भारत का संवैधानिक विकास
अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार में क्लाइव, वारेन हेस्टिंग्स, लॉर्ड कार्नवालिस, लॉर्ड वैलेजली, लॉर्ड हेस्टिग्स और लॉर्ड डलहौजी के नाम उल्लेखनीय है। भारत का यह अंग्रेजी राज्य ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्राप्त किया था परन्तु 1857 ई० के विद्रोह के कारण यह कम्पनी से छीनकर ब्रिटिश सरकार को दे दिया गया और ब्रिटेन की पार्लियामेण्ट और कैबिनेट भारत के शासन के लिए उत्तरदायी हो गया।
भारत के संवैधानिक विकास के इतिहास को हम, इस कारण, दो भागों में बाँटते हैं:
- ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के अन्तर्गत और
- ब्रिटेन की सरकार के शासन के अन्तर्गत।
जिस समय तक (1855 ई०) ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शसन रहा, ब्रिटेन की संसद विभिन्न अवसरों पर विभिन्न कानून अथवा आदेश-पत्र जारी करके कम्पनी के शासन पर नियन्त्रण रखती रही और जब उसने स्वयं भारत के शसन को अपने हाथे में लिया तब भी उसने स्वयं भारत के शासन को अपने हाथों में लिया तब भी भी उसने भारत के शासन के लिए विभिन्न कानून बनाये। उन सभी आदेश-पत्रों और कानूनों को हम भारत के संवैधानिक विकास में सम्मिलित करते हैं।
रेगुलेटिंग एक्ट (1773 ई०)
भारत में कम्पनी का शासन बंगाल, बिहार और उड़ीसा से आरम्भ हुआ। 1764 ई0 में बक्सर के पश्चात् उन्होंने मुगल बादशाह से इन सूबों की दीवानी प्राप्त की और क्लाइव ने इन सूबों में ‘द्वैध-शासन’ स्थापित किया। उस शासन से न केवल इन सूबों की स्थिति दयनीय हो गयी बल्कि कम्पनी की आर्थिक स्थिति भी सोचनीय हो गयी जिसके कारण कम्पनी को अंग्रेज सरकार से कर्ज माँगना पड़ा। ‘ब्रिटिश संसद ने 14,00,000 पौण्ड का कर्ज तो कम्पनी को दे दिया परन्तु साथ ही भारत में कम्पनी के शासन में सुधार हेतु 1773 ई० में एक कानून भी बनाया जिसे रेगूलेटिंग एक्ट पुकारा गया। इस एक्ट की निम्नलिखित धाराएँ थीं :
- बंगाल के गवर्नर को भारत का गवर्नर-जनरल बनाया गया तथा मद्रास और बम्बई के गवर्नर उसके अधीन कर दिये गये।
- गवर्नर-जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद नियुक्त की गयी, जिसमें निर्णय बहुमत से होता था। गवर्नर जनरल केवल उसी समय निर्णायक मत दे सकता था, जब परिषद के सदस्यों के मत बराबर संख्या में विभाजित हो जायें।
- कलकत्ता में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गयी।
- प्रोप्राइटरों की मत देने की योग्यता 500 पौण्ड से बढ़ा कर 1000 पौण्ड कर दी गयी तथा मत देने का अधिकार केवल उन्हीं को दिया गया जो इस धनराशि को कम से कम एक वर्ष तक जमा रख सकते थे।
- डायरेक्टर चार वर्ष के लिए चुने जायेंगे जिनमें से एक चौथई सदस्य प्रत्येक वर्ष त्यागपत्र देते रहेंगे और कम से कम अगले एक वर्ष तक डायरेक्टर नहीं बनेंगे। डायरेक्टरों को कम्पनी की धन सम्बन्धी रिपोर्ट ब्रिटिश अर्थ-मन्त्री को तथा सैनिक और राजनीतिक कार्यो की रिपोर्ट अंग्रेज विदेश-मन्त्री को देनी होगी।
उपर्युक्त एक्ट में अनेक दोष थे इसने गवर्नर-जनरल को उसकी परिषद की अपेक्षाकृत बहुत अधिक दुर्बल कर दिया था, उच्चतम न्यायालय के अधिकारी की स्पष्ट व्याख्या नहीं की थी और न यह बताया था कि उसे किन कानूनों के आधार पर न्याय करना था। इसमें मद्रास और बम्बई के गवर्नरों के गवर्नर-जनरल से सम्बन्ध भी स्पष्ट नहीं किये गये थे। फिर भी इस कानून का पर्याप्त महत्व था। वह अंग्रेजी संसद का कम्पनी के शासन में प्रथम हस्तक्षेप था जिसके आधार पर आगे आने वाले कानूनों की रूपरेखा तैयार हुई।
पिट्स इण्डिया एक्ट (Pitt’s India Act, 1784 ई०)
रेगूलेटिंग एक्ट के दोष उसके व्यवहार में आने से प्रकट हो गये। इस कारण उसके दोषों को दूर करने हेतु ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री पिट ने 1784 ई० में यह नवीन एक्ट बनाया। इस एक्ट की निम्नलिखित धाराएँ थीं :
- भारत में कम्पनी के शासन की देखभाल के लिए छह सदस्यों की एक अधिकार-सभा स्थापित की गयी। इसके सदस्यों की नियुक्ति और पदच्युति का अधिकार ब्रिटेन के राजा को था। ब्रिटेन का अर्थ-मन्त्री तथा विदेश-मन्त्री इसके सदस्य थे।
- कम्पनी के डायरेक्ट्रों की एक गुप्त-सभा बनायी गयी जो अधिकार सभा के आदेशों को भारत भेजती थी। कम्पनी के प्रोप्राइटरों को डायरेक्टरों के उन आदेशों को स्थगित करने का अधिकार न रहा जिन्हें अधिकार-सभा स्वीकृत कर चुकी होती थी।
- भारत के गवर्नर जनरल की परिषद् के सदस्यों की संख्या चार से घटाकर तीन कर दी गयी। मद्रास और बम्बई के गवर्नर पूर्णतः गवर्नर-जनरल के अधीन कर दिये गये।
1786 ई० में कुछ अन्य कानून भी बनाये गये जिनमें से एक के अनुसार गवर्नर-जनरल को समय-समय पर अपनी परिषद की राय के विरुद्ध कार्य करने का अधिकार दिया गया और उसे भारत की अंग्रेजी सेना का सेनापति भी नियुक्त किया गया।
इस कानून ने रेगूलेटिंग एक्ट के दोषों को पर्याप्त मात्रा में दूर किया। गवर्नर-जनरल अपनी परिषद तथा प्रान्तीय गवर्नरों की तुलना में अधिक शक्तिशाली हो गया जिससे शासन में एकता और दृढ़ता सम्भव हो सकी। अधिकार-सभा के बनने और उसमें ब्रिटिश केबिनेट के दो सदस्यों के हाने से भारतीय शासन में ब्रिटिश सरकार के अधिकारों में वृद्धि हुई और कम्पनी के डायरेक्टरों के अधिकार सीमित हो गये।
1793 ई० का आदेश-पत्र
इस आदेश पत्र द्वारा विशेष परिस्थितियों में गवर्नरों को भी अपनी परिषदों की राय के विरुद्ध काम करने का अधिकार दिया गया तथा कम्पनी का अगले बीस वर्षों के लिए पूर्वी देशों से व्यापार करने का एकाधिपत्य सुरक्षित हो गया।
1813 ई० का आदेश-पत्र
इस आदेश-पत्र की धाराएँ निम्नलिखित थीं :
- यह निश्चित कर दिया गया कि भारतीय अंग्रेजी राज्य की सम्प्रभुता ब्रिटेन के सम्राट में निहित है।
- भारत से व्यापार करने का कम्पनी का एकाधिपत्य समाप्त कर दिया गया और सभी अंग्रेज व्यापारियों को भारत से व्यापार करने क आज्ञा दे दी गयी।
- कम्पनी का चीन से अफीम और चाय के व्यापार का एकाधिपत्य सुरक्षित रहा।
- ईसाई धर्म-प्रचारकों को आज्ञा प्राप्त करके भारत में धर्म-प्रचार के लिए आने की सुविधा प्राप्त हो गयी।
- कम्पनी की आय में से भारतीयों की शिक्षा के लिए प्रति वर्ष एक लाख रुपया व्यय करने की व्यवस्था की गयी।
इस आदेश-पत्र द्वारा भारत में कम्पनी के शासन पर ब्रिटिश संसद और राजा के अधिकार को मान्यता दी गयी। प्रथम बार कम्पनी को भारतीयों की शिक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा गया। सभी अंग्रेजों को भारत से व्यापार करने की आज्ञा देने से भारत के आर्थिक शोषण में वृद्धि हुई। औद्योगिक क्रान्ति के कारण इंग्लैंण्ड के उद्योगों की जो प्रगति हो रही थी उनके लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी और बने हुए माल के लिए बाजार की आवश्यकता थी। इसी कारण यह सुविधा अंग्रेज व्यापारियों को दी गयी थी। अंग्रेज धर्म-प्रचारकों को भारत आने की सुविधा प्रदान करके भारत में ईसाई धर्म के प्रचार की सुविधा प्रदान की गयी।
1833 ई० का आदेश-पत्र
इस आदेश-पत्र की निम्नलिखित शर्ते थीं:
- चीन से व्यापार करने का कम्पनी का एकाधिपत्य समाप्त कर दिया गया।
- गवर्नर-जनरल और उसकी परिषद को सम्पूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया जिससे प्रान्तों के हाथों से विधि-निर्माण की शक्ति जाती रही।
- गवर्नर-जनरल की परिषद (Council) में एक चौथा सदस्य विधि-विशेषज्ञ के रूप में बढ़ा दिया गया।
- अंग्रेजों को भारत में भूमि खरीदने का अधिकार दिया गया।
- यह घोषणा की गयी कि सरकारी सेवाओं में प्रत्येक व्यक्ति योग्यतानुसार स्थान प्राप्त कर सकेगा।
- आगरा व पश्चिमी अवध को सम्मिलित करके एक नवीन प्रान्त ‘उत्तर-पश्चिमी प्रान्त’ की स्थापना की गयी।
इस आदेश-पत्र द्वारा केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाया गया तथा अंग्रेजों को भारत आने और यहाँ बसने की आज्ञा प्रदान की गयी। इस आदेश-पत्र द्वारा केन्द्रीय सरकार को शक्तिशाली बनाया गया तथा अंग्रेजों को भारत आने और यहाँ बसने की आज्ञा प्रदान की गयी।
1853 ई० का आदेश-पत्र
इस आदेश-पत्र की शर्ते निम्नवत् थीं :
- ब्रिटिश संसद को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वह किसी भी समय अपनी इच्छानुसार कम्पनी से भारत का शासन अपने हाथों में ले सकती थी।
- कम्पनी के डायरेक्टरों की संख्या 24 से घटाकर 18 कर दी गयी जिनमें से 6 की नियुक्ति ब्रिटेन के राजा (Crown) द्वारा होनी थी। गवर्नर-जनरल और गवर्नरों की परिषदों के सदस्यों की नियुक्ति भी बिना ब्रिटिश क्राउन की सम्मति के नहीं हो सकती थी।
- सरकारी सेवाओं के लिए परीक्षा की व्यवस्था की गई।
- बंगाल के लिए पृथक लेफ्टिनेंट-गवर्नर की नियुक्ति की गयी।
- गवर्नर-जनरल की परिषद में कानून-निर्माण में सहायता देने के लिए छह नवीन सदस्यों की नियुक्ति की गयी यद्यपि गवर्नर-जनरल उन सभी की राय को ठुकराने का अधिकार रखता था।
यह आदेश-पत्र केवल दो बातों के कारण महत्वपूर्ण माना गया है। प्रथम, इसके द्वारा ब्रिटिश संसद को किसी भी समय कम्पनी के शासन को भारत से समाप्त करने का अधिकार मिला। द्वितीय, इसके द्वारा पहली बार भारत में बहुत सीमित अधिकार देकर केन्द्र पर व्यवस्थापिका-सभा की स्थापना की गयी। गवर्नर जनरल की बढ़ी हुई परिषद ने ही व्यवस्थापिका-सभा की तरह कार्य करना आरम्भ किया।
1853 ई० के आदेश-पत्र से भारत के संवैधानिक विकास का प्रथम चरण समाप्त हो गया। इस समय में विभिन्न आदेश-पत्रों द्वारा ब्रिटिश संसद ने न केवल भारतीय शासन के लिए कम्पनी को आदेश प्रदान किये थे अपितु कम्पनी के संचालकों सम्बन्धी नियम भी बनाये थे। परन्तु उसने भारत के शासन का प्रयत्क्ष उत्तरदायित्व ग्रहण नहीं किया था। 1857 ई0 में भारत में एक विप्लव हुआ जिसे 1857 ई० के विद्रोह या प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता-संग्राम के नाम से पुकारा गया। इसके पश्चात् 1858 ई0 के कानून द्वारा भारत में कम्पनी का शासन समाप्त कर दिया गया और यह शासन ब्रिटिश क्राउन को प्राप्त हो गया। उस समय से भारत के संवैधानिक विकास का दूसरा चरण आरम्भ हुआ। उस समय भी संसद ने समय-समय पर भारतीय शासन के लिए विभिन्न नियम बनाये थे। इस द्वितीय चरण की एक विशेषता है जो हमें प्रथम चरण में दिखायी नहीं दी। इस समय भारत में एक शक्तिशाली राष्ट्रीय भावना का उदय हुआ और भारत में शासन-सुधारों तथा अन्त में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग हुई। ब्रिटेन में शासन करने वालों के सम्मुख इस समय न केवल भारत के अच्छे शासन की समस्या थी बल्कि उन्हें किसी न किसी मात्रा में भारतीयों की स्वशासन की माँग को भी सन्तुष्ट करना था। इस कारण भविष्य में जो भी सुधार किये गये उनके अन्तर्गत भारतीयों को शासन में भाग लेने का अधिकार दिया गया। धीरे-धीरे व्यवस्थापिका-सभा के सदस्यों में वृद्धि, उनके अधिकारों में वृद्धि, उनमें अधिकाधिक भारतीयों का सहयोग, कार्यपालिका पर व्यवस्थापिका-सभा का नियन्त्रण और भारतीयों का कार्यपालिका में प्रतिनिधित्व, मतदाताओं की संख्या में वृद्धि आदि विभिन्न कार्य किये गये जिससे भारतीय शासन की प्रजातान्त्रिक रूपरेखा का धीरे-धीरे विकास हुआ। इसी काल में भारतीयों ने प्रजातान्त्रिक व्यवस्था और उसकी संसदीय प्रणाली का ज्ञान और अनुभव प्राप्त किया। विभिन्न सुधारों द्वारा अंग्रेजी शासन-पद्धति को धीरे-धीरे भारत में स्थापित किया गया जिसके परिणामस्वरूप भारत का नवीन संविधान उन्हीं सुधारों के शिलाखण्डों पर बना। इसी कारण भारत की नवीन शासन-पद्धति ब्रिटेन की शासन-पद्धति के समान है।
महत्वपूर्ण लिंक
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