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बक्सर युद्ध के कारण एवं परिणाम

बक्सर युद्ध के कारण एवं परिणाम

मीरकासिम मीरजाफर का दामाद था। वह 1756 ई० और उसके बाद के समय में बंगाल के नवाबों में सर्वाधिक योग्य था। उसने अंग्रेजों को बर्दवान, मेदिनीपुर और चटगाँव की जागीर दी, विभिन्न अंग्रेज अधिकारियों को उपहार प्रदान किये, दक्षिण के युद्ध में सहायतार्थ अंग्रेजों को पाँच लाख रुपये दिये तथा उस धन को भी देने का वायदा किया जो सन्धि की शर्तों के अनुसार मीरजाफर अंग्रेजों को नहीं दे सका था।

बक्सर युद्ध का कारण

मीरकासिम ने अपने सभी वायदों को पूरा किया। नवाब बनते ही उसने अपनी योग्यता का परिचय दिया। वह जानता था कि नवाब की शक्ति को स्थापित करने के लिए कुशल शासन और भरा हुआ खजाना आवश्यक है और उसने इसके लिए प्रयत्न आरम्भ किये। उसने विद्रोही जमींदारों को दबाया, शासन अधिकारियों को बेईमानी से संचित किये गये धन को खजाने में जमा करने के लिए बाध्य किया, कुछ नवीन कर—’अवाब’-लगाये और सैन्य-व्यवस्था को सुधारने का प्रयत्न किया। वह अपनी राजधानी को मुर्शिदाबाद से मुंगेर ले गया जहाँ उसने गोला-बारूद तैयार करना और सैनिकों को यूरोपियन तरीके से युद्ध-शिक्षा देना आरम्भ किया। इस कार्य में उसे एक आमीनियन अधिकारी गुर्गिनखाँ और एक मुस्लिम अधिकारी मुहम्मद तकीखाँ से विशेष सहायता मिली। उसने प्रशासन और दरबार के व्यय को कम किया तथा कम्पनी के कर्जे और सैनिकों के वेतन को पूरी तरह चुकता किया। उसने असन्तुष्ट सरदारों को समझा-बुझाकर अपनी तरफ कर लिया, योग्य पदाधिकारियों की नियुक्ति की और इस प्रकार वे सभी कार्य किये जो एक योग्य और कुशल नवाब से अपेक्षित थे।

परन्तु मीरकासिम की योग्यता ही उसके पतन का कारण बनी। मीरकासिम ने अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली बनने से इन्कार कर दिया और इसे अंग्रेज पसन्द न कर सके जिसके कारण नवाब और अंग्रेजों के बीच झगड़े के विभिन्न निम्नलिखित कारण उपस्थित हो गये।

  1. बंगाल की सत्ता का प्रश्न-

    मीरकासिम और अंग्रेजों के बीच झगड़े का प्रमुख कारण सत्ता का प्रश्न था। मीरकासिम ने अपने वायदे को पूरा कर दिया था, वह बंगाल के शासन को दृढ़ कर रहा था और अपने कर्तव्यों को ठीक प्रकार से जानता था। साथ ही, मीरकासिम अपने अधिकारों को भी समझता था। वह अंग्रेज कम्पनी के हाथों में कठपुतली बनने को तत्पर न था जबकि अंग्रेज यह चाहते थे कि नवाब उनके इशारों पर कार्य करे। अंग्रेजों को एक योग्य परन्तु उन पर निर्भर करने वाले नवाब की तलाश थी जो असम्भव था। इस कारण अंग्रेजों ने योग्य के स्थान पर एक दुर्बल शासक को पसन्द किया और मीरकासिम से उनका झगड़ा हो गया।

  2. शाहजादेशाहजादाका प्रश्न

    मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय की 1760 ई० में हत्या कर दी गयी। इस अवसर पर मुगल शाहजादा ‘शाहजादा’ बिहार में था। उसने अपने को शाह आलम द्वितीय के नाम से मुगल बादशाह घोषित कर दिया। उसने अंग्रेजों से बातचीत की और अंग्रेजों ने उसे पटना बुला लिया। अंग्रेज उस समय शाह आलम की सहायता करके उससे कुछ लाभ प्राप्त करने की योजना बना रहे थे और उन्होंने मीरकासिम को परामर्श दिया कि वह एक घोषणा करके शाह आलम को मुगल बादशाह स्वीकार कर ले। मीरकासिम को शंका हुई कि शाह आलम को मुगल बादशाह स्वीकार कर लेने की स्थिति में यदि अंग्रेजों ने शाह आलम से बंगाल, बिहार और उड़ीसा की सूबेदारी ले ली, तो वह उनका विरोध नहीं कर सकेगा और यदि करेगा भी तो अपने ही द्वारा स्वीकार किये हुए मुगल बादशाह के विरुद्ध विद्रोही माना जायेगा। इस कारण वह चाहता था कि जब शाह आलम उसके राज्य की सीमाओं को छोड़कर चला जाय तभी वह उसे मुगल बादशाह स्वीकार करे। परन्तु जब अंग्रेजों ने उसे यह धमकी दी कि यदि नवाब यह घोषणा नहीं करेगा तो वह स्वयं ही इस कार्य को कर देंगे तब मीरकासिम को बाध्य होकर यह घोषणा करनी पड़ी। वह शाह आलम से मिलने पटना भी गया। शाह आलम कुछ समय पश्चात् मराठों की सहायता और आश्वासन पाकर दिल्ली चला गया परन्तु इस घटना ने मीर कासिम और अंग्रेजों के बीच संदेह एवं संघर्ष की भावना को जन्म दे दिया।

  3. रामनरायन का मामला

    रामनरायन नवाब का नाइब-दीवान था। नवाब उससे अप्रसन्न हो गया। वह भागकर अंग्रेजों की शरण में चला गया। नवाब ने उसे वापस मांगा। अभी तक अंग्रेजों की नीति यह रही थी कि वे नवाब के डर से भागे हुए सभी व्यक्तियों को अपने यहाँ शरण दे देते थे और उन्हें नवाब को वापस नहीं करते थे। इस अवसर पर कम्पनी का गवर्नर एक सजजन व्यक्ति वान्सीटार्ट था जिसने रामनरायन को नवाब को वापस सौंप दिया। इससे मीरकासिम को कुछ मनोबल प्राप्त हुआ और वह अंग्रेजों के विरुद्ध कार्य करने का साहस कर सका।

  4. व्यापार का प्रश्न-

    परन्तु मीरकासिम और अंग्रेजों के झगड़े का मुख्य कारण व्यापार था। इसी के साथ यह प्रश्न भी जुड़ा हुआ था कि बंगाल में वास्तविक शक्ति किसकी है? अंग्रेज कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा में बिना कर दिये हुए व्यापार करती थी। यही नहीं बल्कि वह अपने अधिकार का दुरुपयोग भी करती थी। कम्पनी के कर्मचारी अपने ‘दस्तकों’ (Free Pass) को भारतीय व्यापारियों को बेच देते थे। इससे न केवल नवाब की आय में कमी होती थी बल्कि उसके शासन में दुर्बलता भी आती थी। इस कारण उसने इस असुविधा के सम्बन्ध में कम्पनी से एक निश्चित समझौता करने का प्रयत्न किया। गवर्नर वान्सीटार्ट और वारेन हेस्टिंग्ज ने मुंगेर में नवाब से भेंट की और निर्णय किया कि कम्पनी के कर्मचारी भी आन्तरिक व्यापार पर 1% कर का चुकारा करें परन्तु कलकत्ता कौंसिल ने इस समझौते को स्वीकार नहीं किया।

कोई समझौता न होने पर मीरकासिम ने 1762 ई० में भारतीयों से भी व्यापारिक कर लेना समाप्त कर दिया जिससे सर्वप्रथम तो यह समस्या ही न रही और दूसरे भारतीय व्यापारी भी समानता के आधार पर अंग्रेज कम्पनी से मुकाबला कर सके और नवाब के सूबों में प्रजा को सस्ती वस्तुएं उपलब्ध हो सकीं। नवाब के इस कार्य से नवाब की आय में कमी अवश्य हुई परन्तु उसकी प्रजा और भारतीय व्यापारियों को लाभ हुआ। नवाब ने यह कार्य इसी हेतु किया था। परन्तु ऐसा करके नवाब ने अंग्रेजों के विशेषाधिकार को समाप्त कर दिया। अंग्रेजों को लाभ उसी दशा में था जबकि वे बिना कर दिये हुए व्यापार करते और भारतीयों को कर देना पड़ता। इस कारण कलकत्ता कौंसिल ने भारतीयों पर पुनः व्यापारिक कर लगाने की मांग की। नवाब ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार नवाब की व्यापारिक नीति अंग्रेजों और नवाब के बीच झगड़े का प्रमुख कारण बनी।

बक्सर का युद्ध

10 जून, 1763 ई० को यह झगड़ा युद्ध में परिवर्तित या। सितम्बर तक ही नवाब की तीन स्थानों पर पराजय हुई। इससे मीरकासिम का साहस टूटने लगा। निराशा के इन्हीं क्षणों में वह पटना गया जहाँ के अंग्रेज गवर्नर एलिस से उसका मुख्य झगड़ा था। पटना में उसने कुछ भारतीय और अंग्रेज बन्दियों को कत्ल कर दिया जो ‘पटना हत्याकाण्ड’ कहलाता है परन्तु मीरकासिम को सफलता प्राप्त न हो सकी और वह अवध की सीमाओं में भाग गया।

डॉडवेल ने लिखा है कि “कम्पनी और नवाब के बीच युद्ध इच्छाओं का परिणाम न होकर परिस्थितियों के कारण था।” परन्तु यह कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता। व्यापार के प्रश्न और एलिस के व्यवहार के कारण नवाब का जो झगड़ा अंग्रेजों से हुआ, वह परिस्थितिवश माना जा सकता है परन्तु उसके पश्चात् जो बक्सर का युद्ध हुआ उसके बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। मीरकासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सहायता मांगी और उसकी सेना के व्यय हेतु 11 लाख रुपये प्रति माह देना स्वीकार किया। शुजाउद्दौला ने इस अवसर को बंगाल में अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए उपयुक्त समझा और वह मीरकासिम को उसकी गद्दी वापस दिलाने में सहायता देने के लिए तैयार हो गया। मुगल बादशाह शाह आलम भी उस समय अवध में था और वह भी इस आक्रमण में सम्मिलित हो गया। 1764 ई० में अवध के नवाब और मुगल बादशाह के वजीर शुजाउददौला और स्वयं मुगल बादशाह शाह आलम की सम्मिलित सेनाओं ने बिहार की सीमाओं में प्रवेश किया। अंग्रेजों की ओर से मेजर हेक्टर मुनरो ने इस सेना का मुकाबला किया और 23 अक्टूबर, 1764 ई० को बक्सर का महत्वपूर्ण युद्ध हुआ। नवाब और मुगल बादशाह की सेनाओं की पराजय हुई। 3 मई, 1765 ई0 को कड़ा में एक युद्ध और हुआ और उसके पश्चात् अवध का नवाब और मुगल बादशाह अंग्रेजों के कदमों में हो गये। मीरकासिम वहां से भाग गया और 1777 ई० में दिल्ली के निकट बहुत निर्धनता की स्थिति में उसकी मृत्यु हुई।

परिणाम

बक्सर का युद्ध प्लासी के युद्ध से अधिक महत्वपूर्ण था। ब्रूम ने लिखा था : “इस प्रकार बक्सर का प्रसिद्ध युद्ध समाप्त हुआ जिस पर भारत का भाग्य निर्भर था और जो जितनी बहादुरी से लड़ा गया, परिणामों की दृष्टि से भी उतना ही महत्वपूर्ण था।’ प्लासी के युद्ध ने अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा का स्वामित्व दिया था परन्तु बक्सर के युद्ध ने अवध के नवाब और मुगल बादशाह के वजीर शुजाउद्दौला तथा स्वयं मुगल बादशाह को भी अंग्रेजों की दया पर छोड़ दिया। मुगल बादशाह शक्तिशाली न था परन्तु वह नाम का मुगल बादशाह अवश्य था। इस से अंग्रेजों का यश सम्पूर्ण भारत में फैल गया। अब बंगाल का नवाब उनके हाथों की कठपुतली, अवध का नवाब उन पर निर्भर करने वाला मित्र और मुगल बादशाह उनका पेंशनर बन गया। अब अंग्रेजों के लिए दिल्ली का मार्ग साफ था और वे मराठों से संघर्ष के लिए तत्पर हुए जिस पर भारत का भाग्य निर्भर करता था।

राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि सैनिक दृष्टि से भी बक्सर का युद्ध महत्वपूर्ण था। प्लासी का युद्ध शस्त्रों से नहीं बल्कि कूटनीति से जीता गया था, परन्तु बक्सर के युद्ध के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। अवध के नवाब और मुगल बादशाह की सम्मिलित सेना की संख्या 40,000 से 60,000 के बीच में थी जबकि अंग्रेजों की सेना की संख्या लगभग 8,000 थी। यह युद्ध भीषणता से लड़ा गया और दोनों तरफ से काफी संख्या में सैनिक और अधिकारी मारे गये थे। इस प्रकार यह युद्ध अंग्रेजों की सैनिक श्रेष्ठता और सफलता का प्रमाण था।

जुलाई 1763 ई० में ही मीरजाफर को दुबारा बंगाल का नवाब बना दिया गया था। उसने अंग्रेजों के कहने से भारतीयों पर पुनः व्यापारिक कर लगा दिया और मीरकासिम से युद्ध करने के बदले में भी अंग्रेजों को धन दिया। नन्दकुमार को उसका मंत्री बनाया गया यद्यपि कुछ समय पश्चात् ही अंग्रेज उस पर संदेह करने लगे। मीरजाफर के समय में बंगाल में पुनः अव्यवस्था फैलने लगी। 5 फरवरी, 1765 ई० को मीरजाफर की मृत्यु हो गयी।

मीरजाफर की मृत्यु के पश्चात् उसके दूसरे पुत्र नजमुद्दौला को, जो अभी बच्चा ही था, नवाब बनाया गया। नवनियुक्त नवाब से अंग्रेजों ने एक सन्धि की जिसके द्वारा नवाब की सेना प्रायः समाप्त कर दी गयी और नवाब के पदाधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार अंग्रेजों ने ले लिया। इस प्रकार अंग्रेज एक प्रकार से बंगाल, बिहार और उड़ीसा के मालिक बन गये। उसी समय नन्दकुमार को मंत्री के पद से हटा दिया गया क्योंकि वह मुगल बादशाह से नवनियुक्त नवाब के लिए सनद प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा था जिसकी आज्ञा उसने अंग्रेजों से प्राप्त नहीं की थी। बंगाल के शासन की स्थिति दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती गयी। कम्पनी के कर्मचारियों की बेईमानी और धनलोलुपता ने बंगाल के सूबे को ही नष्ट नहीं किया वरन् अन्त में कम्पनी की स्थिति को भी खराब कर दिया। ऐसी स्थिति में कम्पनी के डायरेक्टरों ने क्लाइव को दुबारा बंगाल में अंग्रेज कम्पनी का गवर्नर बनाकर भेजा।

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