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व्यावसायिक निर्देशन

व्यावसायिक निर्देशन

हमारे देश में व्यावसायिक शिक्षा की प्रक्रिया में व्यावसायिक निर्देशन का विशेष महत्व है। दोनों ही एक दूसरे के पूरक है। बिना व्यावसायिक निर्देशन के व्यावसायिक शिक्षा अधूरी रहती है। व्यवसायिक शिक्षा के अधिकांश कार्यक्रम व्यावसायिक निर्देशन की सहायता से सम्पन्न किये जाते हैं।

व्यावसायिक शिक्षा की परिभाषा यूनेस्को (UNESCO) ने दी है व्यावसायिक शिक्षा एक व्यापक प्रत्यय है। इसके अन्तर्गत शैक्षिक प्रक्रिया के सभी पक्ष तथा सामान्य शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, विज्ञान से सम्बन्धित अतिरिक्त प्रयोगशाला, कौशल, अभिवृत्तियों, ज्ञान तथा बोध से सम्बन्धित अतिरिक्त पक्षों को सम्मिलित किया जाता है। जिसका सम्बन्ध आर्थिक, सामाजिक जीवन तथा रोजगार की तैयारी से भी होता है। इस प्रकार की शिक्षा सामान्य शिक्षा का समन्वित खण्ड सतत् शिक्षा तथा रोजगार क्षेत्र की तैयारी का होता है।

व्यावसायिक शिक्षा के पक्ष (Aspects of Vocational Education)-

इस व्यावसायिक शिक्षा की व्यापक परिभाषा में इसके प्रमुख पक्षों, प्रारूप एवं उद्देश्य का उल्लेख किया गया है व्यावसायिक शिक्षा का प्रारूप इस प्रकार है-

  1. व्यावसायिक शिक्षा का सम्बन्ध समन्वित शिक्षा तथा सतत् शिक्षा से होता है।
  2. व्यावसायिक शिक्षा में सामान्य शिक्षा के अतिरिक्त तकनीकी शिक्षा, तथा विज्ञान-शिक्षा भी दी जाती है।
  3. व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत प्रयोगात्मक कौशल अभिवृत्तियों, जो रोजगार कौशलों से सम्बन्धित विकास किया जाता है।
  4. व्यावसायिक शिक्षा में रोजगारों के विभिन्न क्षेत्रों के आर्थिक एवं सामाजिक जीवन का ज्ञान एवं बोध कराया जाता है।
  5. व्यावसायिक शिक्षा शिक्षा का समन्वित रूप है जिसमें सामान्य शिक्षा के साथ जीवन के रोजगार क्षेत्र की तैयारी सतत् रूप में कराई जाती है।

व्यावसायिक शिक्षा के उद्देश्य (Objective of Vocational Education)

राष्ट्रीय शिक्षा अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् ने सन् (1984) में व्यावसायिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों का उल्लेख किया-

  1. ग्रामीण विकास के राष्ट्रीय उद्देश्यों की प्राप्ति करना।
  2. समाज का रूपान्तरण करना।
  3. राष्ट्रीय उत्पादन के विकास हेतु शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रदान करना और व्यक्तिगत सम्पन्नता में वृद्धि करना।
  4. मध्य वर्ग, मानव शक्ति का विकास करना और विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक सम्पन्नता लाना।
  5. सामान्य शिक्षा के एक समूह को व्यावसायिक विषयों की ओर उन्मुख करना।
  6. विश्वविद्यालयों की सामान्य शिक्षा की भीड़ को कम करना।
  7. छात्रों को आत्म-निर्भर बनाना तथा रोजगार के लिए तैयार करना।

व्यावसायिक निर्देशन का अर्थ (Vocational Guidance)

व्यावसायिक निर्देशन में छात्रों की योग्यताओं, क्षमताओं, कौशलों तथा शारीरिक एवं मानसिक संरचना के अनुरूप पाठ्यक्रमों एवं रोजगारों के चयन में सहायता करना है। जिससे वे अपने जीवन में अधिक सफल हो सके।

जार्ज ई० मायर्स का कथन है कि “व्यावसायिक शिक्षा, बिना व्यावसायिक निर्देशन के उसी प्रकार से है-किसी भारी मशीन को क्रेन्क के बिना उठाने का प्रयास किया जाए। व्यावसायिक निर्देशन एक साधन है और शिक्षा एक साध्य है। व्यावसायिक निर्देशन, बिना

व्यावसायिक शिक्षा के उसी प्रकार है जैसे क्रेन्क का लोहा भली प्रकार तैयार न किया हो जिसे भारी मशीन को उठा सकेगा। साध्य हेतु साधन सक्षम होने चाहिए।

शिक्षा का व्यावसायीकरण (Vocationalization of Education)-

व्यावसायीकरण का अर्थ होता है व्यावसायिक विषयों को विद्यालय तथा महाविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्थान दिया जाए जिससे छात्र अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद अपनी जीविका अर्जन में सक्षम हो सके। शिक्षा के व्यावसायीकरण से तात्पर्य होता है कि छात्र को आत्म-निर्भर बनाना। इसमें बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करना छात्र की प्रवणता और अभिरूचियों का मापन करके उसके अनुरूप उत्तम व्यावसायिक क्षमताओं का विकास करना है।

माध्यमिक शिक्षा आयोग (1953) में बहुउद्देश्य विद्यालयों की संस्तुति की थी। इनमें अनेक व्यावसायिक विषयों को सामान्य विषयों के साथ पढ़ाया जाता था।

कोठारी आयोग (1964-66) ने कार्य अनुभव को बढ़ावा दिया और सामाजिक उत्पादकता की संस्तुति की। उच्च माध्यमिक शिक्षा स्तर पर व्यावसायीकरण का उद्देश्य छात्रों में रोजगार की क्षमताओं का विकास करना और विशिष्ट रोजगार के लिए तैयार करना। उन्होंने रोजगार कृषि, कुटीर उद्योग, कृषि उद्योग आदि पर भी बल दिया।

शिक्षा का व्यावसायीकरण शैक्षिक पाठ्यक्रमों एवं औद्योगिक आवश्यकताओं के मध्य पुल का कार्य करता है। जबकि परम्परागत पाठ्यक्रमों का विकास वास्तविक आवश्यकताओं के अनुरूप किया गया है। आज के शैक्षिक पाठ्यक्रम सैद्धान्तिक अधिक है। व्यावहारिक नहीं है। आवश्यकता भिन्नता इस बात की है कि शिक्षा का स्वरूप रोजगार केन्द्रित होना चाहिए।

  1. वैयक्तिक भिन्नताओं की दृष्टि से व्यवसायिक निर्देशन शैक्षिक निर्देशन से वैयत्तिक भिन्नता के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति में निहित योग्यताएं क्षमताएँ, रूचि, अभिरूचि आदि भिन्न-भित्र होती है। किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न होता ही है। इस विभिन्नता की समुचित जानकारी प्राप्त किए बिना यह सम्भव नहीं है कि व्यक्ति की अभिरूचि, भावी प्रगति अथवा व्यवसायिक अनुकूलता के सम्बन्ध में निश्चित कथन दिया जा सके। किसी भी व्यवसाय के लिए अनुकूल व्यक्तियों का चयन करने से पूर्व वैयक्तिक विभिन्नताओं के स्तर एवं स्वरूप की जानकारी आवश्यक होती है, क्योंकि प्रत्येक व्यवसाय के लिए कुछ विशेष योग्यताओं वाले व्यक्ति की आवश्यकता होती है। निर्देशन के द्वारा इस सन्दर्भ में विभिन्न माध्यमों से पर्याप्त सूचनाएँ एकत्र की जा सकती है।
  2. व्यावसायिक भिन्नता की दृष्टि से (From the Standpoint of Vocational Difference)- प्राचीन समय में देश की अधिकांश जनता कृषि व्यवसाय के माध्यम से ही अपनी जीविकोपार्जन की समस्या का समाधान कर लेती थी। समाज की आवश्यकताएँ भी उस समय सीमित थी तथा जनसंख्या का धनत्व अपेक्षाकृत कम था। संयुक्त परिवार प्रथा के कारण एक परिवार के सदस्यों को एक ही स्थान पर रहकर अधिकाधिक अर्थोपार्जन का अवसर सुलभ रहता था। परन्तु जनसंख्या की तीव्रगति से होती हुई वृद्धि, आवश्यकताओं में वृद्धि औद्योगीकरण एवं नगरीकरण आदि के फलस्वरूप अनेक नवीन प्रकार के उद्योगों, व्यवसायों की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा। शीघ्र ही विभिन्न प्रकार की प्रकृति वाले व्यवसायों का उदय होना प्रारम्भ हो गया और स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त अल्पकाल में ही अनेक व्यवसाय संचालित किये जाने लगे। इन सभी व्यवसायों में अपेक्षित उत्पादन एवं कार्य कौशल की दृष्टि से अनुकूल व्यक्तियों के चयन की समस्या का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। अतः विद्यालयी स्तर पर ही यह आवश्यक समझा गया कि शिक्षार्थियों को उनकी अभिरूचि के अनुसार विषयों के चयन में सहायता प्रदान की जाएँ जिससे शिक्षा और व्यवसाय अथवा शैक्षिक उपलब्धि एवं जीविकोपार्जन से सम्बन्धित अपेक्षाओं में समन्वय स्थापित किया जा सके। व्यावसायिक निर्देशन, द्वारा विद्यार्थियों को उनकी रूचियाँ, कौशलों, योग्यताओं, अभिरूचियों आदि के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान की जा सकती है। इन जानकारी के आधार पर ही यह अपनी योग्यता के अनुरूप विषयों का चयन करने, भावी व्यवसाय के लिए आवश्यक योग्यताओं, क्षमताओं एवं कौशलों का विकास करने तथा उस व्यवसाय में प्रविष्ट होकर वृत्तिक सन्तोष की दिशा में प्रसरित होने का अवसर प्राप्त कर सकते है। इसलिए शैक्षिक होना बहुत जरूरी है।
  3. समाज की परिवर्तित दशाएँ (Changing Conditions of Society)- आज की पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक आदि विभिन्न दशाओं में आज पर्याप्त अन्तर आ चुका है। एक समय था जब व्यक्ति की योग्यताओं, व्यक्ति के अस्तित्व एवं परोपकार की दृष्टि से किए जाने वाले कार्य को महत्व दिया जाता था वर्तमान समाज की रीतियाँ सर्वथा भिन्न है। आज व्यक्ति के स्तर, धन, भौतिक साधनों को अधिक महत्व दिया जाता है। अपने पड़ोस, सम्बन्धियों एवं परिचितगणों से सम्मान प्राप्त करने के लिए आज यह आवश्यक है कि व्यक्ति का रहन-सहन का स्तर संतोषजनक हों। इस समय सम्मान एवं सामाजिक मान्यता प्राप्त करने का आज यही आधार है। साथ ही जनसंख्या वृद्धि एवं सीमित अवसर की उपलब्धता के कारण सर्व एक प्रतिस्पर्धा वातावरण भी उत्पन्न हो गया है। इस वातावरण में भी उन्हीं व्यक्तियों को आज सफल माना जा रहा है जो भौतिक दृष्टिसे अपेक्षाकृत आगे है। इस प्रकार के वातावरण में व्यक्ति का मानसिक एवं भौतिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। एक शैक्षिक व्यक्ति जो सामाजिक कार्य करता है। वह सराहनीय होता है वह शिक्षा के माध्यम से अनेक अवसरों की जानकारी देता है।

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