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अंग्रेज एवं फ्रांसीसी संघर्ष में फ्रांसीसियों की असफलता का कारण

अंग्रेज-फ्रांसीसी संघर्ष में फ्रांसीसियों की असफलता का कारण

भारत में साम्राज्य स्थापना के लिए होने वाले युद्धों में फ्रांसीसियों को अंग्रेजों के समक्ष झुकना पड़ा और डीवास के युद्ध ने निर्णय कर दिया कि भारत में अंग्रेजों की सत्ता ही स्थापित होगी। अंग्रेजों के विरुद्ध फ्रांसीसियों की असफलता के निम्नलिखित प्रमुख कारण थे-

अंग्रेजों की नौसेना की श्रेष्ठता

फ्रांस की तुलना में अंग्रेजों की सामुद्रिक शक्ति काफी विकसित थी। यूरोप में स्पेनी अरमाडा की पराजय के बाद से ही अंग्रेज जल-शक्ति में अयोग्य समझे जाते थे। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध के समय ही इंग्लैण्ड ने फ्रांस की नौ-सेना पर श्रेष्ठता प्राप्त कर ली थी। इस श्रेष्ठता ने अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के संघर्ष को प्रत्येक स्थान पर प्रभावित किया। डूप्ले को आरम्भ में जो सफलता मिली वह उसी समय तक मिली जब तक ब्रिटेन की नौ-सेना ने युद्ध में भाग लेना आरम्भ नहीं किया था। ब्रिटिश नौ-सेना के दबाव के कारण ही लाबर्डिनो को मद्रास छोड़ना पड़ा था और डी-ऐच को दो बार पराजय का मुंह देखना पड़ा था। शक्तिशाली नौ-सेना के काण ही अंग्रेज कर्नाटक में सहायता पहुंचा सके और फ्रांसीसियों को सहायता पहुँचाने से रोकते रहे। वी० ए० स्मिथ ने ब्रिटिश नौ-सेना के दबाव के कारण ही लाबर्डिनो को मद्रास छोड़ना पड़ा था और डी-ऐच को दो बार पराजय का मुंह देखना पड़ा था। शक्तिशाली नौ-सेना के कारण ही अंग्रेज कर्नाटक में सहायता पहुँचा सके और फ्रांसीसियों को सहायता पहुँचाने से रोकते रहे। वी०ए० स्मिथ ने ब्रिटिश नौ-सेना की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में लिखा है कि “न तो बुसी और न डूप्ले अलग-अलग रूप में और न दोनों मिलकर ऐसी सरकार के विरुद्ध सफलता प्राप्त कर सकते थे, जिसका समुद्री मार्गों तथा गंगा की घाटी पर अधिकार न हो। फ्रांसीसी असफलता के लिए डूप्ले, लैली तथा अन्य छोटे लोगों के व्यक्तिगत दोषों पर जोर देना व्यर्थ है। न तो सिकन्दर महान और नेपोलियन ही भारत के साम्राज्य को जीत सकते थे यदि वे पांडीचेरी को अपना मोर्चा बनाकर चलते और ऐसी शक्ति से उलझते, जिसके अधिकार में बंगाल और जिसका समुद्र पर अधिकार था।” अल्फ्रेड लायल का भी कहना है कि “भारत में व्यापारिक अथवा फौजी सफलता की दो मुख्य शर्ते ये थीं-तटीय प्रदेशों में दृढ़ मोर्चेबन्दी तथा ऐसी नौ सेना का होना जो यूरोप के साथ संचार का मार्ग खोल सके। अंग्रेज समुद्र पर अपना गौरव बढ़ा चुके थे तथा फ्रांसीसी स्थल पर भी अपनी शक्ति खोल रहे थे। उनकी असफलता का मुख्य कारण दुर्भाग्य तथा व्यक्तिगत अयोग्यता नहीं है (क्योंकि उसे पूरा किया जा सकता था) अपितु परिस्थितियों का संग्रह है जिनके कारण उस समय फ्रांसीसियों को अंग्रेजों से घोर संघर्ष करना पड़ा। भारत में उसी देश का साम्राज्य स्थापित हो सकता था जिसकी जल-शक्ति अधिक हो। फ्रांसीसियों की जल-सेना निम्न कोटि का होने के कारण भारत में उसका प्रभुत्व स्थापना का कार्य अत्यन्त दुष्कर था क्योंकि भारत आने के लिए इंग्लैंड तथा फ्रांस दोनों को विशाल समुद्र का मार्ग पार करना था। अंग्रेज जल-शक्ति की प्रभुता फ्रांसीसियों के उपनिवेश-स्थापना के कार्य में महान बाधा उपस्थित करती थी।”

  1. भारत पर पर्याप्त ध्यान की कमी

    फ्रांस ने भारत में साम्राज्य स्थापना के कार्य को उतना महत्व प्रदान नहीं किया जितना इंग्लैंड ने किया। इस समय फ्रांस की विदेशी नीति का लक्ष्य यूरोप में फ्रांस के लिए ‘एक प्राकृतिक सीमा’ प्राप्त करना था। फ्रांस अमेरिका में अपना उपनिवेश यूरोप और अमेरिका में लगा रखा था जिनमें भारत की ओर उसका ध्यान सबसे कम था। इस कारण फ्रांस की शक्ति केवल विभाजित ही नहीं हुई बल्कि वह भारत की फ्रांसीसी कम्पनी को कभी भी पर्याप्त मात्रा में सहायता नहीं दे सका। फलतः फ्रांस को हर जगह असफलता ही मिली। औपनिवेशिक-विस्तार के कार्यक्रम में अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर सके।

  2. गृहसरकार की अयोग्यतापूर्ण नीति

    इंग्लैंड की ग्रह-सरकार सर्वथा कम्पनी की सहायता करने को तत्पर रहती थी परन्तु फ्रांसीसी सरकार ने फ्रांस की कम्पनी की सहायता नहीं की। फ्रांसीसियों की व्यापक योजनाओं की पूर्ति के लिए धन की नितान्त आवश्यकता थी परन्तु गृह-सरकार कम्पनी से ही धन प्राप्त करने की इच्छा करती थी तथा उसे आर्थिक सहायता देने को तत्पर नहीं थी। इसके अतिरिक्त अंग्रेज कम्पनी का व्यापार आरम्भ से ही अच्छा या जबकि फ्रांसीसी कम्पनी का व्यापार अच्छा नहीं था, फिर बंगाल पर अंग्रेजों का आर्थिक अधिकार हो जाने से दोनों कम्पनियों की आर्थिक उन समानता में वृद्धि होती गयी। इसके अतिरिक्त फ्रांसीसी सरकार का कम्पनी पर पूर्ण नियन्त्रण होने के कारण कम्पनी के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना बहुधा अनुचित होता था जिससे कम्पनी को अनेक बार हानि उठानी पड़ी। डूप्ले को वापस बुलाना, बुसी को हैदराबाद से वापस बुलाना आदि अनेक कार्य ऐसे थे जिनके कारण फ्रांसीसियों की भारत साम्राज्य स्थापना की आकांक्षा को महान आघात पहुंचा। सरकार ने डूप्ले तथा लैली के साथ जो दुर्व्यवहार किया तथा उनकी देश-सेवा पर उन्हें जो दण्ड मिले उन्होंने भारत स्थित फ्रांसीसी कर्मचारियों के मनोबल को गिराकर उन्हें हतोत्साहित कर दिया। डूप्ले वास्तव में भारत में फ्रांसीसी साम्राज्य की नींव डाल सकता था परन्तु उसके उत्तराधिकारियों ने उसकी नीति का पूर्णतया त्याग कर दिया क्योंकि गृह-सरकार उस नीति से सहमत नहीं थी। गृह सरकार ने इस समय उपनिवेशों के प्रति उदासीनता की नीति अपनाना आरम्भ कर दी थी। फ्रांस का सम्राट लुई पन्द्रहवाँ विलासिता में लिप्त रहता था और उसकी संकीर्ण नीति से भारत में फ्रांसीसी असफल हो गये।

  3. अंग्रेज कम्पनी की आर्थिक सम्पन्नता

    अंग्रेज कम्पनी की आर्थिक स्थिति शुरू से ही अच्छी थी। उनका व्यापार काफी चमका हुआ था। अंग्रेज हमेशा अपने को मूलतः व्यापारी मानते रहे। लेकिन डूप्ले ने आरम्भ में ही भारत में राज्य-स्थापना को अपना लक्ष्य बना लिया। इस कारण जबकि अंग्रेज अपने युद्धों के व्यय का भार उठा सके, फ्रांसीसी हमेशा आर्थिक अभाव से ग्रस्त रहे, फ्रांसीसियों की यह सबसे बड़ी कमजोरी थी। व्यापारिक कम्पनी तभी साम्राज्य की स्थापना कर सकता है जब उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी हो। जैसा की बुसी ने कहा था “सफलता और विजय एक व्यापारिक कम्पनी के लिए साधारण गणित की चीजें हैं; सर्वदा बुरी यदि व्यय आय से अधिक है अथवा यदि उत्पादन कम-से-कम खर्च के बराबर नहीं।” यही कारण था कि फ्रांसीसी कभी भी अपनी सेना का उचित संगठन नहीं कर सके। उनके सैनिकों को ठीक समय पर वेतन भी नहीं मिलता था।

इसके विपरीत अंग्रेज कम्पनी की आर्थिक स्थिति काफी अच्छी थी। बंगाल पर आधिपत्य हो जाने के उपरान्त यह स्थिति और भी अच्छी हो गयी। अंग्रेज स्वयं अपनी इस श्रेष्ठ स्थिति को समझते थे और उन्हें अपनी सफलता में पूरा विश्वास था। स्वयं क्लाइव ने कहा थाः “हमारी नौ-सेना की श्रेष्ठता और अपार धन तथा अन्य सभी प्रकार की रसद जो हम अपने मित्रों को दक्षिण में इन सूत्रों से भेज सकते हैं। जबकि शत्रु को प्रत्येक वस्तु की आवश्यकता है और उसकी पूर्ति का उसके पास कोई साधन नहीं है- ऐसे लाभ हैं कि यदि इनका पूरा ध्यान रखा जाय तो हम वहीं नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत में उसका पूर्ण विनाश करने में असफल नहीं हो सकते हैं।”

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि डूप्ले की नीति शुरू से ही दोषपूर्ण थी। उसकी साम्राज्य विस्तार की नीति की सफलता एक व्यापारिक कम्पनी के लिए सम्भव नहीं थी। 1753 में मद्रास की ब्रिटिश कौंसिल में यह विचार सही ही व्यक्त किया गया था कि “डूप्ले की नीति को एक व्यापारिक कम्पनी की नहीं बल्कि एक राष्ट्र की सहायता चाहिए।’ हजारों मील दूर में साम्राज्य स्थापित करना कोई सरल काम नहीं था। इसके लिए आर्थिक सम्पन्नता आवश्यक थी। जिस समय डूप्ले ने पर्याप्त धन की व्यवस्था किये बिना ही राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के यत्न शुरू किये उसी समय उसने फ्रांसीसी कम्पनी के पतन के लिए रास्ता बना दिया।

  1. सुरक्षित आधार का अभाव

    अंग्रेजों को बंगाल जैसे धन-सम्पन्न प्रान्त को विजय करने के बाद उनको एक सदृढ़ आधार मिल गया जहाँ शेष भारत की विजय सुचारू रूप से चल सकता था। परन्तु फ्रांसीसियों के पास इस तरह का कोई आधार नहीं था। भारत के लिए उनका आधार मारीशस बना सकता था। लेकिन अधिक दूर होने के कारण वहाँ से उचित समय पर सहायता पहुँचाना कठिन था। पश्चिम तट पर फ्रांसीसियों के पास पांडीचेरी एक अच्छा नगर था, परन्तु मद्रास की स्थिति उसके समकक्ष थी। इस प्रकार स्थानों की दृष्टि से भी अंग्रेज कम्पनी की स्थिति फ्रांसीसियों के मुकाबले में अच्छी थी।

  2. कम्पनी के संगठन की कमजोरी

    अंग्रेजी ईस्ट इण्डिया कम्पनी एक स्वतन्त्र व्यापारिक कम्पनी थी। राज्य की ओर से उसके कार्य में साधारण स्थिति में कोई हस्तक्षेप नहीं होता था। इसके विपरीत, फ्रांसीसी कम्पनी राज्य से सहायता प्राप्त कम्पनी थी और फ्रांस के राजा एवं मन्त्रियों का धन उस कम्पनी में लगा होने के कारण फ्रांसीसी कम्पनी पर फ्रांस की राजनीति का प्रभाव पड़ता था। इस कारण, फ्रांसीसी कम्पनी व्यापार की ओर ठीक प्रकार ध्यान नहीं देती थी और उसकी आर्थिक स्थिति सर्वदा खराब रहती थी। इसी भारत की फ्रांस-नीति उसकी सम्पूर्ण औपनिवेशिक नीति का एक भाग मात्र थी और कम्पनी के भारत के अधिकारों की सुरक्षा का फ्रांस ने कोई विशेष प्रबन्ध नहीं किया था तथा समय-समय पर फ्रांसीसी अधिकारियों में परिवर्तन किये गये थे। ये ही सभी कार्य फ्रांसीसी कम्पनी की स्थिति को दुर्बल बनाते थे।

  3. फ्रांसीसी पदाधिकारियों के पारस्परिक झगड़े

    फ्रांसीसी कम्पनी के ऊंचे पदाधिकारी परस्पर ईर्ष्या द्वेष रखते थे और उनमें मतैक्य का हमेशा अभाव रहा। इसके कई उदाहरण दिये जा सकते हैं। प्रथमतः डूप्ले की इच्छा के विरुद्ध ला-बर्डिनों ने मद्रास अंग्रेजों को दे दिया तथा डूप्ले की सहायता करने के बजाय वह समुद्री तटों को असुरक्षित छोड़कर लौट गया। बुसी तथा लैली का परस्पर व्यवहार भी अनुचित था। लैली के हठ और अहंकार ने हैदराबाद में फ्रांसीसियों के प्रभुत्व को समाप्त कर दिया। दूसरी ओर अंग्रेज कर्मचारी संगठित होकर अपना काम करते थे और उनमें लक्ष्य की एकता थी। क्लाइव के समान साधारण क्लर्क की योजना का भी उन्होंने सम्मान किया। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी कम्पनी में लारेन्स, सर आयर-कूट, फोर्ड, स्मिथ आदि अनेक प्रतिभावान अंग्रेज कर्मचारियों की सेवायें उन्हें प्राप्त हुई जिसके कारण अंग्रेजों की सफलता निश्चित हो गयी।

  4. यूरोपीय राजनीति का अभाव

    भारत में अंग्रेज फ्रांसीसी प्रतिस्पर्धा पर यूरोपीय राजनीति का पूरा प्रभाव पड़ता रहा। सप्तवर्षीय युद्ध ने तो अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के भाग्य का फैसला कर दिया। औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित करने में इन दोनों प्रतिद्वन्द्वियों में वही सफलता पा सकता था जिसको यूरोपीय युद्ध में सफलता मिलती । सप्तवर्षीय युद्ध में अंग्रेजों की विजय ने अमेरिका तथा भारत में स्थित उपनिवेशों में भी फ्रांसीसियों की पराजय की घोषणा कर दी। यूरोप में फ्रांस की पराजय का प्रभाव भारत की स्थिति पर पड़ना आवश्यक था।

उपर्युक्त विभिन्न कारणों से भारत में फ्रांसीसियों का पतन हुआ और तृतीय कर्नाटक युद्ध के बाद ही भारत में उनकी शक्ति समाप्त हो गयी। बैंडीवास के युद्ध के उपरान्त फ्रांसीसियों की स्थिति एकदम महत्वहीन हो गयी। पी० र्ट्स ने ठीक ही लिखा है कि “अप्रैल 1785 में फ्रांसीसी कम्पनी की स्थापना पुनः की गयी परन्तु अब वह एक व्यापारिक कम्पनी मात्र थी; एक शक्तिशाली साम्राज्य की प्रभुतायुक्त रानी नहीं थी।”

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