द्वितीय सिख युद्ध
लार्ड हार्डिज में जो व्यवस्था की थी वह स्थायी नहीं हो सकती थी। उससे तो सिख सन्तुष्ट हुए थे और न ही अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नीति पूर्ण हुई थी। इस कारण द्वितीय सिख-युद्ध के कारण शीघ्र उपस्थित हो गये। अंग्रेजों ने जो सुधार पंजाब में किये, उससे सिख असन्तुष्ट थे। मुसलमानों को दी गयी विभिन्न सुविधाएं सिखों की धार्मिक भावना के विरोध में थीं। जो सैनिक सेना से निकाल दिये गये थे, वे असन्तुष्ट थे क्योंकि उनकी जीविका का साधन समाप्त कर दिया गया था। सिखों का यह विश्वास था कि उनकी पराजय का कारण उनके सरदारों की गद्दारी थी। इस कारण उन्हें भरोसा था कि पुनः युद्ध होने पर वे अंग्रेजों को अवश्य परास्त कर देंगे। आन्तरिक शासन में अंग्रेज रेजीडेंट के हस्तक्षेप को सिख पसन्द नहीं करते थे। रानी झिण्डन का जो अपमान अंग्रेज करते थे, उससे भी सिख असन्तुष्ट थे। इस प्रकार सिखों में अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र असन्तोष था।
उसी अवसर पर लॉर्ड डलहौजी गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया। उसका उद्देश्य प्रारम्भ से ही सम्पूर्ण भारत को अंग्रेजी साम्राज्य में सम्मिलित करना था। उसे पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने के लिए केवल एक बहाना चाहिए था और वह बहानां उसे मुल्तान के सूबेदार मूलगंज के विद्रोह से प्राप्त हो गया।
अपने पिता सावन्तमल की मृत्यु के पश्चात् 1844 ई० में मूलराज मुल्तान का सूबेदार बना। उससे उत्तराधिकार-कर के रूप में 30 लाख रुपये माँगे गये जिसके चुकाने के लिए वह तैयार न था। अन्त में यह निर्णय हुआ कि मूलराज से जंग का जिला सर्वदा के लिए ले लिया जायेगा और उसे लाहौर-दरबार को कर के रूप में 19 लाख के स्थान पर 25 लाख रुपया पहले वर्ष और बाद में 30 लाख रुपया प्रति वर्ष देना होगा। इसके लिए भी मूलराज तैयार न हुआ और उसने सूबेदारी से त्यागपत्र दे दिया। जॉन लारेन्स ने, जो उस समय रेजीडेंट के पद पर कार्य कर रहा था, उसके त्यागपत्र को स्वीकार नहीं किया परन्तु नवीन रेजीडेंट क्यूरी ने 1848 ई० में उसके त्यागपत्र को स्वीकार कर लिया। सरदार खानसिंह मान को नवीन सूबेदार बनाकर दो अंग्रेज अफसरों—पी0 ए0 वान्स एग्नू और डब्ल्यू० ए० एण्डरसन के साथ मुल्तान भेजा गया। 19 अप्रैल, 1848 ई0 को मूलराज ने शान्तिपूर्वक मुल्तान का किला खानसिंह को सौंप दिया, परन्तु उसी दिन दोनों अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी गयी। यह सन्देह किया गया कि इन हत्याओं में मूलराज का हाथ था। परन्तु अधिक प्रमाण इस बात के मिलते हैं कि असन्तुष्ट सिख-सैनिकों ने इन अंग्रेजों की हत्या की थी और बाद में मूलराज को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए विवश किया था। इस प्रकार एक स्थानीय विद्रोह के रूप में मूलराज का विद्रोह आरम्भ कम हुआ।
अंग्रेजों ने इस विद्रोह को शीघ्र दबाने का कोई प्रयत्न नहीं किया। उन्होंने बहाना किया कि इस विद्रोह को शीघ्र दबाने का उत्तरदायित्व लाहौर-दरबार का था परन्तु वास्तव में अंग्रेज चाहते थे कि यह विद्रोह पंजाब के अन्य भागों में भी फैल जाय जिससे उन्हें सम्पूर्ण पंजाब को जीतने का बहाना मिल सके। आगे ऐसा ही हुआ। जब तक राजा शेरसिंह को लाहौर-दरबार की ओर से मुल्तान के विद्रोह को दबाने के लिए भेजा गया तब तक विद्रोह बनू, पेशावर और पंजाब के उत्तर-पश्चिमी भागों में फैल चुका था। विद्रोह के फैलने का एक मुख्य कारण यह भी था कि अंग्रेजों ने रानी झिण्डन पर यह आरोप लगाया कि वह मुल्तान के विद्रोह के लिए उत्तरदायी थी और इस आधार पर रानी को पंजाब से बाहर भेज दिया गया। इसमें सन्देह नहीं कि पंजाब के विद्रोहियों की आशाएं रानी पर केन्द्रित थीं, जैसा कि क्यूरी ने अपने एक पत्र में लिखा : “यह सत्य है कि इस अवसर पर दीवान मूलराज, सम्पूर्ण सिख-सेना और सैनिक जनता की आशाएं रानी को विद्रोह अथवा असन्तोष का केन्द्र-बिन्दु बनाने में लगी हुई थी।” परन्तु यह भी सत्य है कि विद्रोह में उस समय तक रानी का कोई हाथ न था, जैसा कि स्वयं क्यूरी के पत्र से ही स्पष्ट होता है। वह लिखता है : “यद्यपि यह सन्देह किया जा सकता है कि मुल्तान के विद्रोह में महारानी का हाथ था, परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं है।” वास्तव में अंग्रेजों ने रानी को दो उद्देश्यों से पंजाब के बाहर भेजा। प्रथम, क्योंकि रानी झिण्डन ही सम्पूर्ण पंजाब के विद्रोहियों का केन्द्र-बिन्दु हो सकती थी, अतः इस खतरे को टालने हेतु उसे पंजाब से बाहर भेजना राजनीतिक आधार पर उचित था। द्वितीय, अंग्रेज जानबूझकर रानी को अपमानित करके सिखों की भावनाओं को चोट पहुँचाना चाहते थे जिससे विद्रोह अधिक तेजी से फैले।
विद्रोह के फैलने का दूसरा कारण अंग्रेजों का हजारा के सूबेदार और राजा शेरसिंह ए पिता छत्तरसिंह का अपमान करना था। ये दोनों सरदार पंजाब में पर्याप्त लोकप्रिय थे। छत्तरसिंह की पुत्री का विवाह महाराजा दलीपसिंह से निश्चित हो चुका था परन्तु निरन्तर प्रयत्न करते रहने पर भी अंग्रेजों के विरोध के कारण यह विवाह उस समय तक सम्पन्न नहीं हो सका था। फिर भी मूलराज के विद्रोह के समय तक ये दोनों सरदार अंग्रेजों के प्रति वफादार थे। परन्तु हजारा के रेजीडेंट ऐबट ने न केवल हजारा के मुसलमानों को छत्तरसिंह के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रोत्साहित किया अपितु उसके आन्तरिक शासन में हस्तक्षेप करके उसका निरन्तर अपमान किया। 23 अगस्त, 1848 ई० को छत्तरसिंह ने अपने पुत्र शेरसिंह को, जो उस समय मुल्तान के विद्रोह को दबाने के लिए गया था, एक पत्र लिखा जिसमें उसने अंग्रेजों के दुर्व्यवहार की निन्दा करते हुए विद्रोह करने की इच्छा प्रकट की। 14 सितम्बर, 1848 ई० को अपने पिता के अपमान के कारण राजा शेरसिंह विद्रोह में सम्मिलित हुआ। सिखों ने अफगानों को पेशावर देकर उनकी भी सैनिक सहायता प्राप्त कर ली। अब मूलराज का स्थानीय विद्रोह पंजाब के विद्रोह में परिणत हो गया जैसा कि अंग्रेज स्वयं चाहते थे।
मूलराज के विद्रोह करने के पश्चात् भी अंग्रेजों के विरुद्ध किसी संगठित विद्रोह की भावना पंजाब में न थी, इसके अनेक प्रमाण हैं। लाहौर-दरबार अन्त तक अंग्रेजों के प्रति वफादार रहा था। 15 अगस्त, 1848 ई0 तक रेजीडेण्ट ने अंग्रेज सेनापति को लिखा था : “अभी तक कहीं भी, किसी भी दल में या लाहौर-दरबार से सम्बन्धित किसी भी व्यक्ति में षड्यंत्र या सरदारों के संगठन का कोई चिह्न नहीं है, जैसा कि कैप्टेन ऐबट का विश्वास है। इस प्रकार, यह विश्वास नहीं किया जा सकता कि सिखों ने जानबूझकर अंग्रेजी सत्ता को युद्ध की चुनौती दी थी, जैसा कि लॉर्ड डलहौजी ने कहा था। लॉर्ड डलहौजी के अनुसार, “बिना किसी पूर्व-सूचना अथवा बिना किसी कारण के सिख-राष्ट्र ने युद्ध को आमंत्रित किया है और मैं अपनी ओर से आप सब महानुभावों को विश्वास दिलाता हूँ कि इसका प्रतिशोध लिया जायेगा।” यह वक्तव्य उस परिस्थिति में दिया गया था जबकि लाहौर-दरबार अंग्रेजों के प्रति वफादार था और अंग्रेजों से हुई सन्धि के अनुसार उन्हीं की सलाह से शासन कर रहा था। फिर समझ में नहीं आता कि किस प्रकार डलहौजी ने यह मान लिया और घोषणा की कि सिख-राष्ट्र ने अंग्रेजों को युद्ध की चुनौती दी थी। अंग्रेज सेनापति लॉर्ड गफ जब पंजाब पहुँचा तो उसे यह तक ज्ञात नहीं था कि उसे लाहौर-दरबार के विरुद्ध या उसके पक्ष में युद्ध करने के लिए भेजा गया था। उसने स्वयं लिखा था : “मैं नहीं जानता कि हम शान्ति की स्थिति में हैं या युद्ध की अथवा हमें किससे युद्ध करना है। लाहौर पहुँचने पर ही उसे ज्ञात हुआ कि उसे लाहौर-दरबार के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा गया है। इससे यह स्पष्ट है कि डलहौजी और उसके कुछ विश्वस्त व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी को भी यह ज्ञात न था कि अंग्रेज लाहौर-दरबार से युद्ध करना चाहते थे। इसीलिए विद्रोह को फैलने का अवसर दिया गया। इसी कारण महाराजा दलीपसिंह को भी शत्रु-पक्ष का माना गया जबकि वास्तव में वह अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ भी करने की स्थिति में न था। लॉर्ड डलहौजी को पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने का बहाना चाहिए था। लाहौर-दरबार के शत्रु बनने से ही यह बहाना मिल सकता था। परन्तु जब यह सम्भव न हुआ तो लाहौर-दरबार को जबर्दस्ती शत्रु माना गया और इसी आधार पर अंग्रेजों ने पंजाब पर अधिकार किया।
22 नवम्बर, 1848 ई0 को रामनगर का युद्ध हुआ परन्तु उसमें कोई निर्णय न हो सका। 13 जनवरी, 1849 ई० को चिलियानवाला का भीषण युद्ध हुआ। दोनों पक्षों की बहुत हानि हुई परन्तु निर्णय इस युद्ध में भी नहीं हुआ। 22 जनवरी को अंग्रेजों ने मुल्तान को जीत लिया और मूलराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस बीच में शेरसिंह और छत्तरसिंह की सेनाएं मिल गयी थीं तथा लॉर्ड गफ को मुल्तान की अंग्रेजी सेना की सहायता प्राप्त हो गयी थी। अन्तिम युद्ध चिनाब नदी के किनारे गुजरात नामक स्थान पर हुआ जिसमें सिख बुरी तरह पराजित हुए और अंग्रेजों ने 15 मील तक उनका पीछा किया। 12 मार्च, 1849 ई० को शेरसिंह, छत्तरसिंह तथा अन्य सभी सिख सरदारों ने आत्मसमर्पण कर दिया और अपने शस्त्र डाल दिये। एक वृद्ध सिख सैनिक ने समर्पण किये हुए सिख शस्त्रों के सामने हाथ जोड़कर कहा : “आज रणजीत सिंह की मृत्यु हो गयी।”
29 मार्च, 1849 ई० को डलहौजी ने स्वयं की जिम्मेदारी पर पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसके लिए उसने डायरेक्टरों की आज्ञा की भी प्रतीक्षा नहीं की। उसने घोषणा की : “पंजाब का राज्य समाप्त हो गया है और अब तथा अब से आगे महाराजा दलीपसिंह का सम्पूर्ण राज्य अंग्रेजों के राज्य का एक भाग है। महाराजा दलीपसिंह को 4 से 5 लाख रुपये के बीच में पेंशन दे दी गयी और उसे उसकी माँ रानी झिण्डन के संरक्षण में इंग्लैंड भेज दिया गया।
पंजाब को अपने राज्य में सम्मिलित करने से अंग्रेजी राज्य की सीमाएं भारत की प्राकृतिक भौगोलिक सीमाओं तक पहुँच गयीं। अब अंग्रेज अपगानिस्तान या उत्तर-पश्चिम में अन्य राज्यों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर सकते थे। सिख भारत में अन्तिम शक्ति थे जिससे अंग्रेजों को खतरा हो सकता था। अब वह खतरा भी समाप्त हो गया।
पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित किये जाने के विषय में विभिन्न मत दिये गये हैं। एक मत डलहौजी के पक्ष का है जिसके अनुसार सिखों ने विद्रोह करके ऐसा अवसर प्रदान किया जिससे डलहौजी को पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करना पड़ा और यह कार्य सर्वथा आवश्यक था। दूसरा मत उन व्यक्तियों का है जिनका कहना है कि डलहौजी का यह कार्य सर्वथा अन्यायपूर्ण था। लाहौर दरबार अन्त तक अंग्रेजों के प्रति वफादार था। संरक्षक-परिषद् के आठ सदस्यों में से केवल एक ने इस विद्रोह में भाग लिया था और एक अन्य पर केवल संदेह किया जाता था। बाकी छह संरक्षक पूर्णतः अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। इस प्रकार पंजाब की कानूनी सरकार ने, जिसका समर्थन अंग्रेज भी करते थे, अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह नहीं किया था। एक प्रकार से अंग्रेज तो उस कानूनी सरकार की सहायता के लिए पंजाब में गये थे, फिर युद्ध के पश्चात् उन्हें उस कानूनी सरकार को हटाने का कोई नैतिक अधिकार न था। इसके अतिरिक्त, महाराजा दलीपसिंह का तो कोई अपराध हो ही नहीं सकता था क्योंकि वह तो तब बच्चा ही था। फिर अंग्रेजों ने उसका राज्य उससे छीनकर कौन-सा न्यायिक कार्य किया था? इस वेद्रोह को दबाने में पंजाब के 20,000 सैनिकों ने अंग्रेजों की सहायता की थी। फिर इस विद्रोह के पंजाब का विद्रोह कैसे मान सकते हैं जिस आधार पर अंग्रेजों ने पंजाब को अपने राज्य में स लित किया? इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पंजाब को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित करने का आधार संखों का विद्रोह या नैतिक अथवा कोई अन्य न्यायसंगत आधार न था। उसका मूल आधार र नहौजी की साम्राज्यवादी नीति थी।
लॉर्ड डलहौजी ने पंजाब का शासन करने के लिए तीन कमिश्नरों के एक बोर्ड की स्थापना की। बाद में उसका शासन केवल सर जॉन लॉरेन्स के हाथों में रहा। उसने पंजाब में कूटनीति और कठोरता से शासन किया तथा अनेक सुधार भी किये। उसका शासन बहुत सफल रहा और उसकी सफलता इस बात से स्पष्ट है कि आगे आने वाले 1857 ई० के विद्रोह में सिखों ने अंग्रेजों का साथ दिया यद्यपि कुछ समय पहले ही अंग्रेज अन्यायपूर्ण आधार पर उनके राज्य को उनसे छीन चुके थे।
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