विशिष्ट अनुतोष अधिनियम के अंतर्गत उपचार (Remedies Under Specific Relief Act)

विशिष्ट अनुतोष अधिनियम के अंतर्गत उपचार

जब एक पक्षकार अपने दिये हुए वचन को निभाने में असफल हो जाता है तो दूसरे को यह अधिकार होता है कि न्यायालय से अनुतोष की याचना करे यह सिद्धान्त साम्य के सिद्धान्त से सम्बन्ध रखता है इसके लिए सम्यिक न्यायालयों ने पाँच प्रकार के उपचारो की व्यवस्था की है अतः पीड़ित पक्षकारा विशिष्ट अनुतोष अधिनियम के अर्न्तगत निम्नलिखित उपचारों को प्राप्त कर सकता है।

  1. विशिष्ट अनुपालन-

    सामान्य विधि के अधीन किसी व्यथित व्यक्ति को मात्र क्षतिपूर्ति में धन दिलाने का आदेश दिया जाता था, चाहे ऐसी क्षतिपूर्ति के लिए धन पर्याप्त हो या न हो। परन्तु विशिष्ट अनुपालन के अन्तर्गत एक पक्षकार को दूसरे पक्षकार के प्रति उन्हीं आभारों को सम्पूर्ण रूप में दिलाये जाने का आदेश पारित किया जाता है, जिसे कि वह वास्तव में पाने का अधिकारी है; अथवा जो उस संविदा की शर्तों में उल्लिखित था। विशिष्ट अनुपालन दो प्रकार का हो सकता है- एक तो सकारात्मक एवं दूसरा नकारात्मक। परन्तु विशिष्ट अनुपालन के अन्तर्गत सकारात्मक अनुपालन आते हैं, जबकि नकारात्मक उपचार एक अन्य उपचार निषेधाज्ञा के अन्तर्गत आते हैं, जिसमें किसी कार्य को न करने का आदेश दिया जाता है। विशिष्ट पालन में प्रतिवादी को उस कार्य को करने के लिए बाध्य करना है, जिसे कि पूर्ण करने का वचन उसने संविदा में दिया था। प्रारम्भिक समय में साम्य न्यायालयों को यह अधिकार प्राप्त था कि वे किसी संविदा के पक्षों को, संविदा भंग होने की दशा में क्षतिपूर्ति अदा करने को विवश करें। परन्तु यह क्षतिपूर्ति उस संविदा के परिप्रेक्ष्य में अपर्याप्त होती थी।

  2. निषेधाज्ञा –

    साम्य विधि के अधीन पीड़ित पक्ष को जो दूसरा उपचार साम्य न्यायालयों द्वारा प्रदान किया जाता है, वह निषेधाज्ञा है। इसके अन्तर्गत न्यायालय संविदा के किसी पक्ष को कोई कार्य करने से रोकने या किसी विशेष कार्य या चीज को करने का आदेश देता है। इस प्रकार से निषेधाज्ञाएँ सकारात्मक एवं नकारात्मक दो प्रकार की होती हैं। सकारात्मक निषेधाज्ञा को हम आज्ञात्मक निषेधाज्ञाएँ भी कहते हैं, जिसमें किसी व्यक्ति को कोई ऐसा कार्य आगे न करने का आदेश दिया जाता है जिसे कि वह पूर्व में ही शुरू कर चुका है। नकारात्मक निषेधाज्ञा के अन्तर्गत किसी घोषित कार्य को न करने का आदेश या ऐसे कार्य को जारी न रखे जाने का आदेश दिया जाता है जोकि पहले ही शुरू हो चुका है। निषेधाज्ञाएँ न्यायालयों द्वारा सामान्यतया विधिक प्रक्रिया के अवैध प्रयोग को रोकने के लिए या उनके उचित प्रयोग में तकनीकी बाधाएँ हटाने के लिए या लोक या वैयक्तिक अधिकारों के हनन को रोकने आदि का आदेश दिया जाता है। ये निषेधाज्ञाएँ पहले तो अस्थायी रूप में अन्तरिम आदेशों के रूप में जारी की जाती हैं, परन्तु मामले के निस्तारण के बाद इनका रूप स्थायी हो जाता है।

  3. आदाता या प्रापक-

    जब किसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में कोई वाद न्यायालय में विचाराधीन हैं जिसमें कि कई पक्षकार हैं, तो ऐसी स्थिति में यह निश्चित करना शीघ्रता का कार्य नहीं होता है कि इस सम्पत्ति का सही हकदार कौन-सा पक्ष है? ऐसी स्थिति में साम्या का क्षेत्राधिकार प्रारम्भ होता है, जिसमें कि वह किसी व्यक्ति को उस विवादित सम्पत्ति का प्रापक नियुक्त करती है, परन्तु प्रापक स्वयं उस सम्पत्ति पर अपना कब्जा नहीं लेता है, बल्कि उस सम्पत्ति से प्राप्त किराया या लगान अथवा लाभों की वसूली करता है जिसको वह अपनी नियुक्ति की शर्तों अथवा न्यायालय के आदेशों के अनुरूप व्यय करता है। प्रापक की स्थिति एक प्रकार से जमानती या प्रतिभू जैसी होती हैं जो कि विवाद के निस्तारण तक रहती है।

न्यायालय प्रापक की नियुक्ति आदि के सम्बन्ध में दीवानी प्रक्रिया संहिता के आदेश 40 के नियम 1 लगायत 5 के प्रावधान लागू करते हैं।

  1. विलेखों का परिशोधन-

    यदि किसी मामले में किसी विलेख को पक्ष या पक्षकारों की तरफ से निष्पादित किया गया है, परन्तु लेखक की गलती या अज्ञानता या कपट के कारण उसका आशय स्पष्ट नहीं हो पा रहा हो, तो न्यायालय उस लिखत या विलेख के आशय को निश्चित कर उस विलेख को आशय के अनुरूप परिशोधित करने का आदेश दे सकता है। उदाहरण के लिए, यदि किन्हीं पक्षों के मध्य किसी धन के बँटवारे के सम्बन्ध में कोई समझौता होता है तथा समझौता पत्र को लिखने वाले लेखक उसमें अपनी तरफ से ही बिना पक्षों को पूछे या बिना उनकी राय के कुछ शर्त लिख देता है जिन्हें कि न्यायालय पक्षों की शर्त समझता है तो ऐसी स्थिति में न्यायालय पक्षकारों को विलेख के परिशोधन की स्वीकृति प्रदान कर देगा। परन्तु न्यायालय किसी विलेख के परिशोधन का आदेश देने से पूर्व उस अभिलेख का लिखित रूप में पूर्ण अनुबन्ध चाहेगा जिसको कि परिशोधित किया जाना है, तथा दोनों ही पक्षों को यह आशय प्रकट करना चाहिए कि पूर्व अनुबन्ध की शर्तें लिखित रूप में होनी चाहिए तथा उसका आशय अन्य पक्षों के प्रति अपरिवर्तित रहना चाहिए। साथ ही परिशोधन के अन्तर्गत केवल भाषा सम्बन्धी ही भूल को सही किया जा सकता है, क्योंकि परिशोधन के अन्तर्गत केवल गलती को ही दुरुस्त किया जा सकता है, सम्पूर्ण विलेख को नहीं। परिशोधन का आदेश उस मामले के प्रस्तुतीकरण के लिए भी नहीं दिया जा सकता जो कि दोनों पक्षों द्वारा पूर्णरूप से नकार दिया गया था और न इस आदेश द्वारा अनुबन्ध में ऐसी कोई नई शर्त जोड़ी जा सकती है, जोकि पक्षों के मध्य तय न हुई हो।

  2. लेखा-

    यदि कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति को धारण किये हुए है अथवा उसके द्वारा किसी सम्पत्ति को धारण करना आशयित है तो न्यायालय उस व्यक्ति को उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में हिसाब-किताब अथवा लेखा तैयार कर न्यायालय के समक्ष निरीक्षण हेतु प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता है। लेखा प्रस्तुत करने का यह आदेश मामले की कार्यवाही के दौरान किसी भी स्तर पर माँगा जा सकता है तथा इस आदेश के अधीन लेखा तैयार करने से सम्बन्धित विशेष तरीका अपनाने के सम्बन्ध में भी निर्देश दिया जा सकता है, क्योंकि किसी मामले से सम्बन्धित लेखा पुस्तकें प्रथम दृष्ट्या उस मामले के सम्बन्ध में सत्यता का साक्ष्य होती हैं।

विशिष्ट अनुतोष के अधीन उपरोक्त उपचार वे हैं, जो विधिवेत्ता ऑस्टिन द्वारा इंगित किये गये हैं। इसके अतिरिक्त विशिष्ट अनुतोष अधिनियम निम्नलिखित उपचारों की भी व्यवस्था करता है-

  • सम्पत्ति आधिपत्य की पुनः प्राप्ति जो कि धारा 5 से 8 के अन्तर्गत उपबन्धित है;
  • संविदाओं का विशिष्ट अनुपालन जो कि धारा 9 से 25 तक उपबन्धित है;
  • विलेखों का परिशोधन जोकि धारा 26 के अन्तर्गत उपबन्धित है;
  • संविदाओं का विखण्डन जो कि धारा 27 से 30 तक उपबन्धित है;
  • विलेखों का निरसन जो कि धारा 31 से 33 तक उपवन्धित है;
  • घोषणात्मक आज्ञप्तियाँ जो धारा 34 व 35 में उपबन्धित हैं; तथा
  • निषेधात्मक अनुतोष जोकि धारा 36 से 42 तक उपबन्धित है।

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