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मनसबदारी व्यवस्था में जहाँगीर व शाहजहाँ द्वारा किये गये परिवर्तन

मनसबदारी प्रथा में जहाँगीर व शाहजहाँ द्वारा किये गये परिवर्तन

मनसबदारी व्यवस्था के क्षेत्र में अकबर के उत्तराधिकारियों द्वारा कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। किंतु जात तथा सवार पदों की युगल व्यवस्था इसी प्रकार बनी रही तथा इनके माध्यम से मनसबदार के दावों तथा दायित्वों का निर्धारण पूर्ववत ही होता रहा। कुछ परिवर्तनों के कारण यह व्यवस्था सरल हो गई जबकि कुछ के कारण इसमें जटिलता आ गई।

जहाँगीर काल

जहाँगीर के काल में “सवार” पद में संशोधन हुआ तथा “टु-अस्मा”, “सिंह-अस्पा’ की व्यवस्था की गई। अकबर के समय यह नियम बनाया गया कि किसी मनसबदार का “सवार” पद उसके “जात” पद से अधिक नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यह भी नियम था कि सर्वोच्च पद पर 5000/5000 “जात” व “सवार” रहेगा। इस नियम का पालन सिद्धांत रूप में “दु-अस्मा”, “सिह-अस्पा’ की व्यवस्था द्वारा ही संभव हो सका। किसी मनसबदार से खुश होने पर यदि पादशाह उसकी पद-प्रतिष्ठा में वृद्धि करना चाहता था तथा किन्हीं कारणवश उसके “जात’ पद में वृद्धि नहीं हो सकती थी, तो ऐसी दशा में “दु-अस्पा”, “सिह-अस्पा” द्वारा उसके “सवार” पद में अप्रत्यक्ष रूप में वृद्धि करके उसको पुरस्कृत किया जा सकता था। स्मरण रहे कि सवारों की संख्या पर ही किसी मनसबदार की श्रेणी व प्रतिष्ठा निर्भर करती थी।

इन सैनिकों की व्यवस्था के लिए अलग से धनराशि प्रदान की जाती थी। उदाहरण के लिए यदि किसी मनसबदार को 5000/5000 “जात’ व “सवार” पद मिला होता था, तथा वेतन की दर 8000 दाम नियत होती थी तो ऐसी दशा में मनसबदार को 5000 x 8000 दाम के हिसाब से अदायगी होती थी। किंतु ‘सवार’ पद में दुअस्पा “सिह-अस्पा” होने की दशा में अदायगी का क्रम इस प्रकार होता था: 2000×8000+3000-16000 । उक्त मनसबदार के अंतर्गत घुड़सवारों की संख्या भी वास्तव में 8000 होती थी।

शाहजहाँ काल

शाहजहाँ के शासनकाल में इस व्यवस्था में सुधार करने के लिए कई व्यापक परिवर्तन व संशोधनों की आवश्यकता हुई। अकबर के काल से ही बराबर यह शिकायत चली आ रही थी कि जागीरों की अनुमानित आय (जमा) तथा वास्तविक आय (हासिल) में अंतर रही थी अर्थात जागीरों से होने वाली आय वास्तव में कम होती थी। इसके बारे में मनसबदार शिकायत करते थे क्योंकि उनके स्वयं के वेतन तथा मातहत घुड़सवारों के वेतन की अदायगी जागीरों के माध्यम से होती थी। स्पष्ट है कि इससे मनसबदार तथा उसके मातहत दस्ते को आर्थिक हानि उठानी पड़ती थी। शाहजहाँ ने वस्तुस्थिति का अध्ययन करने के पश्चात समस्या का एक हल निकाला गया जागीरों की वास्तविक वसूली के आधार पर महीना जागीरों (शिश्माहा, सीमाहा आदि) की व्यवस्था शुरू की। इसके अनुसार किसी जागीर से राजस्व की वसूली पचास प्रतिशत होती थी तो उसको शिशमाहा जागीर माना जाता था तथा वसूली यदि कुल जमा का एक चौथाई होती थी तो जागीर सीमाही मानी जाती थी। इस प्रकार यदि किसी मनसबदार को शिशमाहा जागीर प्रदान की जाती थी तो उसके दायित्वों का भी उसी अनुपात से निर्धारण करके उनमें कटौती की जाती थी।

शाहजहाँ का उपर्युक्त कार्य अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण था। अगर वह जागीरों के महसूल अर्थात राजस्व की वसूली में होने वाली कमी को आधार बना कर मनसबदारों के “जात” या “सवार” पद में कमी करता तो इससे मनसबदारों के वर्ग में असंतोष फैलने की संभावना थी। कारण, इस कटौती को वे अपनी अवनति मानते। सैनिक दायित्वों की माहाना जागीर के माध्यम से मनसबदार की आय तथा सवारों से संबद्ध उनके दायित्वों में कटौती तो अवश्य हुई किंतु इससे उनके “जात” व “सवार” पद की गरिमा अक्षुण रही।

शाहजहाँ ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि मनसबदार अपनी जागीर के समीप स्थित हैं या उससे दूर हैं और उसी आधार पर “सवार” पद में एक तिहाई और एक चौथाई का अनुपात स्थापित किया। इस प्रक्रिया को इस प्रकार समझा जा सकता है : अगर किसी मनसबदार की जागीर उत्तरी भारत में है तथा उसकी नियुक्ति भी उत्तरी भारत में ही है तो उसको अपने सवार पद उल्लिखित संख्या के एक चौथाई घुड़सवार ही रखने होते थे। अगर वह दकन में नियुक्त होता था तो उस दशा में उसके सैनिक दायित्व एक चौथाई के अनुपात में रहते थे। यदि सैन्य अभियान के सिलसिले में मनसबदार को उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रदेशों, (बल्ल-बदख्शाँ आदि) में तैनात किया जाता था तो उसको सवार पद में उल्लिखित सैनिकों की संख्या का केवल 1 5 सैनिकों की व्यवस्था उक्त स्थानों की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए करनी होती थी। साथ ही इन स्थानों से मनसबदार के लिए राजस्व की वसूली के लिए आना भी संभव नहीं था, ऐसी दशा में वसूली वास्तव में कम ही रहती थी। शाहजहाँ ने इस कठिनाई को समझा और इस संबंध में एक औपचारिक नियम बना दिया।

शाहजहाँ द्वारा मनसबदारी व्यवस्था के क्षेत्र में किए गए उपयुक्त संशोधन औरंगजेब के काल में भी मान्य रहे। इस काल में अधिकांश मनसबदारों को दुअस्पा, सिहअस्पा पद प्रदान किया गया था। अतः सक्षम मनसबदारों की किसी महत्वपूर्ण जैसे फौजदार या किलदार आदि के पद पर नियुक्ति या किसी महत्वपूर्ण मुहिम (अभियान, कार्य) पर जाते समय उनके सवार पद में अतिरिक्त वृद्धि का एक और माध्यम निकाला गया जो “मशरूत’ कहलाता था। अपने उत्तरदायित्व को भलीभाँति निभाने के लिए मनसबदार को अतिरिक्त मात्रा में, जैसा कि आदेश किया गया हो, अपने सवारों में वृद्धि करने का अधिकार था। तबादले या काम पूरा होने की दशा में मशरूत पद वापस ले लिया जाता था अर्थात् अब उसके सवारों की संख्या उसके मनसब में उल्लिखित संख्या के बराबर ही रह जाती थी। कभी-कभी “मशरूत” पद को मनसबदार के सामान्य मनसब में शामिल कर दिया जाता था। उस दशा में इस वृद्धि को मशरूत नहीं माना जाता था। “मशरूत’ पद के अंतर्गत भरती किए जाने वाले घुड़सवारों का वेतन सामान्य सवारों के समय ही था।

आधुनिक इतिहासकारों ने “सवार” पद के विषय में विशद व्याख्याएँ की है, किंतु मनसबदार के “जात” पद का अध्ययन अभी उपेक्षित ही रहा है। “जात” पद भी मनसबदारी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग था। ‘जात’ पद के साथ कौन-कौन से दायित्व संबद्ध थे, इस विषय की समीक्षा करने का प्रयास के. के. त्रिवेदी ने किया है। उन्होंने यह स्थापित किया है कि अकबर के काल में मनसबदार को युद्ध में काम आने वाले हाथी-घोड़ों, बोझा ढोने वाले पशुओं व गाड़ी आदि की व्यवस्था करनी होती थी। इस व्यवस्था में होने वाला व्यय “जात” मनसब में निर्धारित वेतन ही शामिल होता था अर्थात उन्हें निजी रूप से ही इसकी व्यवस्था करनी होती थी।

जैसा कि “सवार” पद के बारे में हुआ करता था, मनसबदार उपर्युक्त क्षेत्र में अपेक्षित संख्या में पशुओं की व्यवस्था करने में कोताही करते थे। इसीलिए सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में उनके “जात’ पद में उल्लिखित वेतन से इस मद में व्यय होने वाली राशि की कटौती होना प्रारंभ हो गया जिसे चौथाई-रवासा कहा जाता था।

चौथाई-रवासा नाम से की जाने वाली कटौती 1681 के पश्चात से समाप्त कर दी गई क्योंकि इसी वर्ष वेतन-दर की नवीन तालिका लागू की गई। इसके अनुसार वेतन में अकबर के काल की अपेक्षा पच्चीस तीस प्रतिशत की कमी आ गई थी। चूँकि मनसबदार पशुओं की व्यवस्था के दायित्व को पूरा नहीं करते थे, अतः इस बाध्यता को भी समाप्त कर दिया गया। अतः इस मद में मिलने वाली राशि भी अब वेतन में सम्मिलित नहीं रही। उन्हें अब “जात” पद के अनुरूप निर्दिष्ट मात्रा में निजी स्तर पर, अपने तथा अपने सैनिक दस्ते की आवश्यकताओं के अनुरूप पशुओं की व्यवस्था करनी होती थी।

स्पष्ट है कि उपर्युक्त स्थिति में मुगल साम्राज्य की आक्रामक सैन्य क्षमता पर गहरा असर पड़ने की संभावना थी व मुगल शासक इस स्थिति के लिए तैयार नहीं थे। अतः उनके द्वारा शार्ह अस्तबल की क्षमता में विस्तार किया गया। इस वृद्धि के कारण शाही खजाने पर आर्थिक बोड न पड़ने देने के लिए मुगल प्रशासन ने मनसबदारों के निजी वेतन के “खुराके फीलान” (हाथिय का चारा) नाम से कटौती करना प्रारंभ कर दिया। इसके अलावा “इरमास” नाम से एक अन्य कटौती भी मनसबदारों के निजी वेतन मद से की जाती थी। “इरमास” के मद का धन प्रशासन द्वारा घोड़े खरीदने के लिए होता था।

उन मनसबदारों के वेतन से, जो पहले दकनी रियासतों की सेवा में थे तथा बाद में मुगलों के पक्ष में चले गए, “चौथाई कुल’ के नाम से अन्य कटौती भी की जाती थी। यह मनसबदार के “जात” तथा “सवार” दोनों मदों में से की जाने वाली भारी कटौती थी। कभी-कभी विशेष अनुग्रह दिखाने के लिए “चौथाई कुल’ को माफ भी कर दिया जाता था।

अगर मनसबदार के दोनों पदों से संबद्ध कुल राशि पर ध्यान दिए जाए तो ज्ञात होगा कि 1595 के दौरान शाही राजस्व का लगभग तीन चौथाई भाग मनसबदारों के मद में जाता था। राज्य के राजस्व से यह भारी निकासी थी क्योंकि यह धन केवल सशस्त्र सेना की व्यवस्था के मद में ही व्यय होता था। उत्पादन में उसका कोई उपभोग नहीं था।

सत्रहवीं शताब्दी में मनसबदारी व्यवस्था के क्षेत्र में विशेष अध्ययन नहीं हुआ है, किंतु मनसबदारों की शक्ति से अनुमान होता है उनकी आय प्रचुर मात्रा में थी। यह कहा जा सकता कि कृषि के विस्तार आदि के कारण राजस्व के क्षेत्र में होने वाली वृद्धि का बढ़ा भाग सशस्त्र सेनाओं की व्यवस्था पर व्यय कर दिया जाता था।

यह सच है कि मनसबदारों की मुग़ल साम्राज्य के विस्तार में प्रमुख भूमिका रही थी तथा उन्होंने साम्राज्य के विस्तृत क्षेत्रों में शांति व सुव्यवस्था स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया था, किंतु यह भी एक सत्य है कि उनके कारण राजस्व का भारी अपव्यय हुआ। इस प्रकार मनसबदारों ने एक ओर मुग़ल साम्राज्य के विस्तृत क्षेत्रों को एकता के सूत्र में बाँधा तथा व्यापार वाणिज्य की वृद्धि के लिए वातावरण तैयार किा। दूसरी ओर मनसबदारों के निर्वाह पर होने वाले व्यय के कारण कृषि उत्पादन अधिशेष की अधिकाधिक वसूली गई। वस्तुतः काश्तकारों के पास कृषि को उन्नत बनाने या उसका विस्तार करने की गुंजाइश ही नहीं रह गई थी।

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