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नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO)

नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था- अर्थ, आवश्यकता, मुख्य विचार एवं सम्बंधित वाद विवाद

(NIEO and its Significance)

1970 के दशक के प्रारम्भ से ही नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का विषय अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का मुख्य विषय बना हुआ है, जिसमें विकासशील राष्ट्र या तृतीय विश्व एक तरफ तथा विकसित देश भाव पहले दोनों विकसित विश्व दूसरी तरफ हैं। विकासशील राष्ट्र या तृतीय विश्व अपनी निर्धनता, अभाव तथा अल्प-विकास की समस्या को हल करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की पुनः संरचना को ही केवल साधन मानते हैं। केवल इसकी सहायता से ही विद्यमान नव-उपनिवेशवाद के इस युग को जिसमें विकसित राष्ट्र विकासशील तृतीय विश्व के राष्ट्रों की नीतियों तथा अर्थ-व्यवस्थाओं पर नियन्त्रण रखने के लिए अपनी श्रेष्ठ आर्थिक स्थिति तथा विकसित तकनीक का सफलतापूर्वक प्रयोग कर रहे हैं, समाप्त किया जा सकता है। इसके विपरीत विकसित राष्ट्र वर्तमान व्यवस्था में किसी भी प्रकार का गहन परिवर्तन करने के पक्ष में नहीं क्योंकि इससे अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उनकी भूमिका कम हो जाएगी तथा उनकी अर्थ-व्यवस्थाओं पर बोझ पड़ जायेगा। उनका कहना है कि विद्यमान व्यवस्था में विभिन्न सुधारों और सुनियोजित तथा व्यवहारिक कदमों से अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था में वांछित प्रभाव पैदा किए जा सकते हैं। वे वर्तमान संस्थाओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विभिन्न उपकरणों को कम विकसित राष्ट्रों के आर्थिक विकास के लिए श्रेष्ठ उपलब्ध साधन मानते हैं। दृष्टिकोण तथा विचारों के इस मतभेद ने, विकसित तथा विकासशील राष्ट्रों के सम्बन्धों में नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के मुद्दे को अत्यधिक महत्वपूर्ण (समस्या) विषय बना दिया है।1970 के दशक के प्रारम्भ से ही नीओ (NIEO) पर बहस ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक नया अध्याय खोल दिया है। वास्तव में, अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के समकालीन स्वरूप में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में शक्ति तथा सुरक्षा के अध्ययन के स्थान, विकास, कल्याण, राष्ट्रों के बीच आर्थिक विकास अध्ययन का महत्व गुणात्मक परिवर्तन है। आज भी विकसित राज्यों का आर्थिक विकास तथा कम-विकसित राष्ट्रों का दृढ़ संकल्प तथा संघर्ष अग्रज के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का एक मुख्य केन्द्र बना हुआ है।

नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था क्या है?

(What is NIEO?)

विद्यमान अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था को, जो अपनी सभी विशेषताओं के साथ कम-विकसित तृतीय विश्व की हानि की चिन्ता न करके विकसित राष्ट्रों की आवश्यकताओं तथा हितों को पोषित करती है। समाप्त करने के लिए बनाई गई एक धारण है। इसका लक्ष्य विकसित राष्ट्रों के लिए एक आचार संहिता बनाकर तथा कम-विकसित राष्ट्रों के उचित अधिकारों को मानकर अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को सबके लिए समान तथा न्यायपूर्ण बनाना है। यह तीसरे विश्व के नये सम्प्रभु राष्ट्रों पर विकसित राष्ट्रों द्वारा किए जा रहे नव-उपनिवेशीय नियन्त्रण को समाप्त करने का एकमात्र साधन है। इसका लक्ष्य विकसित राष्ट्रों में हो रहे अभूतपूर्व विकास तथा पीछे रह जाने वाले विकासशील देशों के बीच निरन्तर बढ़ते हुए अन्तर को नियन्त्रित करना है। यह विकसित तथा कम-विकसित राष्ट्रों के सम्बन्धों के बीच आर्थिक दृष्टिकोण से विद्यमान असन्तुलनों तथा असमानताओं को दूर करने का प्रयत्न है। यह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार, अर्थव्यवस्था, तकनीकी ज्ञान तथा अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं पर विकसित देशों के एकाधिकारिक नियन्त्रण को समाप्त करने का प्रण है। साधारण शब्दों में, नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की विद्यमान अव्यवस्था को दूर का एक मार्ग है। इस अव्यवस्था द्वारा थोड़े से विकसित राष्ट्र के लोगों द्वारा कम-विकसित राष्ट्रों पर अपना नव-उपनिवेशीय नियन्त्रण बनाए रखा जा रहा है। नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था(NIEO) का अर्थ है विद्यमान अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तथा संस्थाओं में पाई जाने वाली असमानताओं तथा असन्तुलनों को समाप्त करना। इससे विश्व की आय तथा साधनों का न्यायपूर्ण तथा समान बंटवारा करवाने का प्रयल किया जाना है ताकि दोनों विकसित विश्व तथा तृतीय विश्व के देश साथ-साथ विकास कर सकें।

नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की आवश्यकता

(Need of NIEO)

नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की जोरदार मांग का प्रादुर्भाव, युद्धोत्तर काल की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में गम्भीर तथा महान् परिवर्तनों के कारण हुआ। पहले-पहल यूरोप की दुर्बल व्यवस्था, दो महाशक्तियों का उदय, शीत युद्ध का प्रादुर्भाव, साम्राज्यवाद विरोधी तथा उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन, उपनिवेशों को समाप्त करने की तेज प्रक्रिया का प्रादुर्भाव आदि विश्व के राजनीतिक मानचित्रों में तेजी से होने वाले परिवर्तन ऐसे परिवर्तनों के लिए उत्तरदायी बने। बाद में एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमरीका में उदय होने वाले नए राज्यों में नई जागृति दीतां का प्रादुर्भाव तथा इसका विस्तार, यूरोपीय राष्ट्रों द्वारा आर्थिक सुधार, भारत तथा ब्राजील जैसे स्थानीय तिमिंगलो का उत्थान, (भूतपूर्व) सोवियत संघ तथा अमरीका के बीच सीधे टकराव से सीमित टकराव की स्थिति में परिवर्तन तथा बहुत से अन्य कारणों से, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में नए आर्थिक निर्णय सामने आए। नए राज्यों-तृतीय विश्व, द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास में तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उचित भूमिका निभाने की वचनबद्धता ने भी अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में बहुत परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। 1970 के दशक के प्रारम्भ में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में आर्थिक विषय ही प्रमुख विषय बन गये थे। लगभग इसी समय अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक नई प्रकार की स्थिति पैदा हो गई थी। इसने शीत युद्ध काल के तथाकथित आदेशों की विचारधारा के महत्व को नगण्य कर दिया तथा विकास तथा अविकास के आर्थिक आधारों पर ध्यान केन्द्रित किया। ऐसे समय में पूर्व के समाजवादी तथा पश्चिम के पूँजीवादी देशों के बीच विरोध का स्तान एक ओर भूतपूर्व उपनिवेशीय एवं अविकसित दक्षिणी गोलार्द्ध के निर्धन देशों अर्थात् तृतीय विश्व तथा दूसरी ओर उत्तरी गोलार्द्ध के तकनीकी तथा आर्थिक रूप से विकसित साधन सम्पन्न देशों अर्थात् दो विकसित देशों के बीच विरोध ने ले लिया। इस तरह नई आर्थिक जागृति तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के कारण विकसित तथा कम-विकसित देशों के बीच विरोध, दोनों ने मिलकर नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यव्यवस्था के दृष्टिकोण से उत्तर-दक्षिण विरोध का रूप धारण कर लिया।

नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की मांग को प्रभावित करने वाले तत्त्व

(Factors that have influenced the Demand for NIEO)

नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) की मांग का प्रादुर्भाव कई एक तत्त्वों के कारण हुआ। वास्तव में विकसित तथा विकासशील देशों की समस्या तथा विकासशील देशों की गरीबी की समस्या ने ही नीओ की मांग को एक प्रमुख मांग तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा बनाया मुख्यरूप से यह तत्त्व हैं : उत्तर-दक्षिण भाव विकसित उत्तर तथा कम-विकसित दक्षिण में अंतर, दोनों में निरन्तर बढ़ता हुआ अन्तर, अन्तर्राष्ट्रीय निर्भरता के युग में दक्षिण की निर्भरता, उत्तर का दक्षिण पर नव-उपनिवेशीय नियन्त्रण, विश्व आय पर विकसित देशों का भारी कब्जा, विश्व साधनों का विकसित देशों द्वारा किया जाने वाला भारी शोषण, बहुराष्ट्रीय निगमों की अनचाही भूमिका, WTO की सीमाएं तथा उत्तर शीत युद्ध में आर्थिक सम्बन्धों की बढ़ी हुई महत्ता आदि। (इन तत्वों की व्याख्या के लिए पिछले दो अध्यायों को देखें)।

नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रति प्रमुख विचार तथा धारणाएं

(Major Themes and Issues of New international Economic Order)

नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की अवधारणा में कई विपय तथा समस्याएं शामिल हैं, जिन्हें अल्पविकसित राष्ट्र सर्वव्यापक समझौता वार्ताओं, विशेषतया उत्तर-दक्षिण वार्ता द्वारा निपटाने के इच्छुक हैं। नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) की अवधारणा के निम्नलिखित मुख्य विषय हैं :

  1. विश्व के आर्थिक सम्बन्धों की पुनः संरचना

    नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) का पहला विषय समान तथा न्यायोचित आधार पर विश्व के आर्थिक सम्बन्धों की पुनः संरचना की आवश्यकता है। विद्यमान आर्थिक सम्बन्धों को विकासशील राष्ट्र, ‘अव्यवस्थापूर्ण तथा असंगत’ मानते हैं। विद्यमान आर्थिक व्यवस्था के शोषणात्मक स्वरूप को अनुभव करके, विकासशील राष्ट्र समानता, अन्तःनिर्भरता, परस्पर लाभ तथा प्रगति के लिए सभी राष्ट्रों के काम करने के अधिकार का समर्थन करते हैं तथा विकास एवं विश्व सम्पत्ति तथा समृद्धि में उचित योगदान के अवसर पर आधारित एक नई आर्थिक व्यवस्था की रचना की वकालत करते

  2. संस्थागत परिवर्तन

    समकालीन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के जमघट में, विकसित राष्ट्रों की तुलना में अल्पविकसित राष्ट्रों की आवश्यकताओं की तथा उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए दो संस्थानिक परिवर्तनों को आवश्यक माना गया है। पहले का सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों को निर्देशित करने वाले विद्यमान नियम तथा अधिनियमों की पुनः संरचना से है तथा दूसरे का सम्बन्ध संस्थाओं के निर्माण तथा राष्ट्रों के मध्य सहयोग की स्थिति कायम करने से है। इस समय अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्धों का निर्देशित करने वाले नियम तथा इन नियमों को लागू करने वाली संस्थाएं, विकसित राष्ट्रों के हितों तथा आवश्यकताओं का पक्ष लेने वाली हैं। विश्व बैंक, अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) “बौद्धिक सम्पत्ति’ (Intellectual Property), एकस्व (Patent) तथा मुद्रण अधिकार को प्रशासित करने वाली परम्पराओं तथा शेष आर्थिक संस्थाओं में विकसित राष्ट्रों की प्रमुखता है। GATT भी धनी तथा विकसित राष्ट्रों की अधिक सहायता है। Urugua Round भी विकसित देशों के नियन्त्रण में ही चलता रहा। इसलिए नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था द्वारा इन नियमों तथा संस्थाओं की पुनः संरचना की जाने की मांग की जाती है जो बिना किसी भेदभाव के निष्पक्ष रूप से सभी के लिए लाभदायक हो ।

  3. अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तथा व्यापार में संरक्षणवाद की समाप्ति

    नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) की अवधारणा का अर्थ है, अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का व्यापार में विकसित राष्ट्रों द्वारा बनाई गई संरक्षणात्मक व्यापार तथा नीतियों की विद्यमान व्यवस्था को समाप्त करना। विभिन्न संरक्षणात्मक व्यापार निर्णयों तथा आर्थिक नीतियों के द्वारा विकसित राष्ट्र इस स्थिति में हैं कि वे दूसरे राष्ट्रों के निर्यात पर मनचाहे, अंकुश लागू कर सकें तथा विश्व को पूर्णरूप से प्रतिद्वन्द्वात्मक बना दें जो विकासशील राष्ट्रों के लिए प्रत्यक्ष रूप से अत्यधिक हानि हो। आयात तथा निर्यात पर, यहां तक कि GATT के नियमों के विरुद्ध भी, मनचाही सीमाएं साधारणतया बनाई जाती हैं तथा विकसित राष्ट्र इनका प्रयोग भी करते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के इतिहास का विवरण इस दोषारोपण का प्रमाण है। आस्ट्रेलिया, कनाडा, फ्रांस, ब्रिटेन, अमरीका, स्वीडन ने विकासशील राष्ट्रों द्वारा किए गए जूतों के निर्यात पर नए कोटे तथा कथित “व्यवस्था पूर्ण बाजार प्रबन्ध लाद दिये हैं।” “बहु-रेशा प्रबन्ध” की एक नई आचार संहिता द्वारा 1981 से लेकर सारे समय को शामिल थे, जिन्होंने निर्यात की अभी शुरूआत ही की थी। विकासशील राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर इस तरह की संरक्षणात्मक नीतियों तथा व्यापार के दुष्परिणामों का विश्लेषण करते हुए, अपने भाषणों में विश्व बैंक के एक अध्यक्ष मि, मैकनमारा ने एक बार कहा था कि, “इन सभी प्रतिबन्धात्मक कार्यवाहियों का प्रारम्भिक परिणाम विकासशील राष्ट्रों के कपड़ा निर्यात तथा कपड़ा उद्योग के विकास को 1967 से 1976 तक के समय में 16% की तुलना में 5% प्रति वर्ष तक सीमित करना होगा। यूरोपीय समुदाय तथा अमरीका ने इस्पात के सम्बन्ध में विशिष्ट संरक्षणात्मक कदम उठाए हैं जो उन विकासशील राष्ट्रों के लिए, जिन्होंने अभी-अभी लोहे का निर्यात शुरू किया है, बड़ी गम्भीर कठिनाइयाँ खड़ी कर देंगे। इंग्लैण्ड ने दो विकासशील राष्ट्रों के टेलीविजन सेटों पर कोटा व्यवस्था लागू की है तथा इसी तरह की कार्यवाही की धमकी अमरीका तथा कई अन्य राष्ट्र दे रहे हैं।” इस तरह का संरक्षणात्मक व्यापार तथा नीतियां विकासशील राष्ट्रों के लिए तनाव तथा हानि का कारण बन गई हैं। उनके आयात के बिल तो बढ़ गये हैं जबकि उनके निर्यात के बिल स्थिर हो गए हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि संरक्षणात्मक व्यापार तथा अर्थव्यवस्था को समाप्त किया जाए। यही नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य है।

  4. पूंजी स्रोतों का हस्तांतरण

    नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था(NIEO) का एक अन्य उद्देश्य महत्वपूर्ण साधनों का वास्तविक रूप से हस्तांतरित करना तथा इसके साथ-साथ इन साधनों को इस तरह उपयोगी कार्यों में लगाने के ज्ञान का भी आदान-प्रदान करना जिससे अल्पविकसित राष्ट्र न केवल अपने लिए ही अधिक उत्पादन करने में सक्षम हो सकें बल्कि दूसरे देशों को निर्यात करने के भी योग्य हो सकें। यह हस्तांतरण या तो व्यक्तिगत निवेश से या द्विपक्षीय या बहुपक्षीय दोनों प्रकार की एजेन्सियों द्वारा ठीक ढंग से दिलाई गई आर्थिक सहायता द्वारा ही हो सकता है। तृतीय विश्व के देशों के बड़े-बड़े ऋणों को समाप्त किया जाए तथा विकसित राष्ट्रों के कुल शुद्ध उत्पादन का7% भाग विकासशील राष्ट्रों के विकास के लिए अनुदान के रूप में दिया जाए तो यह तृतीय विश्व की महत्वपूर्ण आवश्यकताओं का निपटारा कर सकता है।

  5. तकनीकी हस्तांतरण

    आर्थिक विकास में तकनीकी ज्ञान प्रमुख कार्य करता है। विकासशील राष्ट्रों द्वारा अधिक मात्रा में आर्थिक उन्नति तथा विकास न कर पाना तथा उनके कम विकास का प्रमुख कारण उनको उपलब्ध निम्नस्तरीय तकनीक है। अधिक श्रेष्ठ उत्पादन के लिए विकसित तकनीक का होना आवश्यक है। उत्पादन के दूसरे तत्वों के साथ-साथ इसका योगदान बहुमुखी विकास के लिए आवश्यक है। विकसित तकनीक की प्राप्ति के लिए विकासशील राष्ट्र अपने को विकसित राष्ट्रों पर निर्भर पाते हैं। विकसित राष्ट्र अन्तर्राष्ट्रीय एकस्वों (Patents) तथा संरक्षणात्मक नीतियों तथा उपायों द्वारा विकसित तकनीकी ज्ञान तथा निपुणता पर वास्तविक एकाधिकार रखे हुए हैं। वे इन्हें बिना किसी अनुकूल वचनबद्धता तथा विभिन्न इच्छित व्यापार तथा आर्थिक समझौते के,विकासशील राष्ट्रों को देने के लिए तैयार नहीं होते। विकासशील राष्ट्रों के दृष्टिकोण से उनकी ये मांगें प्रायः अनुचित होती हैं। नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) तृतीय विश्व के लिए विकसित राष्ट्रों से विकासशील राष्ट्रों को विकसित तकनीक के स्थानान्तरण को व्यवस्थित तथा सुविधाजनक बनाना चाहती है।

  6. बहुराष्ट्रीय निगमों के बढ़ते खतरे पर नियन्त्रण

    आजकल, विभिन्न बहु-राष्ट्रीय निगम अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, व्यापार, तकनीक तथा औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्रों में बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं। वे विकसित तकनीकी ज्ञान से सम्बन्धित लगभग सभी अन्तर्राष्ट्रीय एकस्वों पर नियन्त्रण बनाए हुए हैं। वे विकसित राष्ट्रों के अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तथा व्यापार तथा इसके साथ-साथ तीसरे विश्व की अर्थव्यवस्थाओं तथा नीतियों को निर्देशित करने तथा उन पर नियन्त्रण रखने के उपकरण हैं। विकसित राष्ट्र प्रायः विकासशील राष्ट्रों को बहु-राष्ट्रीय निगमों के साथ सहयोग को बढ़ा कर उनके माध्यम से विकसित तकनीक का आयात करने के लिए बाध्य करते हैं। इस ढंग को मुख्य तकनीक तथा व्यवस्थापन विशेषज्ञ के स्थानान्तरण के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण ढंग समझा जाता है। लेकिन इसकी प्राप्ति के लिए विकासशील राष्ट्रों पर ऊँचे मूल्यों में भारी बोझ पड़ जाते हैं। बहु-राष्ट्रीय निगम (MNCs) विकसित तकनीक की पूर्ति के लिए विकासशील राष्ट्रों से भारी शुल्क लेते हैं। अपने निर्धन आर्थिक साधनों तथा निर्धनता के कारण विकासशील राष्ट्रों के लिए बहुराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से तकनीक खरीदना बड़ा महंगा पड़ता है। अपनी घरेलू मण्डियों, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों तथा निर्णयों में बहु-राष्ट्रीय निगमों के हस्तक्षेप का डर भी उन्हें बहु-राष्ट्रीय निगमों के साथ सम्बन्ध रखने से रोकता है। अन्तर्राष्ट्रीय अर्थ-व्यवस्था में बहुराष्ट्रीय निगमों की भूमिका नकारात्मक तथा हानिकारक रही है क्योंकि यह विकसित तथा विकासशील राष्ट्रों के बीच अन्तर को बनाए रखने तथा बढ़ाने का साधन बनी है। यह हमेशा धनी राष्ट्रों का निर्धन राष्ट्रों पर नव-उपनिवेशीय नियन्त्रण बढ़ाने का साधन रही है। इन्होंने बहुत से विकासशील राष्ट्रों में निर्वाचित सरकारों का तख्ता पलटने जैसी गन्दी भूमिका निभाई है। वास्तव में, अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों में बहु-राष्ट्रीय निगमों की भूमिका बहुत हानिकारक रही है। विकासशील राष्ट्र बहु-राष्ट्रीय नियमों के जोखिम से छुटकारा पाना चाहते हैं और इसके लिए वे नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के एक भाग के रूप में इन निगमों के लिए एक आचार-संहिता का निर्माण करने की वकालत करते हैं। पॉल ए. थार्प लिखते हैं, “नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का आवश्यक भाग है नीतियों का एक समूह जो बहु-राष्ट्रीय निगमों की एकाधिकारिक कार्यवाहियों को विशेषतया व्यापार में दबाने के लिए बनाया गया हो।”

  7. वस्तुउत्पादकों के हितों को मान्यता तथा संरक्षण

    व्यापक अन्तः निर्भरता के इस युग में वस्तु उत्पादक, अधिकतर विकासशील राष्ट्र, उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जितनी औद्योगिक तथा विकसित राष्ट्र निभाते हैं। तथापि विद्यमान अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में वस्तु उत्पादकों को कम-से-कम महत्व दिया जाता है। अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए नियमों की कमी के कारण वे विकसित राष्ट्रों की दया पर जीने के लिए बाध्य हो जाते हैं। विकासशील राष्ट्रों की अपनी वस्तुओं के निर्यात के लिए विकसित राष्ट्रों पर निर्भरता, अन्तर्राष्ट्रीय मंडियों में अन्धाधुंध अनियन्त्रित तथा खुली प्रतियोगिता तथा विकसित राष्ट्रों की व्यापार नीतियों में संरक्षणवाद सभी मिलकर तृतीय विश्व के भाग्य को बहुत निर्धन तथा निष्फल बना देते हैं। विकासशील राष्ट्र अपने व्यापारिक हितों के संरक्षण के लिए व्यवहार संहिता चाहते हैं। विकासशील राष्ट्रों द्वारा निर्यातित कच्चे माल की वस्तुओं के मूल्य बढ़ाने तथा उन्हें स्थिर करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समझौते नई अर्थव्यवस्था का मुख्य विषय है।

  8. अन्तर्राष्ट्रीय निर्यात में उच्च तथा निर्धारित भाग तथा GATT व्यवस्था का पूर्ण संशोधन

    नई अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की यह अन्य महत्वपूर्ण मांग है धनी राष्ट्रों की निर्यात मंडियों तक अच्छी पहुँच प्राप्त करना। विद्यमान व्यवस्था अनुचित रूप से गरीब राष्ट्रों की तुलना में धनी राष्ट्रों के अनुकूल है। विकसित तथा विकासशील राष्ट्रों के बीच बहुत बड़े आर्थिक तथा औद्योगिक अन्तर के कारण GATT तथा UNCTAD वांछित प्रभाव तथा अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक तथा व्यापार व्यवस्था में परिवर्तन करने में असफल रहे हैं। विकसित तथा विकासशील देशों के बीच अनियमित तथा खुली प्रतियोगिता अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक सम्बन्ध में अत्यधिक हानिकारक पहलू हैं क्योंकि इसने सदैव कम विकसित राष्ट्रों के स्थान पर विकसित राष्ट्रों का साथ दिया है। तीसरे विश्व के देश नई अर्थ-व्यवस्था के एक भाग के रूप में सभी अन्तर्राष्ट्रीय निर्यात तथा सीमा शुल्क अधिमानों को अपने पक्ष में करने के लिए अपने निश्चित निर्धारित भाग की मांग करते हैं। वे यह तर्क देते हैं कि विकासशील देशों के लिए सीमा शुल्क अवरोधों को समाप्त करने से कई लाभ होंगे। अधिक विदेशी मुद्रा की कमाई के साथ-साथ विकासशील राष्ट्र अधिक मात्रा में पूंजीगत वस्तुओं तथा कच्चे माल का आयात भी कर सकेंगे ताकि वे तीव्र गति से अपनी उत्पादन आय को रोजगार की सुविधाओं को बनाए रख सकें और इस प्रकार की उन्नति की ओर अग्रसर हो सकें।

  9. आत्मनिर्भरता

    अन्त में नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) का एक बड़ा उद्देश्य आत्मनिर्भरता है। विकासशील राष्ट्र अविकासशीलता की ओर जाना चाहते हैं। वे आत्मनिर्भर होना चाहते हैं-अर्थात् अपनी जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के योग्य होना चाहते हैं। केवल आत्मनिर्भरता ही अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उन्हें प्रभावशाली तथा समानता के स्तर पर साझेदार बना सकती है। विकासशील राष्ट्र इस बात को अच्छी प्रकार जानते है कि दृढ़ निश्चय तथा प्रयत्नों से ही वे इस उद्देश्य को प्राप्त कर सकते हैं। तथापि वे विकसित राष्ट्रों पर अपनी निर्भरता के प्रति भी सचेत हैं। इसे समाप्त करने के लिए वे एक नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था बनाना चाहते हैं ताकि धनी राष्ट्रों के आधिपत्य वाली विद्यमान अर्थव्यवस्था को समाप्त किया जा सके।

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