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1857 की क्रान्ति की असफलता के कारण

1857 की क्रान्ति के असफलता के कारण

निःसन्देह सन् 1857 की महान क्रान्ति असफल हो गई, परन्तु इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि इसने कुछ काल के लिये भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के आधार को ही हिला दिया। यह क्रान्ति अनेक कारणों से असफल हो गई। इन कारणों में निम्नलिखित प्रमुख हैं-

  1. समय से पूर्व विद्रोह का आरम्भ होना

    नाना साहब के प्रयासों के परिणामस्वरूप भारत में विद्रोह आरम्भ करने क तिथि 31 मई 1857 निश्चित की गई थी। यदि सम्पूर्ण देश में इस निश्चित तिथि को विद्रोह आरम्भ होता तो इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि अंग्रेजों के लिये इस विद्रोह का दमन करना कठिन हो जाता। परन्तु दुर्भाग्यवश चर्बी वाले कारतूसों के कारण यह समय से कहीं पूर्व ही आरम्भ हो गया। इस प्रकार एक तो तैयारियाँ भी अधूरी रह गई तथा कोई भी कार्य संगठित रूप से न हो सका। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के शब्दों में, “जैसा कि घटनाक्रम से सिद्ध होता है कि मेरठ की घटना ने विद्रोह को आरम्भ करके ब्रिटिश राज को उस बर्बादी से बचा लिया जिसकी योजना नाना साहब तथा उसके सहयोगियों ने बनाई थी। इसने विद्रोह की समस्त योजना को पलट दिया, इसको संगठित प्रयासों से वंचित कर दिया और अनेक स्थानों पर स्थानीय नेता यह नहीं समझ पाये कि वे क्या करें?

  2. विद्रोह का अखिल भारतीय रूप होना

    सन् 1857 की असफलता का एक अन्य कारण यह था कि विद्रोह अखिल भारतीय रूप धारण न कर सका तथा यह कुछ ही प्रदेशों तक सीमित रहा। उत्तर में पंजाब, सिन्ध तथा राजस्थान आदि प्रदेशों ने इसमें किसी प्रकार का भाग नहीं लिया।। इस प्रकार अंग्रेज जहाँ विद्रोह हो गया था, आक्रमण करने में सफल हो गये। यदि पंजाब में थोड़ी बहुत हलचल हो जाती तो अंग्रेजों को दिल्ली को पुनः प्राप्त करना कठिन हो जाता। इस प्रकार विद्रोह का सम्पूर्ण देश में एक साथ न फैलना भी इसकी असफलता का एक प्रमुख कारण बना। यदि यह विद्रोह सम्पूर्ण देश में एक साथ फैलता तो संभव था कि अंग्रेजों को यहाँ से अपना बिस्तर गोल करना पड़ जाता।

  3. साधनों का अभाव

    क्रान्तिकारियों की अपेक्षा अंग्रेजों के साधन कहीं अधिक श्रेष्ठ तथा सुदृढ़ थे। अंग्रेजों का सौभाग्य था कि सन् 1856 ई० में क्रीमिया का युद्ध समाप्त हो गया तथा अब वे अपने विस्तृत साम्राज्य के साधनों को भारत में लगा सकते थे। उन्हें सैनिकों, युद्ध सामग्री तथा खाद्य की किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी इसके विपरीत क्रांतिकारियों के पास इन सभी का पूर्ण अभाव था। सर्वप्रथम तो उनके पास बन्दूकों की संख्या अत्यन्त कम थी तथा जो थी वे भी बारूद तथा कारतूस से समाप्त हो जाने पर बेकार हो गई। फलस्वरूप क्रान्तिकारियों को तलवारों तथा भालों से ही लड़ना पड़ा, परन्तु इस प्रकार वे कब तक अंग्रेजी सेना का सामना कर सकते थे जो कि आधुनिक शस्त्र से सुसज्जित थी। उनकी सैन्य सामग्री तैयार करने वाली फैक्टरियाँ दिन रात गोला बारूद तैयार कर रही थीं। फिर कैसे और कब तक क्रान्तिकारी अपने सीमित साधनों से अंग्रेजों का सामना कर सकते थे। एक विद्वान का कथन है, “अंग्रेजों की जन तथा धन की शक्ति मात्र से विद्रोह का दमन हो सका ।”

  4. अंग्रेजों को भारतीय सहायता

    अत्यन्त दुःख का विषय यह है कि जिस शक्ति द्वारा अंग्रेजों ने इस क्रान्ति का दमन किया वह उन्हें भारत से ही प्राप्त हुई। भारत के अनेक देशी शासकों ने अंग्रेजों का समर्थन करते हुए उन्हें पूरी-पूरी सहायता दी। कुछ देशी नरेश मूक दर्शक बने रहे तथा उन्होंने क्रान्तिकारियों की किसी प्रकार की सहायता नहीं की। होल्कर तथा सिन्धिया अंग्रेजों के प्रति वफादार बने रहे। नाभा, पटियाला तथा कपूरथला आदि के सिक्ख नरेशों ने पूर्ण रूप से धन और सैनिक सहायता प्रदान की। ग्वालियर तथा हैदराबाद के शासकों ने भी इस क्रान्ति के दमन में अंग्रेजों के साथ कन्धा मिलाकर कार्य किया। यदि इन भारतीय नरेशों ने भी विद्रोहियों का साथ दिया होता तो इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि भारतीयों को 1857 ई० में ही सफलता मिलना अत्यन्त कठिन था। इसके विपरीत अंग्रेजों का उद्देश्य एक ही था और वह था भारत में प्रत्येक स्थित में अंग्रेजी साम्राज्य को बचाना।

  5. विशेष योजना तथा संगठन का अभाव

    क्रान्तिकारियों में विशेष योजना और संगठन का भी अभाव था। उनमें से किसी को भी ज्ञान नहीं था कि कहाँ पहले आक्रमण करना है और कहाँ बाद में। वे एक अनियन्त्रित भीड़ के समान थे, जिसका जिधर मुँह हुआ उधर ही चल दिये। संगठन का अभाव होने के कारण वे संगठित रूप से कोई भी कार्य करने में असमर्थ थे। उनमें कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसका सभी क्रान्तिकारियों पर प्रभाव हो तथा जिसके आदेशों को सभी क्रान्तिकारी स्वीकार करने को तैयार हों। इस प्रकार उनमें एक संगठित सेना की शक्ति का अभाव था।

  6. कुशल सेनापतियों का अभाव

    दुर्भाग्य से क्रान्तिकारियों के पास कोई योग्य सेनापति भी नहीं था। निःसन्देह नाना साहब, तात्या टोपे तथा रानी लक्ष्मी बाई सभी अत्यन्त साहसी तथा वीर थे परन्तु उनमें लारेन्स, हेवलाक, निकल्सन तथा आउटरम जैसे अंग्रेज सेनापतियों की सैनिक प्रतिभा तथा युद्ध कौशल नहीं था। इस सम्बन्ध में डॉ० ईश्वरी प्रसाद का कथन है, “नेतृत्व संभालने के लिये बहादुर शाह बहुत वृद्ध था। सूबेदार बख्त खाँ तथा तात्या टोपे में आवश्यक सैनिक प्रतिभा अवश्य थी, परन्तु वे साधारण जनता में से थे, रानी लक्ष्मीबाई एक स्त्री थी तथा नाना साहेब पेशवा की राजधानी पूना से एक भगोड़ा था। इस सबका परिणाम यह था कि क्रान्तिकारियों की आक्रमण शक्ति में पर्याप्त कमी हो गई।”

  7. अंग्रेजों की संचार व्यवस्था को भंग करने का प्रयास करना

    क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों की संचार व्यवस्था को भंग न करके अपने युद्ध कौशल के अभाव को ही प्रदर्शित किया। यदि वे इस संचार व्यवस्था को भंग कर देते तो इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि अंग्रेजों के लिये स्थिति को संभालना बहुत कठिन हो जाता। इस नवीन आविष्कार के सम्बन्ध में ज्ञान का न होना भारतीयों को पर्याप्त महँगा पड़ा। यह संचार व्यवस्था तो अंग्रेजों के लिये एक वरदान सिद्ध हुई। इसके सम्बन्ध में लन्दन प्रकाशित पत्र ‘टाइम्स’ ने लिखा था, तार व्यवस्था आज जितनी लाभदायक सिद्ध हुई उतनी आविष्कृत होने के उपरांत से अब तक कम ही हुई है। आज भारत का प्रधान सेनापति इसके बिना एक पग भी आगे नहीं बढ़ सकता। इसने उसकी अधिक सेवा की।”

  8. सागर पर अंग्रेजों का नियन्त्रण

    अंग्रेजों का समुद्र पर आधिपत्य था। इससे भी क्रान्तिकारियों का दमन करने में उन्हें पर्याप्त सहायता मिली। इसकी सहायता से वे बिना किसी बाधा के अपने विशाल साम्राज्य से आवश्यक युद्ध सामग्री तथा एक लाख से भी अधिक सैनिक भारत में जुटाने में सफल हुये। एक आलोचक ने व्यंग्यपूर्वक कहा है कि यदि सम्पूर्ण भारत भी अंग्रेजों के हाथ से निकल जाता तो भी वे अपनी सामुद्रिक शक्ति से इस पर पुनः अधिकार कर सकते थे। क्रांतिकारियों के पास तो एक भी जहाज नहीं था जिससे कि इंग्लैण्ड से प्राप्त होने वाली सहायता को रोक सकते।

  9. अंग्रेजी कूटनीतिज्ञता

    डॉ० मजूमदार के अनुसार अंग्रेजों की कूटनीतिज्ञता जिससे उन्होंने भारतीयों को संगठित नहीं होने दिया, क्रांतिकारियों की असफलता का एक प्रमुख कारण था।

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