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लार्ड विलियम बैंटिक के सुधार

बैंटिक के सुधार

भूमिका

जुलाई 1828 ई० में एम्हर्स्ट के पश्चात विलियम बेन्टिक को भारत का गवर्नर-जनरल बनाया गया। बेन्टिक ने अपने जीवन का आरम्भ सैनिक सेवा से किया था और उसने क्रान्तिकारी फ्रान्स तथा नेपोलियन के युद्धों में भाग लिया था। उसे 1803 ई० में मद्रास का गवर्नर नियुक्त किया गया था परन्तु 1806 ई० में वैलोर में सैनिक विद्रोह के कारण उसे अचानक उसके पद से हटा दिया गया था। 1828 ई० में उसे गवर्नर-जनरल बना कर भारत भेजा गया।

बैंटिक के सुधार

बैंटिक का समय मुख्यतया विभिन्न सुधारों की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया है। कुछ सुधार उसने कम्पनी की आर्थिक स्थिति और शासन-व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से किये और अन्य कुछ सुधार उसने भारतीयों की स्थिति को सुधारने के लिए भी किये। अपने सुधारों से, निस्सन्देह, बेन्टिक ने यह सिद्ध किया कि उसका उद्देश्य यदि कम्पनी की स्थिति और शासन को भारत में दृढ़ करने का था तो भारतीयों के हित में भी था।

बेन्टिक ने आरम्भ में ही दो समितियों की नियुक्ति की-एक सैनिक और दूसरी असैनिक, तथा उनकी रिपोर्ट व डायरेक्टरों के आदेश पर विभिन्न आर्थिक सुधार किये:

आर्थिक सुधार

  • असैनिक अधिकारियों के वेतन में ही कमी नही की गयी बल्कि उनके भत्ते भी कम कर दिये गये। सैनिक-अधिकारियों के लिए यह निश्चित किया गया कि जो अधिकारी कलकत्ता से 600 मील की सीमा में निवास करते थे, उनको केवल आधा भत्ता दिया जायगा। केवल इसी से बेन्टिक ने 20,000 पौण्ड प्रति वर्ष की बचत की। शासन के व्यय में कमी करने के लिए उसने भारतीयों को सरकारी सेवाओं में लिया जिनकी नियुक्ति कम वेतन पर हो सकती थी।
  • धन की बचत के लिए उसने अपील तथा घूम-घूमकर न्याय करने वाले न्यायालयों को समाप्त कर दिया।
  • उसने ऐसी सभी भूमियों का सर्वेक्षण कराया जा पिछले भारतीय नरेशों द्वारा विभिन्न व्यक्तियों को दान में दे दी गयी थी और लगान मुक्त थीं ऐसी अनेक भूमियाँ जब्त कर ली गयीं क्योंकि उनके अधिकारी उन पर अपने अधिकार को प्रमाणित नहीं कर सके और बाकी सभी से लगान लेने की व्यवस्था की गयी। निस्सन्देह, इस कार्य से अनेक भारतीय परिवारों को कष्ट हुआ क्योंकि उनकी भूमि ही उनकी आय का एकमात्र साधन थी परन्तु उससे कम्पनी की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई।
  • बैन्टिक ने नवीन सूबे-उत्तर-पश्चिम प्रान्त (आगरा व अवण का वह भाग जो अवध-राज्य से प्राप्त किया गया था)-की लगान-व्यवस्था को ठीक किया। पिछले वर्षों के लगान का पता लगाकर भूमिपतियों से 30 वर्षों के लिए लगान निश्चित किया गया। उसी प्रकार उसने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में भी लगान वसूल करने की व्यवस्था को ठीक किया।
  • मलाका के उपनिवेश के शासन पर अभी तक काफी धन व्यय किया जाता था। बेन्टिक ने उस व्यय में कमी की।
  • बेन्टिक ने अफीम के व्यापार की आय को बढ़ाने के लिए व्यापारियों को लाइसेन्स देने आरम्भ किये। इसके अतिरिक्त मालवा से अफीम को कराँची ले जाने के स्थान पर उसे सीधे बम्बई के बन्दरगाह पर भेजने की व्यवस्था की गयी जहाँ से वह चीन भेजी जाने लगी। इससे अफीम ले जाने के व्यय में कमी हुई, उसके मूल्य में कमी हुई और उसे बड़ी मात्रा में बाहर भेजकर अधिक लाभ हुआ।

इस प्रकार बेन्टिक ने विभिन्न आर्थिक सुधार किये और उसकी सफलता इस बात से स्पष्ट है कि जब वह भारत आया था उस समय कम्पनी की प्रति वर्ष एक करोड़ रुपये का घाटा हो रहा था परन्तु उसके जाने के समय तक कम्पनी को 2 करोड़ रुपये प्रति वर्ष की अधिक आय होने लगी थी।

लॉर्ड कार्नवालिस के पश्चात् से भारत में शासन और न्याय-व्यवस्था की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। इस कारण इस व्यवस्था में सुधार और परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव की गयी।

शासन और न्याय सुधार

  • सर्वप्रथम, बेन्टिक ने सेवाओं में सुधार किया। कार्नवालिस भारतीयों की योग्यता और ईमानदारी पर भरोसा न करता था और जहाँ तक सम्भव हुआ उसने अंग्रेजों को ही महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करने की नीति को अपनाया था बाद के गवर्नर-जनरल भी इसी नीति का अनुसरण करते आ रहे थे। बेन्टिक ने आर्थिक और न्याय के आधार पर इसे उपयुक्त स्वीकार नहीं किया और भारतीयों को कम्पनी की सेवाओं में लेना आरम्भ कर दिया। उसके समय में भारतीयों को प्रदान किया जाने वाला सबसे उच्च पद सदर-अमीन का था जिसे 700 रुपये प्रति माह वेतन प्राप्त होता था। उसके इस सिद्धान्त को 1833 ई० के कम्पनी के आदेश पत्र में भी सम्मिलित कर दिया जिसके द्वारा यह स्वीकार किया गया कि “अब धर्म, जाति, जन्म वंश या रंग के आधार पर किसी भी व्यक्ति को कम्पनी की सेवाओं से वंचित नहीं रखा जायेगा।”
  • भारतीय समाचार-पत्रों के प्रति भी बेन्टिक ने उदारवाद की नीति अपाई वह यह विश्वास नहीं करता था कि सरकारी कर्मचारी अपने पद की स्थिति का लाभ उठाकर सरकार की आलोचना करें। परन्तु इसके अतिरिक्त वह प्रेस और समाचार-पत्रों को पर्याप्त मात्रा में स्वतन्त्रता प्रदान करने के पक्ष में था और वह एक स्वतन्त्र प्रेस को स्वतन्त्रता की रक्षा और असन्तोष को बढ़ाने से रोकने का एक साधन मानता था।
  • बेन्टिक ने अपील और घूम-घूमकर न्याय करने वाले न्यायालयों को समाप्त कर दिया। इनमें न्याय मूल्यवान था और देर भी होती थी। इस कारण से शासन के लिए भार-स्वरूप थे। उसने इन न्यायालनयों के अधिकार मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों को दे दिये। उसने उत्तर-पश्चिम के सूबे के लिए भी एक सदर-दीवानी अदालत और एक सदर-निजामत अदालत की स्थापना की जिससे उसके निवासियों को कलकत्ता तक न जाना पड़े। उस समय तक न्यायालयों की भाषा केवल फारसी थी। उसने व्यक्तियों को फारसी के अतिरिक्त अपनी प्रादेशिक भाषाओं के प्रयोग करने का अधिकार भी दे दिया। उसने भारतीयों को मुन्सिफ और सदर अमीन के पद देने आरम्भ किये जिससे वे छोटे न्यायालयों में न्याय कर सकें। 1833 ई० में मैकाले की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की गयी जिसने इण्डियन पैनल कोड और सैनिक तथा असैनिक कानूनी नियमों का संकलन किया।

बाद के समय में 1859-1861 ई० मध्य दण्ड-विधि, असैनिक-कानून कार्यविधि तथा दण्ड प्रक्रिया के कानून बनाये गये 1861 ई० में ही उच्च न्यायालय अधिनियम बनाया गया जिसके अनुसार पुरानी सुप्रीम कोर्ट और सदर-अदालतों को समाप्त कर दिया गया तथा कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में उच्च न्यायालयों (High courts) की स्थापना की गयी। 1866 ई० में एक उच्च-न्यायालय आगरा में स्थापित किया गया जिसे 1875 ई० में इलाहाबाद स्थानान्तरित कर दिया गया। बाद में लाहौर, पटना तथा धीरे-धीरे सभी ब्रिटिश प्रान्तों में उच्च-न्यायालयों की स्थापना की गयी तथा 1935 ई० के भारत-सरकार कानून द्वारा एक संघीय न्यायालय की स्थापना की भी व्यवस्था की गयी।

शिक्षा और सामाजिक सुधार

बेन्टिक के समय के सुधारों में एक महत्वपूर्ण स्थान शिक्षा और सामाजिक सुधारों का है। निस्सन्देह, छोटी नौकरियों में भारतीयों को लेने की आवश्यकता जिससे शासन का व्यय कम हो सके, भारत में अंग्रेजी सभ्यता का प्रसार करके अंग्रेजी शासन को दृढ़ करने का विचार और बेन्टिक का उदारवादी होना उस समय में किये गये शिक्षा और सामाजिक सुधारों का कारण थे। परन्तु उनसे भी अधिक उनका कारण उस अवसर पर ब्रिटेन में उदारवादी, मानवतावादी और ईसाई धर्म-प्रचारकों की विचारधारा का प्रभावपूर्ण होना था। उदारवादी और मानवतावादी भारत में इन सुधारों को इस कारण चाहते थे कि वे इसे एक मानवीय उत्तरदायित्व मानते थे और ईसाई धर्म-प्रचारक भारत में ईसाई धर्म का प्रचार इस कारण चाहते थे कि उससे भारतीयों की आत्मा का उद्धार होगा। मूल आधार पर उनके इन विचारों की पृष्ठभूमि में 19वीं सदी में यूरोपियनों की वह भावना थी जिसे उन्होंने ‘सफेद व्यक्ति का बोझ’ (White Man’s Burden) नामक सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार अफ्रीका और एशिया के काले व्यक्तियों की शिक्षित और सुसभ्य बनाने का बोझ ईश्वर ने यूरोप के सफेद व्यक्तियों पर डाल दिया है। इस कारण इस बोझ को ईश्वर-प्रदत्त उत्तरदायित्व मानकर इस कार्य की पूर्ति करना सफेद व्यक्तियों का कर्तव्य है। भारत में बेन्टिक के समय में शिक्षा और सामाजिक सुधारों के किये जाने का एक मुख्य कारण यह विचारधार थी यद्यपि यूरोपियनों की यह विचारधारा उनकी अपनी नस्ल की श्रेष्ठता के झूठे दम्भ और अपने साम्राज्यवाद को नैतिक-समर्थन प्रदान करने की कुचेष्टा का परिणाम थी।

  1. शिक्षासुधार

    बेन्टिक के समय के सुधारों में सबसे महत्वपूर्ण सुधार शिक्षा-सुधार का था। 1813 ई0 के कम्पनी के चार्टर द्वारा यह निश्चित किया गया था कि कम्पनी प्रति वर्ष एक लाख रुपया भारतीयों की शिक्षा के लिए व्यय करेगी।परन्तु उस समय तक इस धन को व्यय करने के लिए कोई उपयुक्त कार्य नहीं किया गया था। बेन्टिक ने भारतीयों की शिक्षा के लिए कदम उठाने का निश्चय किया। आरम्भ में ही बेन्टिक ने भारतीयों की शिक्षा के लिए कदम उठाने का निश्चय किया। आरम्भ में ही बेन्टिक के प्रमुख एक बड़ा प्रश्न उपस्थित हुआ कि इस धन को किस प्रकार की शिक्षा पर व्यय किया जाए? भारतीयों के प्राचीन ग्रन्थों और भारतीय विद्याओं तथा प्राचीन हिन्दू पाठशालाओं, विद्यालयों तथा मकतबों पर यह धन व्यय किया जाय अथवा ब्रिटेन की शिक्षा प्रणाली के आधार पर नवीन स्कूल और कॉलेज खोले जायें तथा भारत में पाश्चात्य शिक्षा को आरम्भ किया जाए? इसी से सम्बन्धित प्रश्न यह था कि शिक्षा का माध्यम संस्कृत, फारसी आदि में से कोई भाषा हो अथवा अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए?

इस विषय पर भारत में शिक्षा की व्यवस्था के लिए जो समिति नियुक्त की गयी थी उसमें गम्भीर मतभेद था। एक वर्ग भारतीय शिक्षा के पक्ष का था जिसका नेतृत्व विल्सन और प्रिन्सप कर रहे थे और दूसरा अंग्रेजी भाषा के पक्ष का था जिसका नेतृत्व ट्रेवेलियन और राजा राममोहन राय सदृश कुछ उदार भारतीय कर रहे थे। बेन्टिक ने अपनी कार्यकारिणी के नवीन कानूनी सदस्य मैकाले (Macaulay) को इस समिति का सभापति नियुक्त किया जिसने 2 फरवरी, 1835 ई0 को अपने विचारों और निर्णयों को एक विशेष विवरण के रूप में प्रस्तुत किया जिसमें उसने भारतीय शिक्षा और ज्ञान को बहुत हीन बताया और अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का समर्थन किया। उसने एक स्थान पर लिखा : “क्या हम झूठा इतिहास, झूठा नक्षत्र-विज्ञान और झूठा चिकित्सा-शास्त्र पढ़ायें क्योंकि वह एक झूठे धर्म के साथ सम्मिलित है।” उसने कहा कि भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शिक्षा का सर्वथा अभाव है और वे ज्ञान की दृष्टि से बहुत निम्न श्रेणी की है। उसने कहा: “यूरोप के अच्छे पुस्तकालय का एक आलमारी का कवल एक भाग ही भारत और अरब के सम्पूर्ण साहित्य के बराबर है।” मैकॉले के समर्थन के कारण अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम और पाश्चात्य शिक्षा को भारत की शिक्षा-प्रणाली का आधार स्वीकार कर लिया गया। 1835 ई० में यह निश्चय किया गया और भारत में उसी समय से यह शिक्षा आरम्भ हुई। हम मैकले के विचारों से सहमत नहीं हो सकते। मैकॉले ब्रिटेन और अंग्रेजी भाषा का भक्त था और, सम्भवतया, अंग्रेजों को शिक्षित क्लर्को की आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त मैकॉले का यह भी विचार था कि पश्चिमी शिक्षा के द्वारा भारतीयों की सभ्यता और विचारों को प्रभावित करके वे भारत में अंग्रेजी शासन, संस्कृति तथा धर्म की सुरक्षा और विस्तार की व्यवस्था कर सकेंगे। इस कारण, उसने पश्चिमी साहित्य के महत्व पर आवश्यकता से अधिक बल दिया था और भारतीय ज्ञान की हँसी उड़ाई थी। परन्तु मैकॉले के विचारों से सहमत न होते हुए पी यह स्वीकार करना पड़ता है कि अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा ने भारत के आधुनिकीकरण और प्रगति में सहायता दी है।

  1. समाजसुधार

    बेन्टिक ने भारत की कुछ सामाजिक, कुरीतियों को समाप्त करने की ओर भी कदम उठाया। इस क्षेत्र में, निस्सन्देह, यह माना जा सकता है कि उसकी भावनाएँ और लक्ष्य पूर्णतया निस्वार्थता के थे और उसने भारतयों के असन्तोष की परवाह न करते हुए साहस से इस मानवय कार्य को किया।उससे पहले के गवर्नर-जनरल भारतीयों की सामाजिक परम्पराओं में हस्तक्षेप करना अंग्रेजों के हित में नहीं मानते थे। परन्तु बेन्टिक ने विरोध की परवाह न की। निस्सन्देह, उसे राजा राममोहन राय सदृश कुछेक उदार और शिक्षित भारतीयों का समर्थन प्राप्त हुआ था। परन्तु इसमें भी सन्देह नहीं कि अनेक भारतीयों ने इसका विरोध किया था और उसने साहस से इन कुरीतियों को समाप्त करने का जो कदम उठाया, उसका मुख्य श्रेय उसी को था। भारत में उस समय एक अमानवीय प्रथा प्रचलित थी जिसे सती प्रथा पुकारते थे। इसके अनुसार एक स्त्री अपने पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी लाश के साथ जिन्दा जल जाती थी। प्रथा की उत्पत्ति का कारण कुछ भी रहा हो परन्तु यह कार्य अमानुषिक और बर्बरता का था। सम्भवतया कुछ स्त्रियाँ स्वेच्छा से जलती हों परन्तु अनेक ऐसी होती थीं जो सामाजिक असम्मान, रिश्तेदारों के भय और ईर्ष्या आदि के कारण जलने पर बाध्य हो जाती थी। कार्नवालिस, लॉर्ड मिण्टो और लॉर्ड हेस्टिंग्स ने ऐसे अवसरों पर सरकारी कर्मचारियों और पुलिस आदि को भेजकर यह प्रयत्न अवश्य किया था कि स्त्रियों को जबरदस्ती सती न किया जाय। इसी प्रकार कुछ उदार भारतीय शासकों और मराठो ने इस दिशा में कुछ कदम उठाये थे परन्तु इन कार्यो से कोई लाभ नहीं निकला था। उस अवसर पर राजा राममोहन राय, देवेन्द्र नाथ टैगोर आदि जैसे उदार भारतीयों ने उसके विरोध में विचार प्रकट किये और इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित करने की माँग की। बेन्टिक ने इस विषय पर तथ्य एकत्रित किये और सभी वर्गों के सरकारी कर्मचारियों से सलाह ली और जब वह सन्तुष्ट हो गया कि इस प्रथा को समाप्त करने से विद्रोह की आशंका न थी तब 1829 ई0 में सती प्रथा गैर-कानूनी घोषित कर दी गयी। आरम्भ में यह कानून केवल बंगाल के लिए था परन्तु 1830 ई0 में इसे मद्रास और बम्बई के प्रदेशों में भी लागू कर दिया गया। कुछ भारतीयों ने इसके विरुद्ध ब्रिटेन में अपील की परन्तु राजा राममोहन राय के नेतृत्व में अन्य भारतीयों ने इस कानून का समर्थन किया। अन्त में, कानून का समर्थन प्राप्त करके यह प्रथा धीरे-धीरे भारत से समाप्त हुई। वूल्जले हेग ने इस विषय में लिखा है: “यह कम्पनी सरकार द्वारा भारत की सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप करने का उत्यन्त साहसिक कदम था।”

बेन्टिक ने बाल-हत्या और मनुष्य-बलि को भी गैर-कानूनी घोषित किया। अनेक स्थानों पर देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मनुष्य की बलि दिये जाने की प्रथा थी यद्यपि यह कार्य कुछ विशेष सम्प्रदाय ही करते थे। इसी प्रकार सम्मान की रक्षा के लिए अनेक स्थानों पर, मुख्यतया राजस्थान में, लड़कियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था। बेन्टिक ने इन अमानुषिक प्रथाओं को गैर-कानूनी घोषित करके इन्हें समाप्त करने में सहायता की।

बेन्टिक ने भारत में ठगी को समाप्त किया। ठग लुटेरों के ऐसे समूह थे जो व्यक्तियों को धोखा देकर मार डालते थे और उनका धन लूट लेते थे। अधिकांशतया इनका आक्रमण रास्ते में चलते हुए व्यापारियों या यात्रियों पर होता था वे सहयात्री बनकर उनके साथ सम्मिलित हो जाते थे और अवसर मिलते ही उन्हें मारकर उनका धन लूट लेते थे। इनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे और ये देवी काली की पूजा करते थे इनके आतंक के कारण व्यापार और यात्रा सुरक्षित न थी। बेन्टिक ने इन्हें समाप्त करने के लिए एक विशाल योजना बनायी ओर उसमें भारतीय नरेशों का सहयोग प्राप्त किया। कर्नल विलियम ग्लीमेन को एक बड़ी सेना देकर उन्हें समाप्त करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया। स्थान-स्थान पर ठगों का पता लगाया गया और उनका पीछा किया गया। करीब 1500 ठग पकड़ लिये गये जिन्हें आजीवन कारावास या मृत्युदण्ड दिया गया। निरन्तर प्रयत्न के पश्चात् 1831 ई० से ठगी का गिरोहों के रूप में विनाश हो गया और इस प्रकार एक बड़ी परेशानी से नागरिकों की जान बची।

इस प्रकार अपने सात वर्ष के शासन काल में बेन्टिक ने अनेक महत्वपूर्ण सुधार किये और प्रायः सभी में सफलता पायी। इतिहासकार थोर्टन ने लिखा है कि विलियम बेन्टिक के समय में कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई तथा ड्यूक ऑफ वैलिंगटन वेन्टिक की न एक योग्य सैनिक मानता था और न ही अच्छा शासन प्रबन्धन। परन्तु यह विचार सर्वथा सत्य नहीं है। निस्सन्देह, वेन्टिक के समय में गौरव प्रदान करने वाले युद्ध नहीं लड़े गये परन्तु उसने शान्ति और सुधारों द्वारा जिस प्रकार कम्पनी की स्थिति को भारत में दृढ़ किया, वह सराहनीय है। इसके अतिरिक्त उसके समय में शिक्षा और समाज-सुधार के लिए भी विभिन्न महत्वपूर्ण कदम उठाये गये थे।

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