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तनाव शैथिल्य (देतांत)- अर्थ, उदय के कारण एवं विशेषताएं

तनाव शैथिल्य / दीतां (Detente)- अर्थ, उदय के कारण एवं विशेषताएं

समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में दीतां शब्द का प्रयोग अत्यन्त प्रचलित रहा है। साधारणतया इसका प्रयोग दो शत्रु या फिर विरोधी राज्यों के सम्बन्धों में पुनर्मिलन के प्रयत्नों का वर्णन करने के लिए किया जाता रहा है। विशेषतया, इसका प्रयोग 1970वें दशक में दोनों महाशक्तियों के सम्बन्धों को सामान्य करने के लिए किए गए प्रयलों के लिए किया गया जो दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद से शीत युद्ध में लिप्त रहे थे। दूसरे शब्दों में इसका प्रयोग विशेषरूप से अमरीका-सोवियत संघ के मध्य तनाव शैथिल्य का वर्णन करने के लिए किया गया।

दीतां क्या है?

(What is Detente?)

दीतां एक फ्रांसीसी शब्द है जिसका रैंडम लोउस डिक्शनरी के अनुसार शाब्दिक अर्थ है, “अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में तनाव की कमी” । आक्सफोर्ड शब्दकोष दीतां को दो तरह से परिभाषित करता है, इसके अनुसार यह “राज्यों के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों का अन्त होता है।” , तथा “राज्यों के बीच मित्रतापूर्ण समझ की स्थापना है।”

1974 ई. में प्रो. ए.पी, राना ने लिखा कि “दीतां शब्द अपनी समकालीन अभिव्यक्ति में, किसी भी प्रकार की यथार्थता के साथ न तो महाशक्तियों के बीच तनावपूर्ण सम्बन्धों की समाप्ति और न ही उनके बीच मित्रतापूर्ण समझौते के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनके सम्बन्धों में तनाव-शिथिलता आई है। परन्तु दीतां, जैसा कि यह आज है, महाशक्तियों के उन पारस्परिक जटिल सम्बन्धों को प्रकट करता है जिनका संकेत इन परिभाषाओं में नहीं मिलता। यह उन ऐतिहासिक घटनाओं की ओर संकेत नहीं करता जो पहले घट चुकी हैं जैसे 1904 में इंग्लैंड तथा फ्रांस के बीच सम्बन्धों का सुधरना अथवा 1907 ई. में इंग्लैंड तथा रूस के बीच, जो कई दशकों से जानीं दुश्मन थे, सम्बन्धों का सुधरना।’

प्रो. ए.पी. राना (Prof. A.P. Rana) दीतां की कल्पना महाशक्तियों के सहयोगपूर्ण-प्रतियोगी व्यवहार के रूप में करते हैं। इसमें सम्पर्क और सहयोग के साथ-साथ प्रतियोगिता की भावना विद्यमान रहती है। व्यापक रूप से इस तरह की परिस्थिति दो या दो से अधिक राज्यों के सम्बन्धों को निर्देशित करती है परन्तु एक धारणा के रूप में इसका अर्थ है उन राज्यों के बीच सहयोग तथा प्रतियोगिता का विद्यमान होना जो इससे पहले शीत-युद्ध में लिप्त थे। इस प्रकार दीतां सम्बन्धों के सामान्यीकरण तथा तनावपूर्ण विरोधों तथा असुखद परस्पर हानिकारकर सम्बन्धों के स्थान पर मित्रतापूर्ण सहयोग की स्थापना की प्रक्रिया है। दीतां का अर्थ समझौता करना, सन्धि करना तथा व्यापारिक समझौता करना नहीं है। इसके द्वारा साधारणतया ऐसे परिणाम निकल सकते हैं। यह तो उन प्रयलों के महत्व को बताता है जो प्रतियोगी तथा विरोधी परिस्थिति में भी सहयोग स्थापित करने के लिए किए जाते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि दीतां का अर्थ है- शीत युद्ध, जिसमें उच्च स्तर पर जानबूझ कर तनावों को बनाये रखा जाता है, के विपरीत पारस्परिक सम्बन्धों में सोच समझ कर तनावों को कम करना है। जब दो देशों, जिनके सम्बन्ध पहले तनावपूर्ण तथा संकटमयी रहे हों, आपसी सम्बन्धों को सामान्य तथा मधुर बनाने का प्रयत्न करें तो उनके ऐसे प्रयास को दीतां कहा जाता है। 1970 ई. के दशक में इस धारणा का प्रयोग अमरीका तथा सोवियत संघ द्वारा विद्यमान तनावों को कम अथवा समाप्त करने की प्रक्रिया की प्रकृति को बतलाने के लिए किया गया।

तनाव शैथिल्य के सम्बन्ध में अमरीका, (भूतपूर्व) सोवियत संघ तथा चीनी दृष्टिकोण

वास्तव में दीतां के स्वरूप के बारे में अमरीकी, सोवियत तथा चीनी विद्वानों के विचारों में मतभेद पाया जाता है।

  1. दीतां के प्रति अमरीकी मत

    अमरीकी विद्वानों ने दीतां को “शीत-युद्ध का विकल्प” या “शीत युद्ध का विरोध” माना। परमाणु शस्त्रों के युग में शीत युद्ध एक पूर्ण विध्वंसक युद्ध में बदल सकता था और इसलिए सोवियत संघ के साथ सम्बन्धों में सामान्यता लाने की बहुत आवश्यकता के कारण इसे ऐसी नीति माना गया जो दोनों महाशक्तियों के संकट काल की अवस्था समाप्त करने की व्यवस्था, अथवा सम्पूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय या पूर्व स्थिति की व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था तथा शस्त्र-नियन्त्रण की व्यवस्था को स्थिर करने में सहायक हो सकती थी। हैनरी किसिंगर के शब्दों में, “एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धात्मक राजनीतियों का संचालन करना, जहाँ खेल का निर्णय परमाणु शस्त्रों में होने वाला हो, अनुत्तरदायित्व की उच्चतम सीमा है। यही दीता का अर्थ है। हमने राजनीतिक सम्बन्धों को सुधारने में रूस तथा अमरीका के बीच अधिक से अधिक सीमा तक सम्बन्ध कायम करने के लिए व्यापारिक सम्बन्धों में वृद्धि करने तथा युद्ध की भयानकता को कम करने के लिए तथा सहयोगपूर्ण वातावरण कायम करने के लिए व्यवस्थापूर्ण ढंग ढूंढना है।” इसी प्रकार अमरीका के बहुत से विद्वानों के अनुसार दीतां का अर्थ ऐसा राजनीतिक तथा आर्थिक सहयोग कायम करना था जिसका उद्देश्य युद्ध के भय को सीमित करना था।

  2. दीतां के प्रति सोवियत मत

    दीतां के बारे में भूतपूर्व सोवियत संघ के विचार के साथ पूर्ण सह-अस्तित्व की धारणा से मिलते-जुलते थे। परन्तु यह साम्यवाद के फैलाव की अनिवार्यता की मार्क्सवादी अवधारणा को कहीं भी नहीं छोड़ता था। खुश्चैव के समय से ही सोवियत संघ साधन के रूप में युद्ध का खण्डन करता आ रहा था क्योंकि परमाणु युद्ध एक पूर्ण विध्यवंसक युद्ध होगा जिसका परिणाम कोई भी वास्तविक विजय नहीं होगी। सोवियत-अमरीका सम्बन्धों के सामान्यीकरण के.प्रयत्नों पर टिप्पणी करते हुए मि. लियोनिड ब्रेजनेव ने लिखा था, “हम अन्तर्राष्ट्रीय तनाव में हाल ही में हुए शैथिल्य तथा राज्यों के बीच शान्तिपूर्ण सहयोग से प्रसन्न हैं।’ ब्रेजनेव ने “दृढ़ता से सभी शान्ति की शक्तियों के द्वारा दृढ़ तथा निरन्तर प्रयत्नों द्वारा शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व, सहयोग तथा शान्ति की सुदृढ़ करने की आवश्यकता की वकालत की।” परन्तु इसके साथ-साथ अपने मास्को भाषणों में से एक में ब्रेजनेव ने यह स्पष्ट किया कि दीतां वर्ग-संघर्ष की अवधारणा को समाप्त नहीं करता।

  3. दीतां के प्रति चीनी मत

    1970-80 ई. में दीतां के बारे में चीन के विचार बड़े आलोचनात्मक थे। चीन इसे महाशक्तियों के ऐसे प्रयल मानता था जो चीन को अलग-थलग तथा कमजोर करने के लिए किए जा रहे थे। अमरीका की चीन को मान्यता देने के लिए बाध्य किए बिना ही सोवियत संघ का अमरीका के साथ दीतां में शामिल होने से चीन के नेताओं को महाशक्तियों के दीतां के बारे में सन्देहशील तथा आलोचनात्मक बना दिया। 1963 के बाद के समय में चीन-सोवियत विरोध में वृद्धि के कारण चीन यह सोचने पर बाध्य हो गया कि अमरीका तथा सोवियत संघ में सामान्यीकरण चीन को कमजोर तथा अलग-थलग करने की गुप्त चेष्टा थी। परिणामस्वरूप उन्होंने दीतां को “सोवियत संघ की ऐसी चाल बताया जिसके पर्दे में सोवियत लोग विश्व आधिपत्य की योजना बना रहे थे।” जब सातवें दशक के शुरू में चीन-अमरीका सामान्यीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई तो चीनी नेताओं ने इस विकास का वर्णन करने के लिए दीतां शब्द के प्रयोग को अनुचित समझा।

इस तरह दीतां के सम्बन्ध में सोवियत, अमरीकी तथा चीनी परिकल्पनाएं एक दूसरे से विभिन्न थीं। परन्तु अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के बहुत से विद्वानों में यह विचार साझा था कि आर्थिक सम्बन्धों, राजनीतिक समस्याओं का ज्ञान, युद्ध को रोकने आदि में सहयोग स्थापित करने के लिए कदम उठाकर शीत युद्ध के तनावों को कम करना ही दीतां था। यह शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शांतिपूर्ण प्रतियोगिता के विचार पर आधारित था।

1970-80 के तनाव शैथिल्य के प्रादुर्भाव के कारण

(Causes for the Emergence of Detente of 1970-80)

ऐसे बहुत से कारण थे जिन्होंने महाशक्तियों को शीत युद्ध के तनावों में शैथिल्य लाने तथा दीतां को स्वीकार करने के लिए दोनों उच्च शक्तियों को बाध्य किया। दोनों महाशक्तियों के बीच दीतां के प्रादुर्भाव के निम्नलिखित मुख्य कारण थे-

  1. क्यूबाई मिसाइल संकट

    1962 का क्यूबाई मिसाइल संकट, जिसने दोनों महाशक्तियों को युद्ध के कगार पर ला खड़ा किया था, ने दोनों देशों को आपस में मित्रतापूर्ण तथा सहयोगपूर्ण सम्बन्धों को कायम करके शीत युद्ध के क्षेत्र को सीमित करने की आवश्यकता के प्रति जागरूक कर दिया।

  2. परमाणु युद्ध का भय

    परमाणु युद्ध का भय, जो अमरीका तथा सोवियत संघ के बीच अन्धाधुन्ध शस्त्र दौड़ के कारण पैदा हो गया था, ने भी शीत युद्ध के विरुद्ध विचारों को शक्ति दी। परमाणु क्लब में चीन के प्रवेश के दोनों महाशक्तियों को शीत युद्ध द्वारा पैदा किए जा सकने वाले सम्भावित युद्ध के प्रति डरा दिया।

  3. चीन तथा सोवियत मतभेदों में वृद्धि

    चीन-सोवियत संघ के बीच मतभेदों की वृद्धि में भी सोवियत संघ की दीतां के पक्ष में प्रभावित किया।

  4. अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सोवियत संघ तथा सोवियत गुट की भूमिका में वृद्धि

    अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सोवियत संघ तथा समाजवादी गुट के बढ़ते प्रभाव ने अमरीका कोदीतां के पक्ष में प्रभावित किया।

  5. सोवियत संघ द्वारा सहअस्तित्व की नीति

    खुश्चेव के युग में सोवियत विदेश नीति में परिवर्तन ने- जब सोवियत संघ खुले रूप से “युद्ध नहीं’ के पक्ष तथा “शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व” के पक्ष में था, भी दीतां के बारे में विचारों को प्रभावित किया।

  6. नाम की भूमिका

    अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में गुट-निरपेक्षता के विकास तथा भारत जैसे गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों को किसी भी साम्यवादी तथा गैर-साम्यवादी देशों के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध कायम करने में मिली सफलता ने भी दोनों राष्ट्रों को इस असंगत अवधारणा की, कि “साम्यवादी तथा लोकतान्त्रिक राष्ट्रों के बीच मित्रता तथा असहयोग नहीं हो सकता, “व्यर्थता का अनुभव करवा दिया। इससे उनमें मित्रतापूर्ण सहयोग की भावना के विकास को प्रोत्साहन मिला।

  7. वियतनाम युद्ध में अमरीकी असफलता

    वियतनाम में अमरीका के निरन्तर बढ़ते हस्तक्षेप तथा वियतनाम युद्ध की व्यर्थता के बारे में अमरीका के अनुभव ने भी अमरीकी नेताओं को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उचित साधन के रूप में दीतां को स्वीकार करने के विचार को प्रभावित किया।

इन सभी कारणों ने दोनों महाशक्तियों को 1963 ई. से 1970 ई. तक के वर्षों में दीतां को स्वीकार करने तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शीत युद्ध को स्थगित करने के विचार को बहुत प्रभावित किया।

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