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1971-80 में भारत-पाक सम्बन्ध

1971-80 के मध्य भारत-पाक सम्बन्ध

मुहम्मद अयूब लिखते हैं, “लगभग उसी दिन से जिस दिन से ब्रिटिश लोग दक्षिण एशिया के उपमहाद्वीप से चले गये, इस क्षेत्र के मुख्य देश भारत तथा पाकिस्तान तक से लगातार शीत युद्ध की लपेट में हैं।” देश के विभाजन के फलस्वरूप जो समस्याएं तथा झगड़े पैदा हुए, कश्मीर के प्रश्न पर उठा झगड़ा, चीनी तत्त्व, तथा दोनों देशों की विदेश नीति अवधारणाओं में मतभेद आदि भारत और पाकिस्तान के बीच एक प्रकार के शीत युद्ध के मुख्य तत्त्व बने रहे हैं। तीन विभिन्न अवसरों पर अर्थात् 1948 ई०, 1965 ई० तथा 1971 ई० में यह शीत युद्ध सशस्त्र संघर्षों का रूप धारण कर गया। तीसरा युद्ध छोटा करीब-करीब दो सप्ताहों का युद्ध था, परन्तु इसके परिणाम बड़े दूरस्थ तथा प्रभावपूर्ण थे तथा उपमहाद्वीप की राजनीति तथा शक्ति ढाँचे पर इसका प्रभाव निश्चय ही बहुत अधिक पड़ा। इस युद्ध में भारत की पाकिस्तान पर विजय निर्णायक थी। इसने पाकिस्तान को उसका वास्तविक स्थान बता दिया। इस युद्ध के बाद बंगलादेश का उदय हुआ। इसने पाकिस्तान को यह अहसास दिला दिया कि भारत के साथ शक्ति समानता कायम करना व्यर्थ ही था। इसने भारत तथा पाकिस्तान को उनके द्विपक्षीय सम्बन्धों के प्रति अधिक सचेत कर दिया तथा दोनों ने प्रसिद्ध शिमला समझौता किया जो 1971 ई० के बाद के समय में भारत तथा पाकिस्तान के हितों का आधार बना।

1971 के युद्ध के क्या कारण थे?

(What led to the war in 1971?)

1965 के युद्ध के बाद भारत तथा पाकिस्तान दोनों ने ही सोवियत संघ की मध्यस्थता के अन्तर्गत कार्य करते हुए यह बात स्वीकार की थी कि वे अपने झगड़ों को शांतिपूर्वक ढंग से निपटाएंगे तथा अच्छे एवम् मित्र पड़ौसियों की तरह रहेंगे तथापि ताशकन्द समझौता, अपनी निहित कमजोरी के कारण तथा जिस वातावरण में इसको लागू करना पड़ा उसके स्वस्थकर न होने के कारण, भारत तथा पाकिस्तान सम्बन्धों के सामान्यीकरण तथा मित्रता को सुदृढ़ आधार प्रदान करने में असफल रहा। उन धाराओं की तेजी से पूर्ति करने के बाद जिसमें सेनाओं की वापसी, क्षेत्रों तथा युद्ध बंदियों का आदान-प्रदान शामिल था, इसको इसकी वास्तविक भावना के साथ लागू करने के लिए कोई प्रबल प्रयत्न नहीं किए गए। विशेषतया पाकिस्तान द्वारा इस घोषणा का स्वागत जिस प्रकार पाकिस्तानी प्रैस तथा लोगों ने नकारात्मक तथा तीव्र प्रतिक्रिया द्वारा किया, इससे पाकिस्तानी शासकों के लिए भारत के ताकि आवामी लीग को पाकिस्तान के भविष्य के संविधान का निर्धारण करने का अवसर न मिल सके। आवामी लीग, जो इस समय तक पाकिस्तान की अखंडता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध थी, ने इस निर्णय को पाकिस्तान के शासक दल द्वारा इसको इसका वैध अवसर प्रदान करने से जानबूझ कर इन्कार करने का निर्णय माना तथा इसलिए इसने पूर्वी पाकिस्तान में हड़ताल की घोषणा कर दी। 3 मार्च, 1971 की हड़ताल सम्पूर्ण रही। इसके बाद पूर्वी पाकिस्तान में नियमित हड़तालों का सिलसिला शुरू हो गया। प्रशासन ने सैनिक शक्ति सहित हर प्रकार की शक्ति का प्रयोग हड़तालों को दबाने के लिए किया। परन्तु लोगों के मनोबल में कोई भी शिथिलता न लाई जा सकी। इससे याहिया खान ने राष्ट्रीय विधानसभा के सत्र बुलाए जाने की घोषणा कर दी कि यह सत्र 25 मार्च, 1971 को होगा लेकिन इसके स्थान की घोषणा नहीं की।

मुजीब के नेतृत्व में पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने नई तिथि स्वीकार कर ली परन्तु साथ ही 3 मार्च के बाद पूर्वी पाकिस्तान में जो स्थिति पैदा हो गई थी, उसको सामान्य बनाने के लिए कुछ एक शर्तों को पूरा करने की मांग भी की। 8 मार्च को पूर्वी पाकिस्तान में आवामी लीग द्वारा सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू कर दिया गया। सभी वर्गों के बंगालियों ने (पूर्वी पाकिस्तान अर्थात् पूर्वी बंगाल तथा इसके निवासी अधिकतर बंगाली ही थे) इस आन्दोलन का भरपूर समर्थन किया। पूर्वी पाकिस्तान के मार्शल-ला प्रशासक (Martial law Administrator) जनरल टिक्का खान ने कप लगाकर तथा शक्ति प्रयोग करके जनता में इस जागृति को दबाने की कोशिश की परन्तु इसका कोई प्रभाव न पड़ा। 15 मार्च को मुजीब ने बंगलादेश की स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी तथा सत्ता की बागडोर संभाल ली। राष्ट्रपति याहिया खान ने मुजीब के साथ समझौता वार्ताएं आरम्भ की परन्तु इसके आवरण में इसका उद्देश्य केवल आतंक को बढ़ावा देना तथा बंगालियों के दमन करने के लिए पाश्विक शक्ति का प्रयोग करना था। 25 मार्च की रात को मुजीब को पकड़ लिया गया तथा उसे पश्चिमी पाकिस्तान ले जाया गया। पाकिस्तानी सैनिकों ने बंगालियों का सुनियोजित नर संहार शुरू कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान में स्थिति इतनी खराब तथा अमानवीय हो गई कि हजारों की संख्या में बंगालियों ने भारत आना तथा भारत की भूमि में शरण लेना आरम्भ कर दिया। थोड़े ही समय में उनकी संख्या एक करोड़ तक हो गई। इन शरणार्थियों को भोजन तथा आवास देने का भार इतना अधिक हो गया कि भारत सरकार ने याहिया खान से यह माँग की कि वह पूर्वी पाकिस्तान की समस्या को सुलझाकर सामान्य वातावरण करें ताकि शरणार्थी अपने-अपने घरों को वापस जा सकें। उपयुक्त पग उठाने की पाकिस्तानी सरकार की अयोग्यता तथा बंगालियों द्वारा इसके निरन्तर तीव्र विरोध ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया तथा भारत को इस बात के लिए बाध्य कर दिया कि वह बंगालियों के साथ सहानुभूति स्वरूप अपनी आवाज उठाये। साथ अच्छे सम्बन्धों के आधार के रूप में इसे स्वीकार कर सकना, एक कठिन कार्य बना दिया। वे भारत के साथ ‘अनाक्रमण सन्धि’ का समर्थन भी नहीं कर सके और न ही भारत तथा पाकिस्तान की समस्याओं तथा झगड़ों को निपटाने के लिए संयुक्त तन्त्र की स्थापना का समर्थन ही कर सके।

पाकिस्तानी प्रैस द्वारा शत्रुतापूर्ण प्रचार अभियान, कश्मीर पर लगातार मतभेद, अगरतला षड्यंत्र के परिणाम, फरक्का विवाद, कूटनीतिज्ञों का निष्कासन, पाकिस्तान द्वारा भारतीय सम्पत्ति की नीलामी तथा भारत विरोधी चीन-पाक धुरी का जोर पकड़ना, ताशकन्द के सिद्धान्तों पर आधारित भारत-पाक सम्बन्धों के विकास के लिए 1966 से 1997 तक के समय में स्थितियों को और अधिक बिगाड़ दिया। 31 मार्च, 1967 को पाकिस्तान में शासन परिवर्तन, जो कि दृढ़ जनमत के फलस्वरूप अयूब के त्यागपत्र देने के कारण हुआ तथा इसके साथ ही याहिया खान के सत्ता में आने से ताशकन्द घोषणा-पत्र के सिद्धान्तों पर अमल करने में अवरोध पैदा हो गया।

30 जनवरी, 1971 को भारत का एक हवाई जहाज अपहरण करके लाहौर ले जाया गया। इन अपहरणकर्ताओं को लाहौर में राजनीतिक शरण मिली क्योंकि उन्होंने अपने आपको कश्मीर मुक्ति मोर्चे का समर्थक बताया। पाकिस्तान की सरकार ने भारत सरकार की इस इच्छा की ओर कोई ध्यान नहीं दिया कि वे इन अपहरणकर्ताओं (Hijackers) को गिरफ्तार करके उनके हवाले कर दे तथा हवाई जहाज वापस कर दे। 2 फरवरी, 1971 को अपहरणकर्ताओं ने पाकिस्तानी अधिकारियों, प्रैस तथा टेलीविजन के सामने हवाई जहाज को आग लगा दी। इस घटना से भारत-पाक सम्बन्धों को गहरा धक्का लगा। भारत ने इन अपहरणकर्ताओं के नाटक के लिए पाकिस्तान को उत्तरदायी ठहराया तथा प्रतिरोध के रूप में यह निर्णय लिया कि पाकिस्तानी हवाई जहाजों की भारतीय क्षेत्र के ऊपर से उड़ान पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये। इस घटना ने एक बार फिर भारत तथा पाकिस्तान के आपसी सम्बन्धों के वातावरण को तनावपूर्ण तथा मनमुटाव वाला बना दिया। मार्च 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में संकट पैदा होने से तथा भारत पर इसके दबाव से स्थिति और भी खराब हो गई। ताशकन्द की भावना समाप्त हो गई। पाकिस्तान ने एक बार फिर भारत के विरुद्ध युद्ध के बारे में सोचना शुरू कर दिया। इसकी प्रैस ने भी ‘भारत कुचलो’ (Crush India) नारा बुलन्द किया। परन्तु इस प्रक्रिया में पाकिस्तान को शर्मनाक हार तथा पूर्वी पाकिस्तान को गँवा देने का दुःख सहना पड़ा।

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