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फ्रांसीसियों की असफलता में डूप्ले की भूमिका

फ्रांसीसियों की असफलता में डूप्ले की भूमिका

अनेक इतिहासकारों ने डूप्ले की गणना विश्व के प्रमुख राजनीतिज्ञों एवं उच्च कोटि के चतुर शासकों एवं कूटनीतिज्ञों से की है। भारत में फ्रांसीसियों के इतिहास में उसका स्थान प्रमुख है। उसका जन्म 1697 में हुआ था। अठारह वर्ष की अवस्था में वह नाविक बन गया तथा विभिन्न देशों में घूमने के कारण उसकी रुचि व्यापार की ओर आकर्षित हुई। 1720 में वह फ्रांसीसी कम्पनी की नौकरी स्वीकार करके पांडीचेरी आया। 1730 में वह चन्द्रनगर फैक्टरी का डायरेक्टर बन गया। अगले ग्यारह वर्षों में उसके निर्देशन में चन्द्रनगर की बड़ी उन्नति हुई अपनी योग्यता के कारण 1742 में वह पाँडीचेरी का गवर्नर और भारत में फ्रांसीसी बस्तियों का डायरेक्टर जनरल नियुक्त हुआ। बारह वर्षों तक वह इस पद पर बना रहा। भारत में रहकर यहाँ की आन्तरिक स्थिति में पूर्णतया परिचित हो चुका था तथा एक चतुर राजनीतिज्ञ होने के कारण उसने शीघ्र ही अनुभव किया कि यदि अंग्रेजों को भारत से निकाल दिया जाय तो भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य सुगमता से कायम किया जा सकता है। भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य को स्थापित करने के लक्ष्य को लेकर जिस कौशल और साहस का प्रदर्शन उसने किया उससे अंग्रेज बहुत भयभीत हुए। यह मान लेना उचित नहीं कि प्रारम्भ से ही डूप्ले का उद्देश्य भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना करना था। वह शक्ति को प्यार करता था और उसमें योजनाएं बनाने की क्षमता थी। जैसे-जैसे वह सफलता प्राप्त करता गया, उसकी महत्वाकांक्षा बढ़ती गयी और उसकी सफलताओं तथा भारत की राजनीति ने उसे भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार का विचार किया। फलतः अंग्रेजों के साथ उसने कर्नाटक के युद्धों का सूत्रपात किया तथा यदि उसकी गृह-सरकार उसे सहायता देती तो निश्चय ही वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता। उसने अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने की योजना बनायी और व्यापार करने के स्थान पर राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने का गम्भीर प्रयत्न किया। बाद में क्लाइव ने उसी की नीति का अनुसरण करके भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना की। यह डूप्ले का दुर्भाग्य था कि उसकी योजना सफल नहीं हो सकी, तो भी उसकी असफलता से हम उसकी योग्यता को कम नहीं कर सकते। वह वास्तव में मौलिक प्रतिभा का व्यक्ति था। उसके विचार दृढ़ थे, उसके लक्ष्य स्पष्ट और महान थे तथा उसकी कूटनीति भी कम सफल नहीं थी।

डूप्ले से पूर्व सभी यूरोपीय जातियों का ध्येय भारत में व्यापार करके मुनाफा कमाना था। आरम्भ में डूप्ले भी इसी ध्येय का समर्थक था। पांडीचेरी के गर्वनर के रूप में भी वह फ्रांसीसी व्यापार की वृद्धि में यत्नशील रहा। यहाँ तक कि जब 1746 में कर्नाटक के प्रथम युद्ध में मद्रास का समर्पण हुआ तब भी उसने अपने व्यापार की वृद्धि का प्रयास किया तथा दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों के साथ व्यापार को समुन्नत बनाने के लिए ही उसने सम्पर्क स्थापित किये, परन्तु भारत की तत्कालीन राजनीतिक अव्यवस्था को देखकर वह भारत में फ्रांसीसियों का साम्राज्य स्थापित करने का स्वप्न देखने लगा। “डूप्ले पहला व्यक्ति था जिसने अनुशासिक सिपाहियों का पूर्ण उपयोग किया, वह पहला व्यक्ति था जिसने समुद्र के बन्दरगाहों को छोड़ दिया तथा देश के मध्य भाग तक अपनी सेनाओं को ले गया। वह पहला व्यक्ति था जिसने मुगलों की झूठी शान के भ्रम को पहचाना तथा अपने उद्देश्य की ओर ध्यान दिया। वह डर ऐसा था जिसके द्वारा दुर्बल मन वाले लोग इससे भयभीत थे।” निजाम के राज्य तथा कर्नाटक में उत्तराधिकार के युद्धों में फँसकर उसने अपने स्वप्न को साकार करने का निश्चय कर लिया। इस साम्राज्य स्थापना के लिए उसने भारतीय सेनाओं का ही उपभोग आरम्भ कर दिया क्योंकि फ्रांस से इतनी अधिक संख्या में सेनाएँ मँगवाना असम्भव था। अतः उसने भारतीयों को यूरोपीय ढंग से सैनिक शिक्षा देकर रणकुशल बना दिया। जिससे समयानुसार उनका उपभोग किया जा सके। तदुपरान्त वह अंग्रेज को भारत के बाहर निकालने के लिए कटिबद्ध हो गया। देशी राज्यों के झगड़ों में उसने हस्तक्षेप आरम्भ कर दिया और कर्नाटक के दो युद्धों में उसने नीति का अनुसरण किया, परन्तु देशी राज्यों के युद्धों में फंसने के कारण कम्पनी की आर्थिक दशा गिर गई तथा इसी कारण गृह-सरकार ने अप्रसन्न होकर डूप्ले को वापस बुला भेजा। वह अपने सपने को साकार करने में असफल रहा।

कुछ लोगों का मत हे कि डूप्ले ही प्रथम व्यक्ति था जिसने भारत में विदेशी साम्राज्य की कल्पना की थी, परन्तु वास्तव में यदि विचार किया जाय तो ऐसा सिद्ध नहीं होता। फ्रांसीसी साम्राज्य के हेतु किसी निश्चित नीति का अनुसरण ही किया था। इसके कार्यों से इतना स्पष्ट अवश्य होता है कि वह देशी राज्यों को प्रभाव में रखना चाहता था। उसकी प्राथमिक सफलता सराहनीय है, परन्तु उसकी नीति ने कम्पनी के व्यापारिक हितों को आघात पहुंचाया। डूप्ले ने आशा की थी कि नवीन अधिकगत क्षेत्रों की आय इस व्यापारिक क्षति की पूर्ति कर देगी, परन्तु ऐसा न हो सका। उसकी आर्थिक स्थिति उत्तरोत्तर खराब होती चली गई। पाँच वर्ष में उसने कम्पनी के तीस लाख रुपये खर्च कर दिये थे। फ्रांस की गृह-सरकार ने भी उसे वांछित आर्थिक सहायता नहीं दी। उसकी नीति से यह स्पष्ट हो गया था कि व्यापार और विजय साथ-साथ नहीं चल सकती। अतः धीरे-धीरे गृह-सरकार उसकी स्वतन्त्र नीति के विरुद्ध हो गई। फिर भी वह अपनी योजनाओं को कार्यान्वित करता ही रहा। उसने गृह-सरकार के उच्च अधिकारियों को सूचना दिए बिना ही धन व्यय किया, ‘भारतवर्ष के राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप किया और समय-समय पर स्वेच्छानुसार सन्धि-युद्ध आदि के कार्य सम्पन्न किए। यद्यपि उसके सारे कार्य उच्च देश-भक्ति की भावना से भरे हुए थे, पर उनका परिणाम अच्छा न रहा। गृह-सरकार उसे निरंकुश और स्वेच्छाचारी समझने लगी। अतः उस पर आज्ञा उल्लंघन का आरोप लगाया गया।

डूप्ले की शासन-नीति दोषपूर्ण थी। उसकी उपहार ग्रहण करने की नीति ने उसके अफसरों पर बड़ा बुरा प्रभाव डाला। वे स्वार्थी, लोभी और चरित्रहीन हो गए। उसकी युद्ध-नीति ने आर्थिक संकट उत्पन्न कर दिया। यदि युद्ध में कम्पनी को लाभ हुआ होता और उसकी आर्थिक स्थिति सुधरी होती तो सम्भव है कि गृह-सरकार उसकी नीति का समर्थन करती, परन्तु ऐसा नहीं

हो सका। जीते हुए प्रदेशों से आय बहुत कम हो गये। डूप्ले की शान-शौकत की मनोवृत्ति ने भी बहुत से रुपये फेंक डाले। इसके अतिरिक्त उसने अंग्रेजों की समुद्री शक्ति के महत्व को नहीं समझा। उसे सोचना चाहिए था कि अंग्रेजों की नौ सैनिक शक्ति के प्रबल होते हुए भारत में फ्रांसीसी प्रभुता स्थापित करना असम्भव है। 1754 का फ्रांसीसी बेड़ा शक्तिहीन था और वह समुद्र पर अंग्रेजों से कभी सफलतापूर्वक मोर्चा नहीं ले सकता था।

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