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ताशकंद घोषणा-पत्र तथा भारत-पाकिस्तान संबंध

ताशकंद घोषणा-पत्र तथा भारत-पाकिस्तान संबंध

ताशकंद घोषणा-पत्र (ताशकन्द समझौता)

(Tashkent Declaration)

अगस्त-सितम्बर, 1965 में होने वाला भारत-पाक युद्ध 23 सितम्बर, 1965 के दिन समाप्त हो गया तथा दोनों देश सुरक्षा परिषद् के प्रस्ताव पर युद्ध विराम करने को सहमत हो गए। लेकिन युद्ध विराम के बाद जो शान्ति स्थापित हुई वह तनावपूर्ण, अस्थिर तथा जोखिम भरी थी। युद्ध विराम के बाद भी दोनों देशों की सेनाएं युद्ध भूमि में एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी रहीं। कुछ सीमा चौकियों पर इक्का-दुक्का गोलाबारी तथा बड़ी मात्रा में वायु-सीमा का उल्लंघन हो रहा था। भारत तथा पाकिस्तान दोनों ही देश एक ऐसी स्थिति में थे जिसको बड़े ध्यानपूर्वक निपटाये जाने की आवश्यकता थी। स्थिति की भयानकता तथा गम्भीरता को अनुभव करते हुए दोनों देशों के नेताओं ने ‘भारत-पाक” सम्बन्धों पर सम्पूर्णता से विचार-विमर्श करने लिए तथा आपसी मदभेदों एवं झगड़ों को शान्तिपूर्वक निपाटने के लिए सोवियत संघ तथा अपनी सेवाएँ प्रस्तुत करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। 4 सितम्बर, 1965 को कोसिगिन के प्रस्ताव में कहा गया था कि “संयुक्त राष्ट्र के चार्टर की भावना तथा बांडुंग सिद्धान्तों की भावना में रह कर कार्य करते हुए दोनों ही देश अपने बीच पैदा हो रहे मतभेदों को शान्तिपूर्वक दूर करने के लिए बातचीत करें।”

भारत ने सोवियत संघ की इस पेशकश को स्वीकार कर लिया क्योंकि यह उसके माननीय मित्र का प्रस्ताव था तथा इसलिए भी क्योंकि यह भारतीय विदेश नीति के मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित था। पाकिस्तान ने, जो यद्यपि प्रारम्भ में कुछ हिचकिचा रहा था, इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया क्योंकि इसने महसूस किया कि (i) हो सकता है इससे कश्मीर के प्रश्न पर सोवियत संघ का भारत समर्थन निष्प्रभावी हो जाए; (ii) सोवियत-पाक सम्बन्धों में विकास होने से चीन तथा पश्चिमी शक्तियाँ पाकिस्तान का समर्थन करने तथा इसकी सहायता करने की आवश्यकता को बेहतर प्रकार के अनुभव करने लगेंगी; (iii) पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा और फिर शक्ति द्वारा कश्मीर प्राप्त कर सकने की असफलता के बाद भारत के साथ बातचीत करने का ही केवल यही मार्ग बचा था; तथा (iv) कश्मीर में उसके गंवाए हुए क्षेत्रों को वापस लेने तथा कश्मीर के मुद्दे को दोबारा शुरू करने के लिए बातचीत की आवश्यकता थी। इन कारकों के प्रभावाधीन 4 जनवरी, 1966 को भारत-पाक वार्ता ताशकन्द में शुरू हो गई तथा 10 जनवरी, 1966 को समझौता हुआ जिसे ताशकंद घोषणा के नाम से जाना गया।

ताशकन्द घोषणा-पत्र की मुख्य धाराएं 

सूत्री ताशकन्द घोषणा-पत्र को प्रधानमन्त्री शास्त्री जी ने, “गुट-निरपेक्ष सरकार तथा दो सैन्य गुटों के साथ जुड़ी हुई सरकार के बीच एक अद्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति’ बतलाया। राष्ट्रपति अयूब ने इसे साधारण जनता की जीत कह कर सराहा। सोवियत प्रधानमन्त्री श्री कोसिगिन ने कहा कि, “यह भारत तथा पाकिस्तान के सम्बन्धों के विकास में एक नया चरण है।”

ताशकन्द घोषणा-पत्र की मुख्य धाराएं निम्नलिखित हैं-

  1. भारत के प्रधानमन्त्री तथा पाकिस्तान के राष्ट्रपति यह स्वीकार करते हैं कि दोनों ही देश अच्छे पड़ौसियों जैसे सम्बन्ध बनाने के प्रयत्न करेंगे तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अन्तर्गत शक्ति का प्रयोग न करने तथा अपने झगड़ों के शांतिपूर्ण निपटारे के अपने उत्तरदायित्व की पुष्टि करते हैं।
  2. दोनों देशों के सभी सशस्त्र सैनिक 25 फरवरी, 1966 तक 5 अगस्त, 1965 से पहले वाली स्थिति पर वापस बुला लिए जाएंगे तथा दोनों ही देश युद्ध विराम की शर्तों का पालन करेंगे।
  3. दोनों देशों के द्विपक्षीय सम्बन्ध, दोनों ही देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने के सिद्धान्त पर आधारित होंगे।
  4. दोनों ही देश एक दूसरे के विरुद्ध प्रचार को हतोत्साहित करेंगे।
  5. दोनों देशों के उच्चायुक्त अपने-अपने पदों पर वापस चले जाएंगे तथा दोनों देशों के बीच सामान्य कूटनीतिक सम्बन्ध कायम किए जाएंगे।
  6. दोनों ही देश आपस में आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध फिर से शुरू करने के लिए तथा संचार तथा सांस्कृतिक आदान-प्रदान के लिए पग उठाएंगे तथा वर्तमान समझौतों को लागू करेंगे।
  7. युद्ध बंदियों के आदान-प्रदान के लिए सम्बन्धित अधिकारियों को निर्देश जारी किए जाएंगे।
  8. दोनों ही देश लोगों के प्रवास को रोकने के लिए पग उठाएंगे तथा शरणार्थियों तथा अवैध आप्रवासियों को बाहर निकालने की समस्या पर बातचीत जारी रखेंगे। इसके अतिरिक्त वे झगड़े के दौरान अधिकार में ली गई जायदाद तथा अचल सम्पत्ति को वापस करने पर भी दोनों देशों में बातचीत की जाएगी।
  9. दोनों ही देशों ने यह बात स्वीकार की कि वे उच्च तथा दूसरे स्तरों पर, एक-दूसरे से सीधा सम्पर्क रखने वाले मामलों पर, एक दूसरे से बातचीत जारी रखेंगे।

इसके साथ-साथ दोनों ही देशों ने सोवियत संघ की सरकार तथा उसके नेताओं के प्रति अपना आभार प्रकट किया तथा उनके प्रयत्नों के लिए उनकी सराहना की।

ताशकन्द घोषणा पर प्रतिक्रियाएँ

ताशकन्द घोषणा का विभिन्न देशों ने गर्म-जोशी से स्वागत किया। केवल चीन ही ऐसा देश था, जिसने इसकी प्रशंसा नहीं की। बहुत से दूसरे देशों ने ‘भारत तथा पाकिस्तान के सम्बन्धों में इसे महत्त्वपूर्ण घटना माना।’

  1. भारत में प्रतिक्रिया-

    भारत में बड़ी संख्या में लोगों ने तथा कांग्रेस दल के सभी नेताओं ने इसका स्वागत किया तथापि जनसंघ के नेताओं तथा प्रजा समाजावदी दल (PSP) ने इसकी आलोचना की, मुख्यतः इसलिए क्योंकि इसमें हाजीपीर तथा टिथवाल से सेनाओं की वापसी स्वीकार कर ली गई थी। श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने तो यहाँ तक कह दिया था कि “हमारे जवानों ने युद्ध भुमियों में जो जीता था हमारे नेताओं ने उसे शान्तिकाल में खो दिया है।” भारत के साम्यवादी दल (CPI) तथा स्वतन्त्र पार्टी ने इसका स्वागत किया। सी० राजगोपालाचार्य ने कहा, “दोनों ही देशों में कठोरताओं को थोड़ा ढीला करके एक शुरुआत कर दी गई है।” भारत की सरकार ने संसद् में इस घोषणा का समर्थन किया। इसे शान्ति की प्राप्ति तथा युद्ध के विरुद्ध शान्तिपूर्ण साधनों के प्रयोग की तरफ महत्त्वपूर्ण कदम माना गया तथापि आलोचकों ने ‘अनाक्रमण घोषणा से कहीं दूर’ कहकर इसकी आलोचना की है।

  2. पाकिस्तान में प्रतिक्रिया-

    पाकिस्तान में इन घोषणा के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई। सामान्य भावना यह थी कि यह तो बेचना हुआ। लाहौर के विद्यार्थियों ने इसे ‘महान् धोखा’ (The great betrayal) कहा। पाकिस्तान की बार संघ (Bar Association) ने इसे निराशावादी कहा। श्रीमती फातिमा जिन्नाह (Mrs. Fatima Jinnah) ने कहा, ‘पाकिस्तान की तरफ से इस घोषणा को स्वीकार करने, इस पर हस्ताक्षर करने तथ इसे जारी करने वालों में दूरदर्शिता, बुद्धिमत्ता, धैर्य तथा दूर-दृष्टि का अभाव था।” केवल राष्ट्रीय आवामी पार्टी (National Awami Party) एक अपवाद थी, जिसने इसका स्वागत किया, जिसके महासचिव मि० महमूद-उल-हक उस्मानी ने इसे, “विवेक, तर्क तथा शांति की शक्तियों की विजय कहा।” पाकिस्तान की सरकार ने इसका समर्थन किया। परन्तु राष्ट्रपति अयूब को यह स्पष्टीकरण देना पड़ा कि पाकिस्तान “इसे अनाक्रमण सन्धि (No-war pact) की तरह स्वीकार नहीं करेगा तथा कश्मीर के लोगों को अपना भविष्य निर्धारण के अहस्तान्तरणीय अधिकार का समर्थन जारी रखेगा।’ पाकिस्तान के जनमत को शान्त करने के लिए उन्होंने कहा, “मुख्य कारण जम्मू तथा कश्मीर से सम्बन्धित झगड़ा है, तथा जब तक इसका निर्णय नहीं हो जाता तब तक भारत तथा पाकिस्तान में शान्ति नहीं हो सकती।” धीरे-धीरे पाकिस्तान की प्रैस तथा शासक ताशकन्द घोषणा को व्यावहारिक रूप में लागू करने के प्रति सन्देह प्रकट करने लगे। 15 नवम्बर, 1966 को एक साक्षात्कार में राष्ट्रपति अयूब खान ने कहा, “इससे कोई हल नहीं हुआ। इसके द्वारा केवल मात्र दोनों एक दूसरे के सामने अपनी-अपनी सेनाओं को हटाने के योग्य हो गए।”

  3. ताशकन्द घोषणा को लागू करना तथा 1966 से 71 तक भारत-पाक सम्बन्ध-

    वास्तव में, ताशकन्द घोषणा केवल उन्हीं भागों को, जो सेनाओं की वापसी से युद्ध बन्दियों के आदान-प्रदान तथा कूटनीतिक सम्बन्धों को फिर से शुरू करने से सम्बन्धित थे, ही लागू किया गया। इन धारणाओं को तेजी से लागू किया गया तथा 25 फरवरी, 1966 तक इन कार्यों को पूरा कर लिया गया। शेष धाराएं वैसी ही अक्रियाशील बनी रहीं। ताशकन्द समझौते के विरुद्ध पाकिस्तान में तीव्र प्रतिक्रिया द्वारा इसे “अनाक्रमण समझौता” के रूप में स्वीकार करने से इन्कार, इसे लागू करने से सम्बन्धित धाराओं की विशिष्टता तथा स्पष्टता का अभाव, धाराओं की व्याख्या करने के सम्बन्ध में मतभेदों, वाद-विवाद को सुलझाने से सम्बन्धित किसी तन्त्र के सम्बन्ध में धाराओं का न होना, तथा कश्मीर पर पाकिस्तान तथा भारत के दृष्टिकोण में परिवर्तन करने की असफलता ने, ताशकन्द समझौते को लागू करना कठिन बना दिया। घोषणा पर हस्ताक्षर करने के तुरन्त बाद प्रधानमन्त्री श्री शास्त्री जी की असफलता तथा 1966 तथा 68 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी द्वारा झगड़ों के शांतिपूर्ण निपटारे के लिए एक संयुक्त मशीनरी की स्थापना की पेशकश की पाकिस्तान द्वारा अस्वीकृति ने, सम्बन्धों को सामान्य बनाने के रास्ते में रुकावट खड़ी कर दी जोकि ताशकन्द समझौते के बाद सामान्य बनाए जा सकते थे। पाकिस्तान को सोवियत संघ द्वारा शस्त्रों की आपूर्ति का भारत द्वारा विरोध तथा पाकिस्तानी प्रेस द्वारा भारत विरोधी प्रचार की पुनः शुरुआत ने भी ताशकन्द समझौते को लागू करने के अवसरों को धूमिल कर दिया। संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के प्रश्न को पुनः उठाया जाना तथा घुसपैठियों का उत्तरदायित्व लेने में उसकी असफलता ने ताशकन्द घोषणा के सम्बन्ध सामान्य बनाने की धाराओं के संचालन में कठिनाई कपैदा कर दी। यहाँ तक कि 1 और 2 मार्च, 1966 को पहली मन्त्रीस्तरीय बैठक में भी कोई रास्ता नहीं खोजा जा सका।

भारत ने ताशकन्द घोषणा को लागू करने के लिये कई पग उठाये परन्तु पाकिस्तान के नकारात्मक तथा उदासीन रवैये के कारण ये असफल रहे। श्रीमती गाँधी ने 15 अगस्त, 1968 को पाकिस्तान के साथ “अनाक्रमण सन्धि” (No-war pact) करने की पेशकश की, जिसका पाकिस्तानी प्रेस द्वारा उपहास उड़ाया गया तथा इसे ढोंग कहा गया (उसी प्रैस ने 1981-87 में भारत तथा पाकिस्तान के बीच अच्छे पड़ोसियों के सम्बन्धों के लिए अनाक्रमण सन्धि को आवश्यक तथा आदर्श शर्त माना।) इसी प्रकार श्रीमती गाँधी का पाकिस्तान को प्रस्तुत प्रस्ताव की भारत तथा पाकिस्तान के बीच विभिन्न झगड़ों का निपटारा करने के लिए संयुक्त तन्त्र का निर्माण किया जाए, पाकिस्तान ने यह कहकर ठुकरा दिया कि ”यह केवल नया प्रचार अभियान है”

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