(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});

शारीरिक विकलांगता

शारीरिक विकलांगता

शारीरिक विकलांगता से तात्पर्य शरीर के विभिन्न अंगो में कमी आ जाने से होता है या शरीर के बेकार हो जाने से है। जब शरीर सामान्य ढंग का न होकर टेढ़ा-मेढ़ा या कोई अंग बेकार हो जाता है, तो उसे विकलांग बालक कहा जाता है। जो बालक को कहीं-न-कहीं दूसरों की सहायता या उपकरणों के सहयोग की आवश्यकता पड़ती हैं। अंग में चोट लगना, अंग का विरूपित हो जाना या किसी दुर्घटना के कारण अंग का नष्ट हो जाना या किसी असाध्य रोग के कारण शरीर के किसी अंग के बेकार हो जाना ही शारीरिक विकलांगता है। शारीरिक विकलांगता व्यक्ति के विकास में बाधा डालती है। शारीरिक विकलांगता के अन्तर्गत बहरा, गूंगा और अन्धा होना, हकलाना, किसी हाथ-पैर का न होना या शरीर के किसी अंग में लकवा मार जाना या किसी अंग का कम होना आदि शारीरिक विकलांगता के प्रकार हैं।

शारीरिक विकलांगता से ग्रसित बालक वांछित क्रियाओं में भाग नहीं ले पाता। वह अपने को पिछड़ा हुआ, दीन-हीन और दूसरों की दया पर जीने-मरने वाला है, उसका विकास मन्द पड़ जाता है। शारीरिक विकलांगता से ग्रसित बालक में हीन-भावना की ग्रन्थियाँ बनने लगती हैं। उसके सामने समायोजन की समस्या पैदा हो जाती है।

शारीरिक विकलांगता के प्रकार

शारीरिक विकलांगता के प्रकार निम्नलिखित हैं-

  • आंगिक दोष
  • दृष्टिदोष
  • श्रवण दोष
  • वाणी दोष
  1. आंगिक दोष-

    शरीर के किसी अंग विशेष में विकास पैदा हो जाना ही आंगिक विकलांगता कहलाती है। विकलांगता जन्मजात या जन्म के बाद होने वाले रोगों या दुर्घटनाओं से हो सकती है। आंगिक विकलांगता कई प्रकार की हो सकती है, जैसे- प्रमस्तिष्कीय, स्तमभन, मस्तिष्क पर आघात बाल पक्षाघात, पेशीय कुपोषण, मिरगी रोग, स्नायु विकृतियाँ, कुष्ठ रोग तथा रति रोग आदि। इसके अतिरिक्त किसी प्रकार की प्राकृतिक अथवा कृत्रिम घटना के कारण शरीर के किसी अंग का पंगु हो जाना या नष्ट होना यह सभी आंगिक दोष शारीरिक विकलांगता पैदा करते हैं। आंगिक कमियों के कारण बालक का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है तथा कदाचरण सम्बन्धी अनेक दोष आ जाते हैं। इन दोषों के कारण बालक सामान्य औसत बालक से अपने को पिछड़ा हुआ समझता है, उसमे आत्म-विश्वास की कमी हो जाती है।

  2. दृष्टिदोष-

    दृष्टिदोष का अर्थ देखने की क्षमता में कमी होने से है। बालक में प्रमुख रूप से निकट और दूर-दृष्टि दोष पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त तिर्यक-दोष भी पाया जाता है। कुछ बालकों की क्षीण दृष्टि होती है और कुछ मन्द-दृष्टि के होते हैं।

सामान्यतः दृष्टिदोष का अर्थ-शैक्षिक दृष्टि से चार भागों में विभाजित किया गया है-

  1. पूरी तरह से दृष्टिहीन या जन्मान्ध बालक।
  2. वे बालक जिन्हें बड़ी आकृतियों की छाया मात्र दिखाई पड़ती है।
  3. ऐसे दृष्टिदोष वाले बालक जिन्हें 3-5 फीट की दूरी तक के मोटे अक्षर दिखाई पड़ते हैं तथा हाथों के संकेत समझ जाते हैं।
  4. अति क्षीण दृष्टि, इसमे पढ़ने-लिखने पर बालक सिर-दर्द एवं थकान अनुभव करता है तथा उसे पहचानने में कष्ट होता है।
  5. रंगीन या रंग-अन्धता भी शिक्षण में बाधक होती है।

आज भारत में लगभग विद्यालय जाने वाले युवकों की आयु वालों में लगबग 15-20 हजार दृष्टिहीन हैं तथा डेढ़ से दो लाख बालक आंशिक रूप से क्षीण दृष्टि वाले हैं। वास्तव में दृष्टिदोष का विकास आँखो की सफाई न रखने, बीमारी में समुचित इलाज न करने एवं धूल , धुआँ और थक्के से आँखो की रक्षा न करना सामान्यतः दृष्टिहीनता रतौंधी या रंग-अन्धता को जन्म देती है।

चक्षुहीनता या दृष्टि-दोष विभिन्न प्रकार के संक्रामक रोगों और रक्त विकास से हो जाता है। वंशानुगत प्रभाव भी चक्षुहीनता का कारण बन जाता है। इसके अतिरिक्त साधारण नेत्र, रोग, विष का प्रभाव, दुर्घटना एवं चोट-चपेट लगने से दृष्टि-दोष उत्पन्न हो जाना।

बाल-विकास में दृष्टि-दोष निश्चित, एक स्पष्ट अवरोध होता है। दृष्टि-दोष के कारण बालक की क्रियात्मक शक्ति एवं सामुदायिक जीवन सर्वथा मन्द पड़ जाता है सामाजिक समंजन की समस्या चक्षुहीन के समक्ष सदैव रहती है। अध्ययनों से पता चलता है कि चक्षुहीन बालकों की वाणी विकास भी विलम्ब से होता है, योग्यता की दृष्टि से चक्षुहीन बालक अपने प्रयास से दृष्टियुक्त बालकों से अधिक योग्य हो सकते हैं। चक्षुहीन के लिए आवासीय विद्यालय अधिक उपयुक्त होते हैं।

  1. श्रवणदोष-

    श्रवण दोष का अर्थ कानों से कोई आवाज न सुनायी पड़ने से है। बालक जैसा सुनता है, वैसा ही बोलने का प्रयास करता है। श्रवण दृष्टि-दोष बालक बधिर और अपूर्ण बधिर दोनों प्रकार के होते हैं। वास्तव में बधिर बालक वे होते हैं, जिन्होंने कभी कोई आवाज न सुनी हो। बोलना प्रारम्भ करने से पूर्व ही ऐसे बालकों की श्रवण-दृष्टि खो जाती है। वधिर का अर्थ-भण्डार शून्य होता है। पूर्ण बधिर बालक में बोलने की क्षमता भी नहीं होती। वे बालक जो बोलना सीख जाते हैं, परन्तु बाद में किसी बीमारी होने या चोट लगने के कारण उनमें श्रवण दोष उत्पन्न हो जाता है, अर्थात् उन्हें कम सुनाई पड़ता है। ऐसे बालक श्रवण यंत्र का प्रयोग करते हैं। इस समय भारत में लगभग 1.5 लाख पूर्णतः और 1.4 लाख आंशिक बधिर हैं।

बधिरता जन्मजात भी होती है और जन्म से उपरान्त भी होती है। जन्म के उपरान्त भी श्रवण दोष होने के कारण कई बीमारी जैसे-रूबेला कनफोड़ या किसी दुर्घटना के कारण कान के पर्दे का फट जाना। कुछ बधिरता वंशानुगत भी होती है। श्रवण दोष-युक्त बालक देखने में साधारण बालक जैसा ही लगता है, परन्तु इसकी पहचान समूह में आसानी से की जा सकती है। वह बालक तेज स्वर में बोलते हैं, जिससे बातें करते हैं, उसके मुख मुद्रा को बड़े ध्यान से देखते हैं। जो बालक पूर्णतः बधिर हो, उन्हें मूक बधिर विद्यालय में ही शिक्षण के लिए भेजना चाहिए।

  1. वाणी दोष-

    अशुद्ध अस्पष्ट और रुक-रुककर और धीमें स्वर में बोलना वाणी दोष कहलाता है। वास्तव में भाषा विचारों के आदान-प्रदान का एक सशक्त माध्यम है। जब बालक अपने मनोभावों को व्यक्त करने में वाणी सम्बन्धी कठिनाई अनुभव करे, तो उसे वाणी कहते हैं। वाणी दोष-युक्त बालक शब्द का सही उच्चारण नहीं कर सकता। उसके बोलने में शब्द प्रभाव और भाषा प्रभाव नहीं होता, मुख मण्डल में ही स्वर सही नहीं निकलता है।

वाणी दोष के अन्तर्गत हकलाना, मिन-मिनाना, तुतलाना, कर्कश आवाज या धीमे स्वर से बोलना आदि आते हैं। साधारण शब्दों में, सामान्य गति से न बोल पाना ही वाक् विकलांगता है। वाणी दोष उत्पन्न होने के कारणों में प्रमुख हैं- कान से स्पष्ट न सुनाई देना, मस्तिष्क पर चोट लगना, दाँतो का न होना, जिसके विकार या गले के खराब होने से बालक में वाक्-विकलांगता या क्षेत्रीय प्रभाव के कारण भी वाण दोष पैदा हो जाता है।

कुछ लोग अपने आपको दिखाने के प्रयास में बनावटी ढंग से बोलने का प्रयास करते हैं। इनमें भी कभी कभी वाणी विकारयुक्त हो जाती है। कभी-कभी तालुभंग या पक्षाघात के कारण भी वाक्-विकलांगता पैदा हो जाती है। यदि अन्य बातें सामान्य हों, तो बालक जितना अशुद्ध उच्चारण सुनेगा, वैसा ही वह बोलेगा, अर्थात् परिवेश में जितना त्रुटिपूर्ण उच्चारण होगा, वाक्यदोष उतना ही भंयकर होगा। कभी-कभी बालक शब्द का अधूरा उच्चारण करता है। इससे ध्वनि विचलन हो जाता है, जिससे वाणीदोष पैदा हो जाता है, जैसे- मास्टर साहब को मासाब, उर्वशी को उवसी और लड़ाई को लाई बोलता है।

प्रायः दुःख-सुख भी इसका कारण है। तनावपूर्ण मानसिक स्थिति में बालक का उच्चारण प्रभावित होता है।

उपर्युक्त वाक् विकारों में प्रमुख विकार निम्नलिखित हैं-

  1. उच्चारण सम्बन्धी वाक्दोष,
  2. ध्वनि विकृत,
  3. वाणी स्खलन,
  4. विलम्बित वाक् विकार,
  5. वाक्यक्षेप एवं तालुविकृति,
  6. ओष्टा विकृति,
  7. प्रमस्तिष्कीय संस्तम्भ वाक्-विकार,
  8. श्रवणदोष विकृति,
  9. वातावरण का प्रभाव,
  10. वंशानुक्रम का प्रभाव।

उपर्युक्त सभी सन्दर्भो में वाक्दोष युक्त बालकों का वर्गीकरण कर उनके वाक्-शोधन के प्रयास चिकित्सक, शिक्षक, मनोवैज्ञानिक एवं माता-पिता सभी मिल-जुलकर प्रयास करें।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए, अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हमसे संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है, तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment

error: Content is protected !!