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1857 के विद्रोह का प्रारम्भ एवं विकास

1857 की क्रांति का प्रारम्भ एवं विकास

इस विषय पर दो मत नहीं हैं कि विद्रोह में पहल सैनिकों ने की। इस समय सैनिकों के प्रयोग के लिए नई एनफील्ड राइफलें आई थी। इनमें इस्तेमाल होने वाले कारतूसों के प्रश्न पर काफी सनसनी व घबराहट फैली हुई थी। इन कारतूसों पर एक चिकना कागज लगा हुआ था जिसे राइफल में डालने से पहले मुंह से काटना पड़ता था। यह कहा गया कि इस पर गाय और सुअर की चर्बी लगी है। भारत में सैनिकों को इनका प्रयोग करने में वह आपत्ति थी कि हिंदू गो-हत्या के विरुद्ध थे इसलिए गाय की चर्बी को छूना नहीं चाहते थे और मुसलमान सुअर को घृणा की दृष्टि से देखते थे इसलिए उसकी चर्बी को नहीं छूना चाहते थे। सरकार ने इस स्थिति में इस अफवाह की जाँच करवाई और यह बात सच पायी गई कि कारतूसों पर इस तरह की चर्बी लगाई गई थी। इस पर यह तर्क दिया गया कि वे कारतूस केवल भारत की जलवायु का इन पर असर देखने के लिए लाए गए हैं। परंतु इस प्रश्न पर असंतोष को देखते हुए सरकार इन कारतूसों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी।

परंतु उस समय सरकार की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व धार्मिक नीतियों से भारतीयों को ऐसा लगने लगा था कि उनके परंपरागत मूल्यों, धारणाओं व सामाजिक व्यवस्था पर प्रहार किए जा रहे हैं। लोग सोचने लगे थे कि अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए कुछ करना आवश्यक इस पृष्ठभूमि में सैनिकों के सरकारी विरोधी कारनामों से विद्रोह भड़क उठा।

10 मई को मेरठ में विद्रोह हुआ जब 85 सैनिकों ने चर्बी लगे कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। इन्हें दस साल के लिए कारावास की सजा हुई। उनके साथियों ने विद्रोह कर दिया, यूरोपीय अफसरों को मार डाला, कैदियों को स्वतंत्र करवाया और दिल्ली की ओर चल पड़े। यद्यपि मेरठ में 2200 सैनिक थे किन्तु इन विश्वेहियों का पीछा नहीं किया गया। जब बहादुरशाह ने नेतृत्व संभाला तो उनके नाम ने जादू-का सा असर किया। लाल किले के पहरेदार विद्रोहियों के साथ हो लिए और शहर में जितने अंग्रेज थे उन्हें या तो मार डाला गया या खदेड़ दिया गया। सरकारी कामकाज चलाने के लिए एक परिषद का गठन किया गया जिसमें दस सदस्य थे। इसमें सेना व नागरिक विभाग दों के प्रतिनिधि थें सभी आदेश सम्राट के नाम पर जारी किए गए तथा सिक्के भी उन्हीं के नाम पर ढाले गये। पड़ोसी राज्यों को पत्र भेजकर उन्हें फिरंगी सरकार का विरोध करने को कहा गया। जिन क्षेत्रों में विद्रोह हो गए थे वहाँ से सहायता प्राप्त करने की कोशिश की गई। भारत के राजाओं-महाराजाओं को बहादुरशाह ने संगठित होने के लिए कहा और यह प्रस्ताव रखा कि अंग्रेजों के नियंत्रण से मुक्ति के पश्चात् वे पद त्याग देंगे। बहादुरशाह के इस प्रकार के नेतृत्व प्रदान करेन का असर भी हुआ। स्थान-स्थान पर विद्रोह मुगलों के नाम पर हुए। मराठा सरदार नाना साहेब ने स्वयं को मुगल सम्राट का पेशवा घोषित कियां लखनऊ में भी बेगम हजरत महल ने मुगल सम्राट के नाम पर विद्रोह किया। इसका एक कारण यह था कि लोगों में मुगलवंश के प्रति निष्ठा थी और उनके नाम पर विद्रोह करने से अधिक समर्थन मिलने की आशा थी। वैसे भी किसी भी मुगल सम्राट को अंग्रेजों ने हराया नहीं था। बिना युद्ध किए ही सत्ता हथियां ली थी। इस कारण इस वंश के प्रति लोगों की सहानुभूति बनी हुई थी। अवध का नवाब भी अंग्रेजी सरकार की नीतियों का शिकार हो चुका था। शीघ्र ही मेरठ व दिल्ली के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में विद्रोह होने लगे, क्योंकि रिहा किए गए कैदियों, सिपाहियों व यात्रियों के माध्यम से मेरठ की घटनाओं की खबर द्रुतगति से फैल गई थी। जब यह समाचार फैला कि दिल्ली पर विश्वेहियों का अधिकार हो गया है तो सारी जनता में बहुत उत्तेजना फैल गई। 12 मई को ही दिल्ली के निकट हिन्डन व सिकंदराबाद में विद्रोह होले लगे।

उत्तर-पश्चिम प्रांत में बुलंदशहर, मेरठ, मुजफ्फरनगर तथा सहारनपुर जिलों पर शोधकार्य हुआ। बुलंदशहर मध्य दोआब तथा रुहेलखंड के मध्य स्थित था। इसलिए इसे विद्रोह के पहले झटकों का सामना करना पड़ा। यहा मालगढ़ का जमींदार मोहम्मद वालीदाद खाँ नेता के रूप में उभरा। 1824 में उसके पिता की मृत्यु के समय काफी सम्पत्ति सरकार ने हथिया ली थी। इस प्रकार उसे ब्रिटिश सरकार की राजस्व नीति व कानूनों का शिकार होना पड़ा था। 13 मई को उसे बहादुरशाह के दरबार में बुलाया गया था और जमुना पार के क्षेत्र में अपनी सत्ता स्थापित करने का आदेश दिया गया था। 21 मई को बुलंदशहर के थाने पर हमला किया गया। कुछ ही दिनों में सारे दोआब क्षेत्र में विद्रोह होने लगे तथा बिजनौर, मुरादाबाद, मुजफ्फर तथा सहारनपुर के आसपास के इलाके इसकी लपेट में आ गए। वह उल्लेखनीय है कि वह सारा क्षेत्र बहुत घनी आबादी वाला और अत्यधिक उपजाऊ था। जनचेतना व प्रतिक्रिया का जायजा लेने के लिए यहाँ मेरठ की तहसील में हुई घटनाओं का अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है।

मेरठ के उत्तर में बड़ौत तहसील के शाहगल विद्रोहियों के नेता के रूप में उभर कर आया वह इस तहसील के बिजनौर गाँव का जमींदार था और वहाँ की आधी जमीन का मालिक था। 12 या 13 मई को शाहगल ने विद्रोह किया। पहले एक व्यापारी काफिले को लूटा और बड़ौत के तहसील दफ्तर पर हमला करके इसे नष्ट कर दिया। धीरे-धीरे उसे बहुत विस्तृत क्षेत्र में समर्थन मिलने लगा। उसका समर्थन करने वालों में बहुत से उस क्षेत्र के लंबरदार थे। उसे अन्य हिस्सेदारों, जोतदारों व काश्तकारों का भी समर्थन मिला। उसने दिल्ली सरकार से संपर्क बनाया और उसे सूबेदार नियुक्त कर दिया गया। इस क्षेत्र में अधिकतर लोग जाट और गूजर थे। इनमें परस्पर वैमनस्य था। फिर भी दोनों ही समूहों ने शाहमल को पूर्ण समर्थन दिया।

21 जून को अनियमित सेना के घुड़सवारों ने विद्रोह कर दिया और अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद तहसील के दफ्तर पर धावा बोला और इस पर अधिकार कर लिया। विश्वेहियों ने अंग्रेज ‘काफिरों’ का डट कर मुकाबला करने के लिए सारी जनता का आह्वान किया। इसी प्रकार की घटनाएँ रोहतक, हिसार, सिरसा व मथुरा में भी हुई। लोगों ने आपसी वैर-भाव भुलाकर सरकार के विरुद्ध रोष को अभिव्यक्ति दी। स्थानीय स्तर पर बहुत से नेता उभरे जैसे मथुरा में देवी सिंह खेर, नोह में राव भूपाल सिंह और रेवाड़ी में राव तुलाराम।

अंग्रेजों के लिए इस क्षेत्र पर शीघ्र ही अधिकार करना जरूरी था। वह पंजाब के निकट था जहाँ 1849 में ही अंग्रेजों ने बहुत भीषण युद्ध के बाद अपना राज्य स्थापित किया था। दूसरे, यहाँ से दिल्ली को रसद भेजी जा रही थी जिस पर शीघ्र ही अधिकार करने की अंग्रेजों ने ठान ली थी। जुलाई के मध्य में बड़ौत में कंपनी की सेना को सफलता मिली और शहमल युद्ध में मारा गया। विद्रोह को दबाने के लिए तैयार की गई अंग्रेजी फौज के नेता आर0 एच0 डनलप ने लिखा कि उनकी विजय के बाद भी लोग यह इंतजार करते रहे कि ‘उनका राज’ विजयी रहेगा अपना ‘हमारा’। इससे यह स्पष्ट होता है कि विद्रोहियों का उद्देश्य केवल लूट-मार करना नहीं था बल्कि उनकी चेतना में सत्ता की संकल्पना भी शामिल थी।

लखनऊ में विद्रोह 30 मई को हुआ। वहाँ लोगों की अपदस्थ नवाब के प्रति गहरी निष्ठा थी। वे उस समय कलकत्ता में कैद थे। लोग उन्हें अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति का शिकार मानते थे। अन्य स्थानों की भाँति यहाँ भी पहले अंग्रेजों के बंगलों पर प्रहार किया गया। काफी तैयारी के बावजूद हेनरी लॉरेन्स व उनके साथी लखनऊ पर नियंत्रण बनाए रखने में सफल न हो सके।

जिस प्रकार दिल्ली की घटनाओं के बाद आसपास विद्रोह हुए थे उसी प्रकार लखनऊ में विद्रोह होने के बाद शीघ्र ही सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, सुल्तानपुर इत्यादि में विद्रोह होने लगे। फैजाबाद में विद्रोहियों को दिल्ली से यह संदेश भी मिला कि सारा देश उनके कब्जे में है और वे भी उनके झंडे के नीचे आ जायें। जून के अंत तक विभिन्न जिलों से विद्रोही लखनऊ की तरफ बढ़ने लगे। 30 जून को चिनहट के युद्ध में अंग्रेज हार गए। सभी अंग्रेजों ने लखनऊ की रेजीडेंसी में शरण ले ली। जन-विद्रोह के कारण सरकार के लिए इन अंग्रेजों को निकालने के लिए लखनऊ सेना भेजना कठिन हो गया। सरकार ने यह घोषणा की कि जो लोग विद्रोह में भाग नहीं लेंगे उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जायेगा। परंतु इस घोषणा का कोई असर नहीं पड़ा। सरकार विरोधी भावना बहुत गहनं थी और यह माना जा रहा था कि अंग्रेजों की हार निश्चित है और इसलिए उन्हें सहायता देने का कोई लाभ नहीं है। अगस्त के पहले सप्ताह में अपदस्थ नवाब वाजिद अलीशाह के नाबालिग पुत्र विरजिस कैदर को लखनऊ का वली घोषित कर दिया गया। यह कार्य सभी बेगमों की सहमति से किया गया। प्रारंभ से ही यह स्पष्ट था कि राजकार्य में नए वली की माता हजरत महल प्रमुख भूमिका निभाएंगी। बड़े-बड़े ओहदों पर हिंदू व मुसलमान नेता नियुक्त किए गए। मुगल सम्राट की प्रभुसत्ता को भी स्वीकार किया गया।

इस बीच विद्रोह की लहर फैलती जा रही थी। 5 जून को कानपुर में विद्रोह प्रारंभ हुआ। यहाँ इसका नेतृत्व नाना साहेब ने किया। वे अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। 1851 में बाजीराव की मृत्यु के पश्चात उन्हें पेंशन से वंचित कर दिया गया था। उन्होंने कलकत्ता व लंदन में अपने हक में अपील की थी परंतु कुछ सफलता नहीं मिली थी। तात्या टोपे उनके दक्ष सहायक के रूप में उभरे। इसी प्रकार झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को भी कंपनी की विस्तारवादी नीति का शिकार होना पड़ा था। लॉर्ड डलहौजी ने उनके दत्तक पुत्र को उनके पति का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया था और उनके राज्य का बिलयन कर लिया था। विद्रोह के प्रारंभ हो जाने के बाद भी उन्होंने अंग्रेजों से अपनी माँग मनवाने की कोशिश की थी। लेकिन अंग्रेजों ने उनकी अपील अनसुनी कर दी। इसके बाद वे विद्रोह की आँधी में कूद पड़ीं और इतनी वीरता और निर्भयता से सेना का नेतृत्व किया कि अंग्रेज दंग रह गए।

बिहार में जगदीशपुर के जमींदार कुंवर सिंह ने विद्रोह का नेतृत्व किया। उनकी जमींदारी भी कंपनी की नीतियों के कारण छिन गई थी। उन्होंने भी अपने रोष की अभिव्यक्ति विद्रोह में कूद कर की। छोटानागपुर क्षेत्र में भी विद्रोह हुए। जून के मध्य तक ग्वालियर, नौ गाँव तथा बाँदा तक और फिर जुलाई में इंदौर तक विद्रोह की आँधी फैल गई। कई स्थानों पर विद्रोह प्रमुखतः सैनिकों तक सीमित रहा। 30 जुलाई को रानीगंज में आठवीं नेटिव रेजिमेंट ने विद्रोह कर दिया अंग्रेजों को मार डाला, खजाना लूट लिया तथा जेल से कैदी रिहा कर दिए। राजस्थान में नसीराबाद व नीमच में सैनिक विद्रोह हुए। पंजाब में सियालकोट, जालंधर, फिलौर व अंबाला में सैनिक विद्रोह हुए। जालंधर में आम नागरिक भी विद्रोह में बड़ी संख्या में शामिल हुए। बॉम्बे प्रेजीडेंसी में कोल्हापुर में बॉम्बे नेटिव इन्फैन्ट्री ने विद्रोह कर दिया।

ऐसे समय में जब चारों तरफ से विद्रोह फैलने के समाचार आ रहे थे, सरकार भी स्थिति पर काबू पाने का यथासंभव प्रयास कर रही थी। यह स्पष्ट था कि ब्रिटेन से सहायता मांगने में बहुत समय लगेगा। इसलिए स्थानीय संसाधनों पर ही निर्भर करना पड़ेगा। एक और समस्या यह थी कि पंजाब पर 1849 में ही अधिकार किया गया था और बंगाल सेना की उन्नीस में से चौदह रेजीमेंट पंजाब में तैनात थीं। पंजाब के गवर्नर जॉन लारेंस पंजाब में नियंत्रण पर ढील नहीं देना चाहते थे। एक और चिंता का विषय यह था कि इनमें से 36,000 सैनकि अवध व रुहेलखण्ड से थे जिनकी निष्ठा पर निर्भर नहीं रहा जा सकता था। इन्हें निरस्त्र करके पंजाब से ही सैनिक भर्ती करना उचित माना गया। इस सबका प्रभाव यह हुआ कि दिल्ली पर शीघ्र ही आक्रमण नहीं किया जा सकता था। वह भी स्पष्ट था कि दिल्ली का प्रतीकात्मक महत्व बहुत अधिक था और जैसे-जैसे विभिन्न भागों में विद्रोह फैल रहा था, लोग दिल्ली की तरफ बढ़ रहे थे। 8 जून तक ही कंपनी की सेना दिल्ली की सीमा पर पहुंच पाई। 20 सितंबर 1857

को ही दिल्ली पर अधिकार किया जा सका। घमासान युद्ध के पश्चात् ही बहादुरशाह को बंदी बनाया जा सका। उन पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें वर्मा भेज दिया गया।

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