदर्शित की थी और वह अपने ही स्तर पर व्यापार से अपार संपत्ति अर्जित करने में सफल हुआ था। औरंगजेब के शासनकाल में शाइस्ता खाँ और मीर जुमला जैसे प्रमुख अमीर बड़े पैमाने पर वाणिज्यिक उद्यमों में लिप्त रहे। शाइस्ता खाँ की तो आंतरिक व्यापार में ही रुचि थी, पर मीर जुमला के पास जहाजों का एक बड़ा बेड़ा था जिससे उसने फारस, अरब और दक्षिण-पूर्व-एशिया के देशों के साथ विस्तृत व्यापारिक संबंध जोड़े। इस तरह व्यक्तिगत स्तर पर अमीर वर्ग में व्यापार के प्रति बिल्कुल ही विमुखता रही हो-ऐसा नहीं कहा जा सकता। हाँ, एक वर्ग के रूप में अमीर लोगों की भूमिका व्यापार करने या उसे बढ़ाने के प्रति अनिश्चित थी। सामान्यतः अमीरों की आय का मुख्य स्रोत जमीन थी, न कि वाणिज्य-व्यापार।

एक ओर अमीरों ने मुगल पादशाहों की जीवन-शैली का अनुसरण किया तो दूसरी ओर समाज के कुछ वर्गो ने भी, जहाँ तक बन पड़ा वहाँ तक, अमीरों के रहन-सहन की नकल करनी चाही। इसका परिणाम यह हुआ कि ऐशो-आराम की हर प्रकार की वस्तुओं की तथा देश में बनी उच्च स्तर की कारीगरी की चीजों की मांग बढ़ गई। इनमें से कुछ चीजें तो बहुत कुछ अमीरों के कारखानों में ही बनती थी। बनियर के द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों के अनुसार ये कारखाने किन्हीं ठोस आर्थिक सिद्धांतों पर न चलाए जाकर बेगार के बल पर चलते थे।

कुछ अमीरों ने जो जमीनें खरीदीं, उन पर या तो बाजार बनाए गए या फलों के बागीचे लगाए गए। भारत में फलों की जो अनेक नई किस्में विकसित हुई हैं और उनकी जो लोकप्रियता बढ़ी है, उन सबका श्रेय मुगल पादशाहों और अमीरों को ही जाता है।

मुगलिया अमीर वर्ग ने देश के अतिरिक्त उत्पाद (surplus produce) के एक बहुत बड़े अंश का उपयोग किया। इसमें से कितना अंश उन्होंने अपनी प्रजा के हित में खर्च किया, इसकी सही जानकारी नहीं मिलती। किंतु कुछ अमीरों ने अवश्य ही जनता की कल्याणकारी योजनाओं में और दानशीलता अथवा धमार्थ कार्यों में रुचि ली। उन्होंने सराय और पुल बनवाए, कुएँ और तालाब खुदवाए, बाग-बगीचे लगवाए और मस्जिदें खड़ी की। कभी-कभी उन्होंने लंगर भी लगवाए।

अमीरों ने अनेक प्रकार के कलाकारों को आश्रय प्रदान किया। बहुतों के परिवारों में संगीतकारों को आश्रय मिला। कारीगरों-चित्रकारों, कवियों और विद्वानों को भी प्रश्रय व प्रोत्साहन दिया गया। इसी का परिणाम हुआ कि मुगलकाल में एक उत्कृष्ट सांस्कृतिक वातावरण बना और फला-फूला। इसमें अमीरों का योगदान बहुत बड़ा है।

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