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प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध एवं सिखों के पराजय के कारण

प्रथम सिख युद्ध एवं उसमें सिखों के पराजय के कारण

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (First Anglo-Sikh war)

रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिखों का उत्थान उस तारे के समान था जो आकाश में एक बार चमक कर तुरन्त छिप जाता है। उसकी मृत्यु के अवसर पर सिख अपनी शक्ति की चरम सीमा पर थे, और जैसा कि जे० एच० गोर्डन ने लिखा है : ‘उसके पश्चात् वह फूट गया जिससे तेज परन्तु विलुप्त होने वाली चिनगारियाँ निकलीं।’ रणजीत सिंह की मृत्यु के दस वर्ष पश्चात् ही सिख-राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

रणजीत सिंह की मृत्यु होते ही सिखों में अशान्ति फैल गयी और आन्तरिक झगड़े होने लगे जिससे अंग्रेज उन्हें सरलतापूर्वक पराजित कर सके। रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका अयोग्य पुत्र खसिंह महाराजा बना। लेकिन राज्य की शक्ति उसके पुत्र नौनिहाल सिंह के हाथों में थी। खड्गसिंह की मृत्यु 5 नवम्बर, 1840 ई० को हो गयी। उसी दिन एक दुर्घटना में नौनिहाल सिंह की भी मृत्यु हो गयी। यद्यपि इस बात का कोई प्रमाण नहीं था तब भी विश्वास किया जाता था कि नौनिहाल सिंह की मृत्यु एक षड्यंत्र के कारण हुई थी। नौनिहाल सिंह की पत्नी चांद कौर ने गद्दी पर अपने होने वाले बच्चे के अधिकार की मांग की। उसे सिंघनवालिया सरदारों का समर्थन प्राप्त था। उसका विरोध रणजीत सिंह के एक अन्य पुत्र शेरसिंह ने किया। दोनों पक्षों ने अंग्रेजों से सहायता मांगी। चांद कौर अंग्रेजों की सहायता के बदले में उन्हें पंजाब की आय का एक-चौथाई भाग या कश्मीर का सूबा तक देने को तैयार थी। अन्त में, पर्याप्त झगड़े के पश्चात् 1841 ई0 में सेना की सहायता से शेरसिंह महाराजा बन गया। चांद कौर को एक जागीर दे दी गयी लेकिन उसके समर्थक सिंघनवालिया सरदार शरण के लिए अंग्रेजों के पास भाग गये। शेरसिंह का दो वर्ष का शासन दुर्बलता और विलासिता का था और अन्त में 1843 ई० में शेरसिंह, उसका लड़का प्रताप सिंह और वजीर ध्यानसिंह तीनों ही सिंघनवालिया सरदारों द्वारा कत्ल कर दिये गये। सिंधनवालिया सरदार अंग्रेजों के आश्वासन पर पंजाब में वापस गये थे और यह संदेह किया गया है कि अंग्रेज भी इस षड्यंत्र में सम्मिलित थे। इस बार भी हीरासिंह ने सेना की सहायता से महारानी जिन्दा कौर उर्फ रानी झिण्डन के दलीप सिंह को गद्दी पर बैठाया परन्तु रानी झिण्डन का चरित्र सन्देहपूर्ण था। वह अपने अल्पायु बच्चों की संरक्षक थी। उसका हीरासिंह से झगड़ा होग या और अन्त में 1844 ई० में हीरासिंह को कत्ल कर दिया गया। अब शासन-सत्ता रानी झिण्डन के भाई और राज्य के वजीर जवाहर सिंह व रानी के प्रेमी लालसिंह के हाथों में आ गयी। परन्तु इनमें से किसी में भी शासन करने की योग्यता न थी और पंजाब में आन्तरिक कलह, लूट, हत्याएं और प्रशासनिक अव्यवस्था फैल गयी। ऐसी स्थिति में सिख-सेना का प्रभुत्व बढ़ता गया। शेरसिंह से लेकर दलीप सिंह तक सभी महाराजाओं, वजीरों और सरदारों को अपनी शक्ति स्थापित रखने के लिए सेना की सहायता लेनी पड़ी थी। इससे भी सेना की शक्ति में वृद्धि हुई। सेना ने स्वयं अपनी एक पंचायत ‘खालसा-पंचायत’ बना ली और उसी के द्वारा अपने निर्णय लेने आरम्भ किये। यह स्पष्ट हो गया कि राज्य की वास्तविक सत्ता अब महाराज में नहीं बल्कि सेना की खालसा-पंचायत में निहित थी। सेना का शासन में इतना अधिक प्रभाव न तो नागरिकों के लिए अच्छा था और न ही राज्य के लिए। रानी झिण्डन एवं दरबार के अन्य सरदार इसे पसंद न कर सके। लेकिन सेना की सत्ता को समाप्त करने का एकमात्र मार्ग यही था कि अंग्रेजों से युद्ध कराकर उसकी शक्ति समाप्त करा दी जाय। यह विश्वास किया जाता है कि सेना की शक्ति को समाप्त करने के उद्देश्य से स्वयं रानी झिण्डन, लालसिंह, तेजसिंह और गुलाब सिंह सदृश राज्य के बड़े-बड़े सरदारों ने सेना को अंग्रेजों से युद्ध के लिए उकसाया।

ऐसी स्थिति में अंग्रेजों को पंजाब में हस्तक्षेप करने का अवसर मिला। अंग्रेज पंजाब की ऐसी स्थिति को देखकर चुपचाप न बैठे। उन्हें आशा हो गयी कि अब उनके लिए पंजाब-विजय सरल हो जायेगी और वे इस अवसर से पूरा लाभ उठाने के लिए तत्पर हो गये। प्रथम अफगान-युद्ध में प्रारम्भिक सफलता प्राप्त करते ही अंग्रेज अपने मस्तिष्क में पंजाब को जीतने की योजनाएँ बनाने लगे थे। उसी समय यह विचार किया गया था कि पेशावर अफगानिस्तान को दे दिया जाये क्योंकि अफगानिस्तान उस समय अंग्रेजों के हाथों में था। अंग्रेजों की पंजाब को जीतने की इच्छा मिसेज हेनरी लॉरेन्स के पत्रों से स्पष्ट होती है। 1041 ई० में उसने लिखा था, “इसमें कोई संदेह नहीं कि अगले जाड़ों के मौसम में बहुत समय से रुका हुआ पंजाब को जीतने का प्रश्न हल हो जायेगा।’ इस प्रकार यह निश्चय है कि रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् अंग्रेज पंजाब को जीतने के लिए उत्सुक हो उठे थे और उन्होंने पंजाब के राजनीतिक षड्यंत्रों में भाग लेना शुरू कर दिया था। अफगान-युद्ध में जो हानि बाद में अंग्रेजों को हुई उसके कारण उसी समय पंजाब को जीतने के लिए कोई कदम न उठा सके। परन्तु अंग्रेजों ने गुलाब सिंह, लाल सिंह, ध्यानसिंह, तेजसिंह आदि जैसे बड़े सरदारों से मिलकर षड्यंत्र करने अवश्य आरम्भ कर दिये थे।

एक तरफ अंग्रेज पंजाब के सिख और डोगरा सरदारों में फूट डाल रहे थे और उन्हें विभिन्न लालच देकर अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न कर रहे थे तथा दूसरी तरफ वे पंजाब पर आक्रमण करने के लिए सैनिक तैयारियाँ कर रहे थे। लॉर्ड ऐलनबरो ने गवर्नर-जनरल के पद पर नामजद होते ही पंजाब पर आक्रमण करने की योजना बनानी आरम्भ कर दी थी। 1841 ई0 में ही उसने ‘ड्यूक ऑफ वैलिंगटन से उन सिद्धान्तों के बारे में राय पूछी थी जिनके आधार पर इस देश पर आक्रमण किया जाय।” उसी के परामर्श पर ऐलनबरो ने सतलज नदी पर एक पुल बनाने और सैनिकों को नदी पार कराने के लिए नावें तैयार करने का निर्णय लिया था। इसी आशय से ऐलनबरो ने सिन्ध को विजय किया, सिन्धिया के साथ एक नवीन सन्धि की, 1843 ई० में कैथल के सिख-राज्य पर अधिकार किया और करनाल एवं फीरोजपुर में अंग्रेजी सेनाओं को एकत्र करना आरम्भ कर दिया। जिस समय ऐलनबरो ने भारत छोड़ा, पंजाब की सीमा पर 18 हजार सैनिक और 66 तोपें नियत थीं। उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड हार्डिंज ने उसकी नीति को आगे बढ़ाया और जिस समय प्रथम सिख-युद्ध आरम्भ हुआ उस समय पंजाब की सीमा पर 40 हजार अंग्रेज सैनिक और 94 तोपें थीं। सतलज नदी को पार करने के लिए बम्बई में नावें तैयार की गयी थीं जिन्हें लॉर्ड हार्डिज ने आते ही फीरोजपुर मँगा लिया था। सिखों के कट्टर शत्रु मेजर ब्रोडफुटच को राजनीतिक प्रतिनिधि बनाकर भी इसी कारण पंजाब भेजा गया जिससे वह सिखों में फूट डाले और ऐसी परिस्थितियाँ बनाये जिससे सिख स्वयं युद्ध को तैयार हो जायें। इसमें संदेह नहीं कि तेजसिंह और गुलाब सिंह को सेना लेकर आगे बढ़ने के लिए ब्रोडफुट ने ही उकसाया था जिससे युद्ध का कारण उपस्थित हुआ। रॉबर्ट एन0 कस्ट ने ब्रोफुट के मुर्दा शरीर को देखकर कहा था : “जिस युद्ध को हम आरम्भ कर रहे हैं, उसको जन्म देने वाला और उसका मुख्य कारण वह पड़ा हुआ है।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि अंग्रेज युद्ध के लिए उत्सुक थे। वे अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए पंजाब को जीतना चाहते थे। परन्तु वे बहुत समय तक युद्ध के लिए कोई बहाना न पा सके। उनकी सैनिक तैयारियां पूरी थीं तथा लुधियाना, अम्बाला और फीरोजपुर में उनकी सेना और रसद तैयार थी। सिखों को युद्ध के लिए भड़काने हेतु उन्होंने सतलज के पूर्व के लाहौर-दरबार के राज्यों पर अधिकार कर लिया, छोटे-छोटे सीमावर्ती झगड़ों को बढ़ावा दिया, अपनी युद्ध की तैयारियों को छिपाने का प्रयत्न नहीं किया और सिख-अधिकारियों का अपमान किया। परन्तु फिर भी सिख-दरबार ने अंग्रेजों से अच्छे सम्बन्ध रखे। परन्तु अन्त में मेजर ब्रोडफुट के प्रयास सफल हुए। तेजसिंह और गुलाबसिंह उसके मित्र थे। परन्तु अन्त में मेजर ब्रोडफुट के नेतृत्व में सिख-सेना सतलज नदी के किनारे आ गयी। सिखों को अंग्रेजों की तैयारियों से यह भय हो गया था कि अंग्रेज पंजाब पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं। अतएव खालसा-सेना अंग्रेजों से मिले हुए अपने सरदारों के कहने में आकर अपनी रक्षा के लिए सीमा पर पहुंच गयी। लेकिन उस समय भी उसने यही घोषणा की कि जब तक अंग्रेज लुधियाना और फीरोजपुर से आगे नहीं बढ़ेंगे तब तक वे भी आगे नहीं बढ़ेंगे। अंग्रेजों ने इस अवसर को छोड़ना उचित नहीं समझा तथा अपनी सेवाओं को मेरठ और अम्बाला से आगे के आदेश दे दिये। 13 दिसम्बर, 1845 ई0 को खालसा-सेना ने सतलज नदी को पार किया और उस भूमि पर अपने कदम रखे जो सिख-राज्य की ही थी। परन्तु अंग्रेजों के लिए केवल इतना ही बहाना पर्याप्त था और लार्ड हार्डिंज ने युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार प्रथम सिख-युद्ध आरम्भ हुआ।

अगर परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि युद्ध का मूल कारण सिख-सेना का आक्रमण न था बल्कि एक तरफ सिख सरदारों का स्वार्थ और दूसरी तरफ अंग्रेजों की साम्राज्य-विस्तार की लालसा थी। अंग्रेजों के आक्रमण की पूरी सम्भावना होते हुए भी सिख-सेना या सिख-दरबार ने अंग्रेजी सीमा पर आक्रमण नहीं किया था। सतलज नदी को पार करके भी वे अपनी ही भूमि और सीमाओं में प्रविष्ट हुई थीं। इस कारण अंग्रेजों को युद्ध घोषित करने का कोई कारण न था। परन्तु अंग्रेज साम्राज्य-विस्तार के लिए युद्ध चाहते थे, इस कारण सिख-सेना का सतलज नदी को पार करना ही युद्ध का बहाना लिया गया। स्वयं लॉर्ड हार्डिंज को युद्ध के कारण के बारे में शंका थी, जैसा कि उसने रॉबर्ट एन0 कस्ट को लिखा : “क्या इंग्लैंड के व्यक्ति इसे (सिखों का सतलज पार करना) वास्तव में हमारी सीमाओं पर आक्रमण समझेंगे और युद्ध का एक कारण स्वीकार करेंगे।’ कस्ट ने स्वयं इस युद्ध को “अंग्रेजों द्वारा पंजाब के स्वतन्त्र राज्य पर पहला आक्रमण” बताया। कैम्बवेल ने भी लिखा है, ‘इतिहास के पन्नों में लेखबद्ध है कि सिख-सेना ने हम पर आक्रमण करने के लिए अंग्रेजी सीमाओं में प्रवेश किया परन्तु अधिकांश व्यक्तियों को यह जानकर अत्यधिक आश्चर्य होगा कि उन्होंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया। उन्होंने हमारी बाहर की छांवनियों पर आक्रमण नहीं किया और न वे हमारी सीमा में आये। वे नदी पार करके केवल अपनी ही सीमा में आ गये थे।”

सिखों और अंग्रेजों का पहला युद्ध मुदकी नामक स्थान पर 11 दिसम्बर, 1845 ई० को हुआ। इस युद्ध में सिखों की पराजय हुई। 21 दिसम्बर को फीरोजशाह नामक स्थान पर दूसरा युद्ध हुआ और इसमें भी अंग्रेजों की जीत हुई। 21 जनवरी, 1846 ई0 को रनजोर सिंह मजीठिया के नेतृत्व में सिखों ने अंग्रेजों को बुदवाल नामक स्थान पर परास्त किया। 28 जनवरी को सिखों की अलीवाल नामक स्थान पर पराजय हुई। अन्तिम युद्ध 10 फरवरी, 1846 ई० को सोबराँव नामक स्थान पर हुआ और उसमें सिखों की पराजय हुई। सोबराँव के युद्ध ने अंग्रेजों के सम्मान की रक्षा कर ली। 13 फरवरी को अंग्रेजों ने सतलज को पार किया और 20 फरवरी को लाहौर पर अधिकार कर लिया।

सिखों की पराजय के कारण सिख सेना ने प्रत्येक स्थान पर अंग्रेजों का साहस और बहादुरी से मुकाबला किया। अंग्रेज कोई भी युद्ध सरलता से नहीं जीत सके थे बल्कि प्रत्येक युद्ध में उनकी स्थिति गम्भीर हो गयी थी। सोबरांव के युद्ध के विषय में मि0 व्हीलर ने लिखा है : “भारत के इतिहास में अंग्रेजों के लिए सोबराँव का युद्ध सबसे कठिन युद्ध सिद्ध हुआ। अपने गददार सेनापति तेजसिंह के विरुद्ध सिख-सैनिक खालसा के सम्मान की रक्षा के लिए युद्ध जीतनेअथवा युद्ध में मृत्यु प्राप्त करने के लिए तत्पर थे।’ स्मिथ ने सिखों को ‘भारत में अंग्रेजों का मुकाबला करने वाले शत्रुओं में सबसे बहादुर और दृढ़’ बताया है।

इस प्रकार सिखों की पराजय का कारण उनके सैनिकों की दुर्बलता न थी। उनकी पराजय का मूल कारण उनके सरदारों का स्वार्थ और गद्दारी थी। उनके बड़े-बड़े सेनापति अंग्रेजों से मिले थे, उन्हें सूचना भेजते थे, ठीक समय से युद्ध नहीं करते थे और कई अवसरों पर तो वे अपनी सेना को छोड़कर भाग गये थे। उनका मूल आशय सिख-सेना की पराजय देखना था।सेना की शक्ति का इस प्रकार विध्वंस कराकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति हेतु पंजाब में वे अपनी निर्विवाद सत्ता स्थापित करना चाहते थे और उनमें से कई को अंग्रेजों ने विभिन्न प्रकार के लालच दे रखे थे। इस कारण अधिकांश सिख सरदारों ने अपने राज्य और अपनी सेना के साथ गद्दारी की।

31 दिसम्बर, 1845 ई० को सिख सेना ने सतलज नदी को पार किया था और, सम्भवतः, उसका उद्देश्य अचानक ही फीरोजपुर पर आक्रमण करने का था। परन्तु यह उद्देश्य लालसिंह की गद्दारी के कारण पूरा न हो सका। लालसिंह ने फीरोजपुर के अंग्रेज प्रतिनिधि निकलसन को लिखा था : “मैंने सिख-सेना के साथ सतलज को पार कर लिया है। तुम अंग्रेजों से मेरी मित्रता को जानते हो। मुझे बताओ कि अब मुझे क्या करना चाहिए।’ निकलसन ने उत्तर दिया : “फीरोजपुर पर आक्रमण मत करो। जितने दिन सम्भव हो, रुको, और फिर गवर्नर-जनरल की तरफ बढ़ो।’ लालसिंह ने ऐसा ही किया और फीरोजपुर बच गया। लुडलो ने लिखा था : “यदि उसने (सिखों ने) आक्रमण किया होता तो हमारी 8,000 सेना नष्ट हो गयी होती और 60 हजार विजयी सैनिक (सिख) सर हार्डिज पर टूट पड़ते जिसके पास केवल 8,000 सेना नष्ट हो गयी होती और 60 हजार विजयी सैनिक (सिख) सर हार्डिज पर टूट पड़ते जिसके पास केवल 8,000 सैनिक थे। मुदकी में युद्ध आरम्भ होते ही लालसिंह अपनी सेना छोड़कर भाग गया था। फीरोजपुर के युद्ध में भी पहले दिन अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। अगर उसी रात सिखों ने आक्रमण कर दिया होता तो अंग्रेजों के पैर उखड़ जाते। परन्तु लालसिंह रात को चुपचाप अपने सैनिकों और तोपों को लेकर चला गया। तेजसिंह भी सुबह अंग्रेजों पर आक्रमण करने की बजाय अपनी सेना को लेकर भाग गया। इस प्रकार लालसिंह और तेजसिंह की गद्दारी के कारण सिख फीरोजपुर के प्रायः जीते हुए युद्ध में परास्त हो गये। इसके पश्चात् भी ये सरदार एक माह तक इसलिए चुपचाप रहे ताकि अंग्रेजों को रसद और सहायता प्राप्त हो जाये। 1846 ई0 में गुलाब सिंह ने अंग्रेजों से एक गुप्त समझौता किया कि सिख-सेना की पराजय के उपरान्त सिख-दरबार सेना से अपना सम्बन्ध तोड़ देगा और अंग्रेज बिना किसी विरोध के सतलज पार कर सकेंगे। अंग्रेजों ने वायदा किया कि वे सिखों के राज्य में कोई हस्तक्षेप न करेंगे। इस आधार पर लालसिंह ने सिख-सेना की प्रत्येक गतिविधि का समाचार अंग्रेजों को प्रेषित किया और सिख-सेना को रसद और सहायता भेजना बन्द कर दिया। सोबराँव के युद्ध में भी लालसिंह और तेजसिंह भाग खड़े हुए थे। यही नहीं बल्कि उन्होंने सतलज के पुल को भी तोड़ दिया जिससे पराजित सिख-सेना भागकर वापस न आ सके और पूर्ण रूप से नष्ट हो जाये। ऐसी परिस्थितियों में अपने सरदारों की गद्दारी के कारण ही प्रत्येक स्थान पर सिख-सेना की पराजय हुई।

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