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अंग्रेज और सिख के बीच सम्बन्ध

अंग्रेज एवं सिख सम्बन्ध

रणजीत सिंह ने सर्वदा अंग्रेजों से अच्छे सम्बन्ध बनाये रखने का प्रयत्न किया, चाहे उसकी भावना अंग्रेजों के प्रति कुछ भी रही हो। उसने 1809 ई० में हुई अमृतसर की संधि का निरन्तर पालन किया। 1814-1816 ई० में नेपाल-युद्ध और 1824 ई० में बर्मा के युद्ध के अवसर पर अंग्रेजों को प्रारम्भ में बहुत कठिनाई हुई थी परन्तु रणजीत सिंह ने उनसे लाभ उठाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। उसने नेपाल को अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता देने से इन्कार कर दिया था। तृतीय मराठा-युद्ध में जब नागपुर का भौंसले भागकर रणजीत सिंह से सहायता मांगने आया तब उसने इन्कार कर दिया। इसी प्रकार 1825 ई0 जब भरतपुर के राज ने अंग्रेजों के विरुद्ध उससे सहायता मांगी तब भी उसने इन्कार कर दिया।

लेकिन अंग्रेजों ने रणजीत सिंह के प्रति मित्रता के भाव कभी नहीं रखे बल्कि सर्वदा उसकी प्रगति में बाधा उपस्थित की और उसकी कठिनाइयों से लाभ उठाने का प्रयत्न किया। 1826 ई० में वहाबी जाति ने रणजीत सिंह के विरुद्ध धर्म-युद्ध (जिहाद) की घोषणा की जिसकी तैयारी उन्होंने अंग्रेजी सीमाओं में की तथा रणजीत सिंह पर आक्रमण किया। अंग्रेज यह जानते थे, परन्तु उन्होंने वहाबियों के कार्यों को रोकने का कोई प्रयत्न नहीं किया। वहाबियों के नेता ने उत्तर-पश्चिम प्रान्त के लेफ्टिनेन्ट-गवर्नर को एक पत्र लिखा और सूचित किया : “वह सिखों के विरुद्ध धर्म-युद्ध आरम्भ कर रहा है और आशा है कि अंग्रेज सरकार को इसमें कोई ऐतराज न होगा।” गवर्नर ने उसका उत्तर देते हुए लिखा : “जब तक अंग्रेजी सीमाओं की शान्ति भंग नहीं होती है तब तक उन्हें इस विषय में कुछ नहीं कहना है और न उन्हें वहाबियों के तैयारी करने में कोई ऐतराज है।’ अंग्रेजों का मानना था कि यदि पठान उत्तर-पश्चिम सीमा पर सिखों का विरोध करते रहेंगे तो रणजीत सिंह की शक्ति क्षीण होगी जिससे अंग्रेजों को लाभ होगा।

अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को सतलज नदी के पूर्व की ओर बढ़ने से ही नहीं रोका बल्कि जब-जब उसने सिन्ध में अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयत्न किया तब-तब उसे रोका गया। अंग्रेज दिखावे के लिए तो रणजीत सिंह के प्रति सम्मान और मित्रता प्रदर्शित करते थे परन्तु वास्तव में जब कभी भी वे अवसर पाते थे तभी उसकी शक्ति को कम करने का प्रयत्न करते थे। अंग्रेजों ने रणजीत सिंह को सिन्ध की तरफ नहीं बढ़ने दिया परन्तु स्वयं सिन्ध में अपना प्रभाव स्थापित करने के प्रयत्न किये। बर्न्स (Burnes) को इसी कारण सिन्ध की राजनीतिक और भौगोलिक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करने हेतु सिन्धु नदी के मार्ग से रणजीत सिंह के पास भेजा गया था। 1831 ई० में गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने जिस दिन रणजीत सिंह से रूपर नामक स्थान पर भेंट की थी और मित्रता की सन्धि को दुहराया था, उसी दिन पोटिंगर (Pottinger) को सिन्ध जाने के आदेश दिये गये थे ताकि वह वहाँ के अमीरों से मिलकर सन्धि करने का प्रयास करे परन्तु इस विषय में रणजीत सिंह को कुछ भी नहीं बताया गया था।

जब रणजीत सिंह ने शिकारपुर पर अधिकार करने का प्रयत्न किया तब अंग्रेजों ने स्पष्ट कर दिया कि वह ऐसा नहीं कर सकता। इससे भी अधिक अंग्रेजों की जबरदस्ती उस समय स्पष्ट हुई जब 1835 ई० में अंग्रेजों ने फीरोजपुर पर अपना अधिकार कर लिया जिस पर वे रणजीत सिंह का स्वामित्व स्वीकार कर चुके थे। फीरोजपुर अंग्रेजों के लिए सैनिक दृष्टि में महत्वपूर्ण था और सिख राजधानी लाहौर के बहुत निकट था। इस कारण रणजीत सिंह को अप्रसन्न करके भी अंग्रेज ने फीरोजपुर पर अधिकार करना उचित समझा। मुरे लिखता है : “राजधानी लाहौर केवल 40 मील दूर है, रास्ते में केवल एक नदी है जो वर्ष में छह माह पार करने योग्य है। फीरोजपुर का किला प्रत्येक दृष्टि से अंग्रेजों के लिए महत्वपूर्ण है।”

इस प्रकार यह निश्चित है कि यद्यपि रणजीत सिंह ने अंग्रेजों को अप्रसन्न करने का कोई भी अवसर नहीं दिया था, फिर भी अंग्रेज उसकी मित्रता का कोई ध्यान नहीं रखते थे। 1838 ई० में अंग्रेजों, शाहशुजा और रणजीत सिंह के बीच एक त्रिदलीय सन्धि हुई। उसमें भी अंग्रेजों हित था और रणजीत सिंह केवल अंग्रेजों को प्रसन्न रखने के लिए उसमें सम्मिलित हुआ था। अनेक इतिहासकारों ने अंग्रेजों के प्रति रणजीत सिंह की इस नीति को उचित बताया है। उनका कहना है कि वह यथार्थवादी थी। वह जानता था कि अंग्रेज उससे अधिक शक्तिशाली हैं और उनका विरोध करके उनसे युद्ध करने का अर्थ अपने राज्य का सर्वनाश करना है। इस कारण वह बुद्धिमानी से उनसे युद्ध टालता रहा और उसके सर्वदा उनसे मित्रता रखी।

परन्तु कुछ इतिहासकार ऐसे भी हैं जो रणजीत सिंह की इस नीति को दुर्बलता और अदूरदर्शिता की नीति बताते हैं। एन0 के0 सिन्हा लिखते हैं, “जैसा कि बिस्मार्क का कथन है, प्रत्येक स्थिति में राजनीतिक सन्धि में एक घोड़ा और एक घुड़सवार होता है। अंग्रेजों और सिखों की इस सन्धि में रणजीत सिंह घोड़ा और अंग्रेज सरकार घुड़सवार थी। अंग्रेजों के साथ अपने सम्बन्धों में रणजीत सिंह ने अत्यधिक दुर्बलता दिखायी। उसने कभी भी साहस से काम नहीं किया। वह सर्वदा अनिश्चय और हिचकिचाहट से ग्रस्त रहा।” इस पक्ष के इतिहासकारों का मत है कि रणजीत सिंह को यह सोचना चाहिए था और उसे ज्ञान भी होगा कि अंग्रेज किसी न किसी अवसर पर पंजाब को जीतने का प्रयास करेंगे। ऐसी स्थिति में उसे नेपाल, मराठा या अन्य भारतीय राजाओं से सन्धि करके अंग्रेजों को भारत से निकालने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए था। इस नीति का परिणाम कुछ भी होता परन्तु अपने सर्वनाश की चुपचाप प्रतीक्षा करने की बजाय साहसिक नीति अपनाना, निस्संदेह, लाभप्रद होता। आर० सी० मजूमदार के अनुसार रणजीत सिंह इस बात को भूल गया : “राजनीति में भी, युद्ध की भांति, समय रक्षात्मक उपाय करने वाले के साथ नहीं होता।”

कुछ इतिहासकारों ने रणजीत सिंह और शिवाजी की तुलना की है। रणजीत सिंह और शिवाजी में यद्यिप बहुत अन्तर था परन्तु दोनों में कुछ समानता भी है। दोनों ने अपने राष्ट्र के बिखरे हुए व्यक्तियों को एकत्र किया और ऐसे शक्तिशाली सैनिक राज्यों की स्थापना की जो अपने पड़ोसी राज्यों के मुकाबले खड़े हो सके। बाद में अंग्रेज-सिख युद्धों के अवसर पर यह स्पष्ट हो गया कि खालसा-सेना बहुत शक्तिशाली बन चुकी थी। यदि इस सेना को स्वार्थी और डरपोक नेताओं के स्थान पर रणजीत सिंह जैसे योग्य व्यक्ति का नेतृत्व प्राप्त हुआ होता तो सम्भवतः युद्धों का परिणाम कुछ और ही होता। इसी कारण प्रश्न यह उठता है कि जो कार्य 17वीं सदी में शिवाजी ने शक्तिशाली मुगलों के विरुद्ध किया था क्या वह कार्य 19वीं सदी में रणजीत सिंह अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं कर सकता था? रणजीत सिंह यह कार्य क्यों नहीं कर सका, इसके कई कारण बताये जाते हैं। रणजीत सिंह का व्यक्तिगत चरित्र शिवाजी की भांति दृढ़ न था। वह शराब और शिकार का व्यसनी था। चारित्रिक दुर्बलता उसे साहसिक कदम उठाने से रोकती थी। उसका शासन दोषपूर्ण था क्योंकि वह एकमात्र उसी पर निर्भर करता था। शिवाजी की ‘अष्ट-प्रधान सभा’ की भांति रणजीत सिंह को सलाह देने वाली सभा राज्य में कोई न थी। कुछ इतिहासकारों का यह भी मत है कि उसने सिखों के बजाय डोगरा-राजपूत तथा अन्य जाति के व्यक्तियों को राज्य के शासन में विशेष महत्व दिया जो उसकी मृत्यु के पश्चात् सिख-राज्य के प्रति वफादार नहीं रहे और व्यक्तिगत स्वार्थ में लिप्त हो गये और इसलिए सिख-राज्य का पतन रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् दस वर्षों में ही हो गया जबकि शिवाजी के मराठा-राज्य को मुगलों की सम्पूर्ण शक्ति भी नषट न कर सकी।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कारण कुछ भी हो परन्तु जहाँ रणजीत सिंह को हम एक महान् शासक मानते हैं वहीं यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि उसने अंग्रेजों के प्रति दृढ़ता और दूरदर्शिता की नीति नहीं अपनायी। इसी कारण वह अपने जीवन-काल में तो सफल रहा परन्तु एक दृढ़ सिख-राज्य की स्थापना करने में पूर्णतः असफल रहा। उसकी नीति की दुर्बलता सिख-राज्य के शीघ्र पतन के लिए उत्तरदायी हुई।

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