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सल्तनत कालीन विभिन्न उद्योग

सल्तनत कालीन विभिन्न उद्योग

मध्ययुगीन बादशाहों के भारत पर आक्रमण करने के अनेकानेक कारणों में भारत की आर्थिक समृद्धि भी एक प्रमुख कारण था। उस समय भारत अपनी अपार धन-सम्पदा के लिए प्रख्यात था। यही कारण है कि प्रारम्भिक आक्रमणकारी महमूद गजनवी ने भारत पर सत्रह आक्रमण किये, यहाँ की धन-सम्पदा को लूटा और मन्दिरों को ध्वंस किया। परन्तु महमूद गोरी ने एक भिन्न उद्देश्य से भारत में प्रवेश किया। उसका उद्देश्य केवल धन लूटना नहीं था, अपितु वह स्थायी मुस्लिम राज्य की स्थापना का इच्छुक था। विजयों, लूटमार एवं हत्याकाण्ड से अलग कालान्तर में तथाकथित दास-वंश के शासकों के युग में व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग-धन्धों विकास की ओर ध्यान दिया गया।

सल्तनतकालीन सुल्तानों में बलबन प्रथम शासक था जिसने विस्तारवादी नीति को नहीं अपनाया अपितु उसकी नीति सुदृढ़ीकरण की थी। शान्ति और व्यवस्था के इस युग में व्यापार और उद्योग धन्धों में विकास की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई, वह उत्तरोत्तर विकसित होती रही। आर्थिक साधनों से सम्पन्न मुस्लिम शासक विलास-प्रेमी और साजसज्जा-प्रेमी थे, अतः उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए देशी उद्योग-धन्धों के साथ-साथ विभिन्न वस्तुओं के आयात को प्रोत्साहन मिला। विनिमय का ससाधन सिक्के थे जो सोना, चाँदी व ताँबे के होते थे। मध्य-काल में अनेक कारखाने बादशाओं द्वारा संचालित किये जाते थे। सल्तनत काल में विभिन्न उद्योग धन्धों की स्थिति निम्न प्रकार से थी :

राजकीय उद्योग केन्द्र

सल्तनत काल राज्य द्वारा संचालित कई कारखानों का स्थापित किया गया। शम्से सिराज अफीफ ने अपने ग्रन्थ ‘तारीख-ए-फिरोशाही’ में इन कारखानों के संदर्भ में लिखा है, “सुल्तान के पास 36 कारखाने थे और उसने उनमें वस्तुओं का संग्रह करने के लिए पर्याप्त प्रयास किया था प्रत्येक वर्ष हर एक कारखाने पर बहुत सा धन व्यय किया जाता था। प्रत्येक कारखाने का अध्यक्ष खान अथवा मलिक होता था। सर्वोच्च अधिकारी मुतसरिफ कहलाता था। जब सुल्तान किसी वस्तु को बनवाना चाहता था तो वह सर्वप्रथम मुतसरिफ को लिखता था जो सम्बन्धित कारखाने के अध्यक्ष के पास उस फरमाइश को भेज देता था।” अरब के एक भूगोलवेत्ता ने भी लिखा है, “सुल्तान के पास एक कारखाना है। इसमें चार सौ सिल्क बुनकर कार्य करते हैं और जहाँ पर वे दरबार से सम्बन्धित कर्मचारियों की वर्दियों, प्रतिष्ठा एवं भेंट के सभी प्रकार के वस्त्र तैयार करते थे।”

आइन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने भी कारखानों का वर्णन किया है। सत्रहवीं शताब्दी में वर्नियर ने अनेक कारखानों को देखा था जिनके सम्बन्ध में उसने लिखा है, “किले के अन्दर अनेक स्थानों पर बड़े कमरे हैं जो कारखानों अथवा कारीगरों की उद्योगशाला कहे जाते हैं। एक बड़े कमरे में कसीदा काढ़ने वाले कार्य में लगे हुए थे…..दूसरे में सुनारों को, तीसरे में रंगरेजों, चौथे में वार्निश करने वालों और अन्य कमरों में दर्जियों, मोचियों, सिल्क, जरी और बारीक मलमल वालों को कार्य करते देखा।”

वस्त्र उद्योग

सल्तनत-काल में वस्त्र-उद्योग अत्यन्त उन्नत था। सूती, ऊनी व रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र बनाये जाते थे। सूती वस्त्रों के लिए कपास देश में ही उपलब्ध हो जाती थी। रेशम बंगाल से तथा ऊन पहाड़ी प्रदेशों से प्राप्त की जाती थी। समस्त प्रकार के वस्रों पर कढ़ाई व कसीदाकारी का कार्य भारत के विभिन्न नगरों में किया जाता था। वस्त्रों पर रंगाई और छपाई का कार्य भी वस्त्र उद्योग से सम्बन्धित था। धनी व्यक्तियों के लिए निर्मित वस्त्रों और निर्धन लोगों के वस्त्रों में काफी अन्तर होता था। साटन, जरी व मलमल के स्थान पर वे मोटे सूती वस्त्रों का प्रयोग करते थे। डॉ. अशरफ ने लिखा है कि उत्तर में दिल्ली वस्त्र उद्योग का बड़ा केन्द्र था। अन्य प्रसिद्ध केन्द्रों में देवगिरि, बंगाल, ढाका, सुनारगाँव और खम्भात की गणना की जाती थी। बारबोसा व बरथेमा ने तत्कालीन कपड़ों में बेरम, नमोनी, लिजटी, केन्थर, दोजर, सिनावफ आदि का विस्तृत वर्णन किया है।

सल्तनत काल में वस्त्र-उद्योग में आश्चर्यजनक विकास हुआ था। भारत में वस्त्र-उद्योग के उन्नत स्वरूप के सम्बन्ध में जार्ज फॉस्टर ने लिखा है “सम्पूर्ण भारत में सर्वाधिक सुन्दर कपड़ा सोनारगाँव में बनाया जाता था। छींट बुरहानपुर, गोलकुण्डा व सिरोज में तैयार की जाती थी।” सल्तनत काल में आगरा, फतेहपुरसीकरी, अमृतसर, कश्मीर और मुल्तान ऊनी वस्त्रों के लिए प्रख्यात थे। अलाउद्दीन के उदार संरक्षण ने वस्त्र-उद्योग की उन्नति का मार्ग उन्मुख किया।

धातु-उद्योग

मध्य-काल में वस्त्र-उद्योग के साथ-साथ धातु-उद्योग भी उन्नति था। अबुल फजल ने लिखा है कि “भारतीय विभिन्न धातुओं व मिश्रित धातुओं से वस्तुओं के निर्माण में सिद्धहस्त थे।” सल्तनत काल में आयुधों का निर्माण मुख्यतः पंजाब व गुजरात में होता था। सोमनाथ तलवारों के निर्माण के लिए प्रसिद्ध था। साथ ही भारत में निर्मित सोने-चाँदी के बर्तन और उन पर की गयी नक्काशी एवं आभूषण कला भी तत्कालीन धातु-काल के विकसित रूप को प्रदर्शित करने का प्रमाण है।

पत्थर व ईंट उद्योग

भारत में भवन-निर्माण कला अत्यन्त उन्नत थी। सल्तनत-काल और मुगलकाल में जितनी भी भव्य और सुन्दर इमारतें बनीं वह तो भारत के कलाकारों की दक्षता को प्रकट करती ही है।, साथ ही विदेशों में भी उन्होंने अपनी कुशलता की धाक जमाई। डॉ० अशरफ ने लिखा है, “भारतीय कारीगरों की कुशलता का प्रमाण भारत की इमारतों के साथ-साथ काबुल, गजनी व समरकन्द की इमारतें भी हैं।” अमीर खुसरो ने लिखा है, “दिल्ली के पत्थर काटने वाले समस्त मुस्लिम देशों के संगतराशें की तुलना में श्रेष्ठ थे।” बाबर ने अपनी आत्मकथा में भारत के कारीगरों की बड़ी संख्या का वर्णन यिका है। तत्कालीन मुस्लिम शासकों के साथ-साथ हिन्दू राजाओं ने भी भवन-निर्माण कला को प्रोत्साहन देकर पत्थर ईंट उद्योग को विकसित होने का अवसर प्रदान किया।

कागज उद्योग

कागज-उद्योग के सम्बन्ध में मतान्तर यह है कि यह उत्पत्ति चीन में हुई अथवा मुस्लिम प्रदेश समरकन्द में। सामान्यतया यह विश्वास किया जाता है कि मुसलमानों ने चीनियों से कागज का प्रयोग करना सीखा जिसको वह शहतूत के पेड़ से बनाते थे, परन्तु आधुनिक शोधकर्ताओं ने यह सिद्ध किया है कि कागज का आविष्कार समरकन्द में हुआ जो फटे-पुराने कपड़े के टुकड़ों से बनाया जाता था। अमीर खुसरो ने लिखा है कि दिल्ली में शामी कागज का प्रयोग होता था। कागज उद्योग अधिक विकसित नहीं था, अतः उसका उपयोग सीमित मात्रा में किया जाता था।

सल्तनत काल में कागज का निर्माण मुख्यतः सियालकोट, कश्मीर व गया में होता था। मोरलैण्ड की मान्यता है कि “भारत में कागज के निर्माण का प्रारम्भ 1625 में हुआ जो विभिन्न स्थानों पर हाथ से बनाया जाता था।” परन्तु अकबर के शासन में कागज उद्योग उन्नत था।

चीनी-उद्योग

मध्य-युग में भारत में गन्ने का उत्पादन विशाल पैमान पर होता था। वर्नियर व मैनरिक ने दिल्ली व आगरा में मिठाइयों की अनेक दुकानें होने का वर्णन किया है। डॉ. अशरफ ने लिखा है कि “समकालीन साहित्य में चीनी तथा शर्बतों का वर्णन मिलता है। अतः स्पष्ट है कि सम्पूर्ण देश में चीनी का प्रयोग सामान्य रूप से होता था।” इसलिए बंगाल में चीनी उद्योग अत्यधिक विकसित था। चीनी चमड़े के थैलों में भरकर विदेशों को भी निर्यात की जाती थी।

चमड़ा उद्योग

मध्ययुगीन भारत में चमड़ा उद्योग भी विकसित था, जिसमें एक विशिष्ट जाति को दक्षता प्राप्त थी। चमड़े से जूते, तलवार की म्यानें व पुस्तकों की जिल्दें बनायी जाती थीं। मश्क व सिंचाई हेतु ‘पुर’ चमड़े से बनाये जाते थे। चमड़े के थैलों में चीनी का निर्यात किया जाता था। खाल के वस्त्रों का निर्माण गुजरात में होता था। मोरलैण्ड ने लिखा है कि चमड़े का विस्तृत प्रयोग 19वीं शताब्दी में प्रारम्भ हुआ। इससे पूर्व इसका प्रयोग अत्यन्त सीमित मात्रा में होता था। ‘आइन-ए-अकबरी’ में घोड़े की जीन व साज-सज्जा के वर्णन में चमड़े के प्रयोग का वर्णन नहीं मिलता है। अतः यह निश्चित है कि मध्य-युग में चर्म-उद्योग अधिक उन्नत नहीं था।

अन्य उद्योग

मध्ययुगीन भारत में उपर्युक्त मुख्य उद्योगों के अतिरिक्त निम्नलिखित अन्य उद्योग भी उन्नति की ओर अग्रसरित थे।

लकड़ी उद्योग

लकड़ी का कार्य देश के भिन्न-भिन्न भागों में किया जाता था। इसमें फर्नीचर व कृषि के औजार आदि बनाये जाते थे।

मूंगे का उद्योग

गुजरात इस उद्योग का मुख्य केन्द्र था। श्रेष्ठता के कारण यहाँ से मूंगे का निर्यात भी किया जाता था।

हाथीदाँता का उद्योग

हाथी दाँत एवं कृत्रिम जवाहरात का उद्योग भी भारत में विकसित था। हाथी दाँत के कड़े, शतरंज की मोहरें, पांसे व तलवार की मूंठ आदि बनायी जाती थी।

उपर्युक्त धन्धों के साथ-साथ नमक उद्योग, जूट उद्योग, केसर उद्योग, अफीम उद्योग, नील उत्पादन उद्योग तथा बारूद बनाने का धन्धा भी प्रख्यात था। विभिन्न धन्धों को करने वाले कारीगर अपने-अपने धन्धे वंशानुगत रूप से चलते थे। जो कारीगर अथवा मजदूर शाही कारखानों के अतिरिक्त व्यक्तिगत उद्योगों में कार्यरत थे उनका शोषण होता था। इस प्रकार आर्थिक रूप से कारीगर एवं मजदूर शोषित वर्ग में आते थे।

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