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शैक्षिक निर्देशन- उद्देश्य एवं आवश्यकता

शैक्षिक निर्देशन-उद्देश्य एवं आवश्यकता

शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता (Need of Educational Guidance)

मुख्यतः शिक्षा निर्देशन वैज्ञानिक और औद्योगिक एवं मनोवैज्ञानिक अनुसंधान के फलस्वरूप इस शैक्षिक जगत में अनेक प्रकार के परिवर्तन हुए हैं शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण, अधिगम की व्यवस्था तथा अनुदेशन की प्रक्रिया में इन परिवर्तनों को प्रत्यक्ष रूप में देखा जा सकता है। इसमें सन्देह नहीं है कि वर्तमान विद्यालयों के अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के समक्ष आज अपेक्षाकृत अधिक समस्याएँ उपस्थित होती है। इन समस्याओं के समाधान के लिए शैक्षिक निर्देशन का उपयोग आवश्यक हैं। शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता निम्नलिखित हैं-

  1. पाठ्यक्रम से सम्बन्धित विषयों का चयन (Appropriate Selection of the Subjects)-

    विद्यार्थियों का बौद्धिक स्तर, रूचि, अभिरूचि एक दूसरे से भिन्न होती हैं। वांछित अधिगम की दिशा में सफलता प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक होता है कि प्रत्येक विद्यार्थी को उसके अनुरूप विषयों के अध्ययन का अवसर प्राप्त हो। प्रायः यह देखने में आता है कि कुछ विद्यार्थी विज्ञान वर्ग के विषय लेकर अनुत्तीर्ण हो जाते हैं परन्तु कला-वर्ग के विषय लेकर उच्च कोटि के अंक प्राप्त कर लेते हैं। उच्च महत्वाकांक्षा व कर्म बुद्धि लब्धि का होना इस प्रकार के असंगत निर्णयों का एक प्रमुख कारण होता है। इसी प्रकार महत्वाकांक्षा का निम्न स्तरीय होना तथा बुद्धि लब्धि का अधिक होना भी, शैक्षिणक उपलब्धि को प्रभावित करता है। अधिकांश विद्यार्थियों को यह ज्ञात नहीं होता है कि किस व्यवसाय में जाने के लिए किन विषयों का चयन किया जाना चाहिए। ऐसे असंख्य उदाहरण सामने आ सकते हैं जिनमें एक विद्यार्थी की अभिरूचि पायलट बनने में प्रदर्शित होती है परन्तु वह अध्ययन जीव विज्ञान वर्ग के विषयों का कर रहा होता हैं इस प्रकार की परिस्थितियों में निर्देशन का विशेष महत्व होता है। प्रारम्भ में ही असंगत विषयों का चयन, विद्यार्थी के समस्त भविष्य को किसी न किसी रूप में अवश्य प्रभावित करता है।
  2. अग्रिम शिक्षा के सम्बन्ध में जानकारी (To Know about the Further Education)-

    अग्रिम शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता होती है। हाई स्कूल स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरान्त प्रत्येक अभिभावक एवं विद्यार्थी के समक्ष यह समस्या उत्पन्न होती है कि वह भावी शिक्षा के सम्बन्ध में किन आधारों पर निर्णय लें। उनके सामने यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वे अपनी शैक्षिक उपलब्धि को ही आगे बढ़ाएं, किसी व्यवसाय के लिए प्रतियोगितात्मक परीक्षा की तैयारी करें अथवा किसी औद्योगिक संस्थान में प्रशिक्षण प्राप्त करें। इस सन्दर्भ में यथोचित निर्णय के अभाव में उनकी मानसिक स्थिति असन्तुलित रहती है। उनमें से कुछ इण्टर अथवा उच्च माध्यमिक की शिक्षा प्रारम्भ कर देते हैं, कुछ विद्यार्थी अनिश्चय की स्थिति में आगे की परीक्षाएँ भी देते रहते हैं तथा प्रतियोगिता परीक्षाओं की अपूर्ण तैयारी भी करते रहते है कुछ यूँ ही अपना समय व्यर्थ करते है। उपयुक्त समय पर पर्याप्त निर्देशन प्राप्त न हो पाने के कारण ही ऐसा होता है। अतः यह आवश्यक है कि हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरान्त भी प्रत्येक विद्यार्थी को समुचित निर्देशन उपलब्ध कराया जाए।
  3. नवीन विद्यालयों में समायोजन की दृष्टि से (From the Standpoint of Adjustment in the New Schools)-

    नवीन विद्यालयों में प्रवेश करने के उपरान्त विद्यार्थियों के समक्ष अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। विशेषकर पब्लिक स्कूलों अथवा अंग्रेजी माध्यम के उच्च स्तरीय विद्यालयों से हिन्दी माध्यम के विद्यालय में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों के समक्ष यह समस्या उत्पन्न होती है। ग्रामीण क्षेत्र से नगरों में स्थापित विद्यालयों में प्रवेश प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों के समक्ष भी इस प्रकार की अनेक कठिनाइयों। आती हैं। एक शैक्षिक वातावरण से दूसरे शैक्षिक वातावरण में प्रवेश लेने वाले छात्र-छात्राओं को नवीन शैक्षिक वातावरण से सम्बन्धित नियमों का ज्ञान नहीं होता है, वहाँ सहपाठियों का व्यवहार उसके लिए नया होता है तथा उन विद्यालयी में आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं से तत्काल समायोजन कर पाना भी उनके लिए कठिन होता है। इस प्रकार की स्थितियों से समायोजन करते हुए अपने उपलब्धि स्तर को निरन्तर बनाएं रखने के लिए शैक्षिक निर्देशन की सहायता प्राप्त की जा सकती है।
  4. विभिन्न अवसरों की जानकारी प्रदान करना (To Give Knowledge about Opportunities)-

    स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् से भारत में विभिन्न प्रकार के व्यवसायों का विकास हुआ है। इन समस्त व्यवसायों का सम्बन्ध कुछ विशिष्ट प्रकार के पाठयक्रमों से होता है। इन व्यवसायों की समुचित जानकारी के अभाव में विद्यार्थियों को यह ज्ञात नहीं हो पाता है कि वे अपने अध्ययन काल के निरन्तर किन विषयों का चयन करें अथवा अनिवार्य शैक्षिक योग्यता प्राप्त करने के उपरान्त किन संस्थानों में जाकर प्रशिक्षण प्राप्त करें। शैक्षिक बेरोजगारी की वृद्धि करने में यह धारणा प्रमुख रूप से उत्तरदायी होता है, निर्देशन सेवाओं के माध्यम से इस सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध कराई जा सकती है।
  5. अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या का समाधान (To Solve the Problem of Wastage and Stagnation)-

    हमारे देश में अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या एक गम्भीर रूप में विकसित हुई है। देश के अनेक बालक प्रतिवर्ष प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित होकर अपने घरों में बैठ जाते हैं। और अशिक्षित होने के कारण उपेक्षित जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो जाते है। यद्यपि.भारतीय संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि 6 से 14 वर्ष के बालकों के लिए अनिवार्य रूप से शिक्षा की व्यवस्था की जाए, परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इस दिशा में सफलता प्राप्त नहीं हो सकी है। अभिभावकों का संकुचित दृष्टिकोण, उनकी आर्थिक दशा, पर्याप्त विद्यालयों का अभाव, अनुकूल विद्यालयी वातावरण का अभाव आदि कारण इस समस्या के लिए उत्तरदायी है। इस प्रकार एक ही परीक्षा में निरन्तर अनुत्तीर्ण होने के कारण भी, अनेक बालक अपनी शिक्षा प्राप्ति के क्रम में अवरोध अनुभव करने लगते है और सदैव के लिए अपना अध्ययन छोड़ देते हैं। इस समस्या के समाधान की दिशा में छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों को पर्याप्त निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।
  6. अधिगम की दिशा में तल्लीन बनाए रखने हेतु (To Involve in the Process of Learning)-

    वांछित उपलब्धि स्तर के क्रम को सतत् रूप से बनाए रखने हेतु यह आवश्यक है कि प्राप्त ज्ञान का सहज अधिगम करने में विद्यार्थी को सफलता प्राप्त होती रहे। अनेक विद्यार्थी सीखने की समुचित विधियों के ज्ञान के अभाव के कारण ही अन्य छात्रों की अपेक्षा पीछे रह जाते है और सही मार्गदर्शन प्राप्त होते ही अन्य छात्रों की तुलना में अधिक उत्तम उपलब्धि कर लेते है। स्मृति अथवा बोध क्षमता का पर्याप्त विकास एवं इनको प्रभावित करने वाले कारकों की समुचित जानकारी के अभाव में ही ऐसा होता है। अतः यह आवश्यक है कि सूचनाओं के स्मरण करने, उनका बोध उत्पन्न करने तथा उन्हें प्रयुक्त करने के तरीकों का सही ज्ञान प्रत्येक विद्यार्थी को कराया जाए। इसलिए हमारे देश को नई दिशा प्राप्त करने के लिए शैक्षिक होना बहुत जरूरी है।

शैक्षिक निर्देशन के उद्देश्य (Objectives of Educational Guidance)-

किसी व्यक्ति के शैक्षिक परिवेश एवं उसमें प्राप्त सम्भावनाओं, अपेक्षाओं एवं विशेषताओं से शैक्षिक निर्देशन का सम्बन्ध होता है। आज हमारे देश के विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पाठ्यचर्याओं, पाठ्यक्रमों एवं अधिगम के साधनों का प्रावधान किया है, वह अपनी विभिन्नता की दृष्टि से विशेषता रखती है। इसके साथ ही, उनसे लाभ प्राप्त कर सकने वाले विद्यार्थियों की क्षमताओं, योग्यताओं, प्रवणताओं एवं अभिवृत्तियों इत्यादि की उपेक्षा को ध्यान में रखकर भी उनमें भिन्नता दिखलाई देती है।

इस प्रकार शिक्षा एक व्यापक प्रक्रिया है। इसके माध्यम से व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है। बालक के व्यवहार में परिवर्तन करने हेतु विभिन्न विषयों का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि सभी बालक, सभी दृष्टियों में समान नहीं होते, उनमें विभिन्नताएँ पायी जाती है। इसी कारण आज शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता को अधिक अनुभव किया जा रहा है। शैक्षिक निर्देशन के निम्नलिखित उद्देश्य प्रतिपादित किए गए हैं।

  1. छात्रों को अपनी योग्यता, प्रवणता एवं रूचि के अनुसार पाठ्यक्रमों के चयन में तथा उनके लिए अपेक्षित तैयारी में सहायता करना।
  2. विद्यार्थियों को, राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरों पर आयोजित, विभिन्न प्रकार की प्रतियोगी परीक्षाओं हेतु अपेक्षित तत्परता व तैयारी के सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाएँ प्रदान करना।
  3. छात्रों का आत्म अनुदेशन की ओर अग्रसरित होने में सहायता देना।
  4. स्वअध्ययन की विधियों को प्रयुक्त करने में छात्रों की सहायता करना।
  5. विद्यार्थियों को अधिकाधिक आत्म-बोध कराना, ताकि वह अपनी क्षमताओं, योग्यताओं, रूचियों तथा न्यूनताओं को जानकर तथा समझकर अपनी आकांक्षाओं के स्तर को यथार्थता के आधार पर निर्धारित कर सके।
  6. विद्यार्थियों को विद्यालयों के अन्दर तथा बाहर प्राप्त अधिगम साधनों तथा सम्प्रेषण के माध्यमों के बारे में बोध गम्यता का विकास करना।
  7. छात्रों के विभिन्न स्तरों पर पाई जाने वाली शिक्षा व्यवस्थाओं, पाठ्यक्रमों एवं विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में जानकारी देना।
  8. अनेक प्रकार की शिक्षा व्यवस्थाओं के सम्बन्ध में छात्रों को जानकारी प्रदान करना तथा उनमें उपलब्ध विभिन्न विषयों तथा वाणिज्य, विज्ञान इत्यादि हेतु आवश्यक राज्य से सम्बन्धित नियमों, सूचनाओं तथा क्षमताओं के सम्बन्ध में छात्रों को जानकारी देना।
  9. विद्यालय वातावरण से सम्बद्ध कार्यक्षेत्र की यथार्थता एवं विद्यालय के बाहर सामाजिक वातावरण की यथार्थता में सम्बद्ध अपेक्षाओं के मध्य समायोजन स्थापित करने में विद्यार्थियों की सहायता करना, जिससे विद्यार्थी के वैयक्तिक जीवन में कम से कम तनाव पैदा हो।
  10. विद्यालय के नवीन परिवेश में सामंजस्य स्थापित करने, विषयों, पाठ्यत्तोर क्रियाओं, उपयोगी पुस्तकों, हॉबी के चयन करने, अध्ययन की उत्तम आदतों का निर्माण करने भिन्न-भिन्न विषयों में सन्तोषप्रद उन्नति करने, छात्र वृत्तियों के सम्बन्ध में आवश्यक सूचनाएं प्रदान करने एवं विद्यार्थियों से परस्पर मधुर सम्बन्ध स्थापित करने में सहायता करना।
  11. विद्यार्थियों को नवीन शिक्षा तकनीकी से अधिक लाभ उठाने हेतु प्रोत्साहित करना तथा इससे सम्बन्धित परामर्श प्रदान करना।
  12. छात्रों को नवीन पाठ्यक्रमों, नवीन शिक्षण-पद्धतियों, नवीन शिक्षा नीतियों एवं अधिगम के साधनों के बारे में पर्याप्त एवं आवश्यक सूचनाएँ प्रदान करना।

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