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आसियान (ASEAN)- संगठन, स्वरूप, उद्देश्य

आसियान (ASEAN)- संगठन, स्वरूप, उद्देश्य

दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्र संघ : आसियान (ASEAN)

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से दक्षिण-पूर्वी एशिया, संसार के सर्वाधिक विस्फोटक और महत्वपूर्ण स्थलों में से एक है। इस क्षेत्र के अन्तर्गत चीन के दक्षिण में तथा भारतीय उपमहाद्वीप के पूरब में स्थित देश बर्मा (म्यांमार), थाईलैण्ड, मलेशिया, इण्डोनेशिया, कम्पूचिया, वियतनाम, फिलिपाइन आदि सम्मिलित किये जाते हैं। द्वितीय महायुद्ध के बाद यह क्षेत्र विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है तथा पश्चिमी एशिया के समान ही महाशक्तियों के आकर्षण का केन्द्र बना रहा। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् इस क्षेत्र में तीन आधारभूत परिवर्तन दृष्टिगत हुए हैं : प्रथम, यूरोपीय प्रभुत्व का क्रमशः अवसान होना; द्वितीय, यहाँ के देशों का स्वतन्त्र होना; एवं तृतीय, चीन के प्रभाव की इस क्षेत्र में वृद्धि होना।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया’ एक नया शब्द है जिसका प्रयोग द्वितीय महायुद्ध से पूर्व नहीं होता था। इस शब्द केप्रचलन का तात्कालिक कारण अगस्त 1953 में क्यूबेक सम्मेलन के द्वारा एडमिरल माउण्टबैटन की अधीनता में ‘दक्षिण-पूर्वी एशिया कमाण्ड’ की स्थापना था। प्रारम्भ में यह उद्बोधन उन देशों के लिए था जो भारत के पूरब और चीन के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है जिनकी संख्या छः थी। लेकिन द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त नये सम्प्रभु राष्ट्रों के उदय से इस संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। आज अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के दस राष्ट्र-म्यांमार, बरूनी, इण्डोनेशिया, कम्पूचिया, लाओस, मलेशिया, फिलिपाइन, सिंगापुर, थाईलैण्ड तथा वियतनाम इस क्षेत्र में स्थित हैं। डॉ0 बी0 आर0 चटर्जी के अनुसार, “दक्षिण-पूर्वी एशिया पूरब से पश्चिम तक फिलिपाइन, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, थाईलैण्ड और म्यांमार और दक्षिण की ओर मलाया एवं सुमात्रा से लेकर न्यूगिनी तक इण्डोनेशिया द्वीप समूह से मिलकर बना है।”

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में दक्षिण-पूर्वी एशिया का कई कारणों से बड़ा महत्व रहा प्रथम, यह क्षेत्र सामरिक (Strategic) और भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है। यह हिन्द महासागर को प्रशान्त महासागर से मिलाने वाले समुद्री मार्ग पर स्थित है और एशिया व ऑस्ट्रेलिया के मध्य तक प्राकृतिक पुल का सा कार्य करता है। द्वितीय, आर्थिक दृष्टि से यह क्षेत्र बहुत समृद्ध है। चावल, टिन, रबड़ और पेट्रोल यहाँ प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। म्यांमार, थाईलैण्ड और हिन्द चीन में अन्न का विशाल उपजाऊ क्षेत्र है जिसे एशिया का ‘चावल का कटोरा’ कहा जाता है। मलाया में इतना अधिक टिन और रबड़ है कि वह अकेले संसार की आवश्यकता पूर्ति कर सकता है। इण्डोनेशिया, सारावाक और उत्तरी ब्रूनेई में तेल के विशाल भण्डार हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि से इस क्षेत्र की विशिष्टता का कारण यहाँ प्रभुता पाने के लिए साम्यवादी चीन का प्रबल प्रयास तथा इसे रोकने के लिए पश्चिमी शक्तियों के प्रयत्न हैं। यहाँ के सभी देशों में चीनियों की बहुत बड़ी संख्या निवास करती है और चीन इनके माध्यम से सभी देशों में अपना मनचाहा साम्यवादी शासन स्थापित करना चाहता है। द्वितीय विश्व युध्द के बाद यहाँ शक्ति-शून्यता की स्थिति उत्पन्न होने लगी। ब्रिटेन द्वारा द० पू० एशिया से अपनी सैनिक छावनियाँ और अड्डे हटाने की घोषणा से इस क्षेत्र के देशों की सुरक्षा का प्रश्न उपस्थित हुआ। अमरीका और चीन ब्रिटेन का स्थान लेने का प्रयत्न करने लगे, किन्तु उनकी विस्तारवादी नीति से द0 पू0 एशिया के राष्ट्र सशंकित एवं चिन्तित होने लगे। इस स्थिति का प्रतिकार करने के लिए दो सुझाव दिये गये : प्रथम, द० पू० एशिया को ‘तटस्थ क्षेत्र’ बना दिया जाए और चीन सहित सभी देशों से इसकी तटस्थता को बनाये

रखने की गारण्टी दें। दूसरा, आर्थिक सहयोग को बढ़ावा दिया जाए। यहाँ के सभी राष्ट्र एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए अपना आर्थिक संगठन इतना सुदृढ़ बनायें कि कोई भी आक्रमणकारी यहाँ किसी भी देश को हानि नहीं पहुंचा सके।

दक्षिण-पूर्वी एशिया ‘क्षेत्रीय सहयोग’ की ओर

दक्षिण-पूर्वी एशिया में क्षेत्रीय सहयोग को पुख्ता करने के लिए द्वितीय महायुद्ध के बाद अनवरत प्रयत्न किये जाते रहे हैं। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘इकाफे’ (ECAFE) की स्थापना कर इस एशियाई भूभाग की आर्थिक विकास की समस्याओं को रेखांकित कर दिया था। 1954 में सीटो (SEATO) की स्थापना से इस क्षेत्र की सामूहिक सुरक्षा एवं आर्थिक साधनों के विकास की ओर ध्यान केन्द्रित किया गया किन्तु सीटो एक सैनिक सन्धि का निर्माण करने वाला संगठन था जिसमें ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, अमरीका, आदि देश भी भागीदार थे। वी0 के0 कृष्णमेनन के शब्दों में, “सीटो सुरक्षा का क्षेत्रीय संगठन नहीं है, अपितु ऐसे विदेशी लोगों का संगठन है जिन्हें इस क्षेत्र में अपने न्यस्त स्वार्थों की रक्षा करना है।” आगे चलकर ‘कोलम्बो योजना’ ने तकनीकी- सांस्कृतिक सहयोग के लिए जमीन तैयार की और 1959 में ‘आसा’ (Association of South-East Asian States) के निर्माण की पृष्ठभूमि तैयार की गयी। 1967-68 में ब्रिटेन ने स्वेज के पूरब से अपनी सेनाओं को वापस बुला लेने की घोषण आकी और चीन में महान् सांस्कृतिक क्रान्ति के विस्फोट के साथ इस क्षेत्र में अपने सामरिक हितों के लिए पश्चिमी शक्तियाँ व्यग्र होने लगीं। असली सवाल द0 पू0 एशिया के देशों की सुरक्षा का था। आस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री ने सुझाव दिया था कि “इसकी रक्षा करना हमारी जिम्मेदारी है, दूसरी शक्तियाँ हमारा भार क्यों उठाएं? सबसे सुरक्षित और विश्वसनीय उपाय अपनी शक्ति बढ़ाना तथा एशियाई देशों का संगठन सुदृढ़ बनाना है।”

आसियान का निर्माण / संगठन

(Formation of ASEAN)

‘एसियन’ या ‘आसियान’ का पूरा नाम ‘दक्षिण-पूर्वी एशियाई राष्ट्र संघ’ (Association of South-East Asian Nations-ASEAN हैं। यह इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन्स, सिंगापुर तथा थाईलैण्ड का एक प्रादेशिक संगठन है। 1967 में दक्षिण-पूर्वी एशिया के पाँच देशों ने क्षेत्रीय सहयोग के उद्देश्य से ‘आसियान’ नामक असैनिक संगठन का निर्माण किया और 8 अगस्त, 1967 को बैंकाक में एक सन्धि-पत्र पर हस्ताक्षर कर इसके निर्माण की औपचारिक घोषणा की। बाद में 1984 में ब्रूनेई भी इसका सदस्य बना। प्रारम्भ में वियतनाम, लाओस, म्यांमार को प्रेक्षक का दर्जा प्रदान किया गया था। 1995 में वियतनाम को कम्बोडिया को पूर्ण सदस्यता प्रदान कर दी गई। इसके साथ ही आसियान की सदस्य संख्या की अब 10 हो गई है। आसियान के मौजूदा 10 सदस्य राष्ट्रों में इण्डोनेशिया, मलेशिया, फिलीपीन्स, सिंगापुर, थाईलैंड, ब्रूनेई, वियतनाम, लाओस, म्यांमार एवं कम्बोडिया सम्मिलित हैं। आसियान देशों ने भारत को अपना आंशिक सहयोगी बना लिया है। 24 जुलाई, 1996 को भारत के आसियान का पूर्ण संवाद सहभागी बना लिया गया है। रूस और चीन को भी पूर्ण संवाद सहभागी का स्तर प्रदान किया गया है।

आसियान का केन्द्रीय सचिवालय जकार्ता (इण्डोनेशिया) में है और उसका अध्यक्ष महासचिव होता है। महासचिव का पद प्रति दो वर्ष के लिए प्रत्येक देश को जाता है और देश के चुनाव का आधार अकारादि क्रम है। सचिवालय के ब्यूरो निदेशकों तथा अन्य पदों की भर्ती तीन वर्ष बाद होती है।

आसियान के शिखर सम्मेलन सार्क की भांति अधिक नहीं हुए हैं। पहला शिखर सम्मेलन 1976 में, दूसरा 1977 में, तीसरा एक दशक बाद 1987 में, चौथा जनवरी 1992 में, पांचवां दिसम्बर 1995 में थाईलैण्ड की राजधानी बैंकाक में, छठा दिसम्बर 1998 में हनोई में तथा सातवां नवम्बर 2001 में बादर सेरी बेगावन (ब्रूनेई) में सम्पवत्र हुआ। विदेश मंत्रियों की बैठक प्रति वर्ष अवश्य होती रही है।

आसियान का स्वरूप एवं उद्देश्य

(ASEAN : Nature and Objectives)

आसियान के दसों सदस्य राष्ट्रों में विभिन्न भाषा, धर्म, जाति, संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन वाले लोग निवास करते हैं, इन देशों की औपनिवेशिक विरासत, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक जीवन मूल्यों में भिन्नता है तथापि उनमें कतिपय चुनौतियों का सामना करने की साझी समझ भी है। इन देशों के सम्मुख जनसंख्या विस्फोट, निर्धनता, आर्थिक शोषण, असुरक्षा आदि को समान चुनौतियाँ हैं जिन्होंने इन्हें क्षेत्रीय सहयोग के मार्ग पर चलने के लिए विवश कर दिया है।

आसियान के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य है द0 पू0 एशिया में आर्थिक प्रगति को त्वरित करना और उसके आर्थिक स्थायित्व को बनाये रखना। मोटे तौर पर इसके निर्माण का उद्देश्य सदस्य राष्ट्रों में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, प्रशासनिक आदि क्षेत्रों में परस्पर-सहायता करना तथा सामूहिक सहयोग से विभिन्न साझी समस्याओं का हल ढूँढ़ना है जो इसके निर्माण के समय आसियान घोषणा में स्पष्ट रूप से लिखित है। इसका ध्येय इस क्षेत्र में एक साझा बाजार तैयार करना और सदस्य देशों के बीच व्यापार को बढ़ावा देना है। 14 दिसम्बर, 1987 को आसियान कातीसरा शिखर सम्मेलन मनीला में हुआ। दो दिवसीय शिखर सम्मेलन के अन्त में आसियान देशों ने आपसी व्यापार बढ़ाने हेतु चार समझौतों पर हस्ताक्षर किए।

आसियान क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग पर बल देने वाला संगठन है, इसका स्वरूप कदापि सैनिक नहीं है। सदस्य राष्ट्र ‘सामूहिक सुरक्षा’ जैसी किसी कठोर एवं अनिवार्य शर्त से बँधे हुए नहीं है। यह किसी महाशक्ति से प्रोत्साहित, प्रवर्तित एवं सम्बद्ध नहीं है। इसकी सदस्यता उन सभी दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों के लिए खुली है जो इसके लक्ष्यों से सहमत हैं।

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