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संविदा कल्प (Quasi Contract)

संविदा कल्प (Quasi Contract)

संविदा कल्प

ऐसे सम्बन्ध जो संविदा के द्वारा प्राप्त हुए सम्बन्धो के समान होते हैं किन्तु वे किसी संविदा द्वारा सृजित नहीं होते अंग्रजी विधि में इसे ही संविदा कल्प कहते है अतः वास्तविक और तकनीकी अर्थ में संविदा न होते हुए भी विधि द्वारा संविदा माने जाते है।

भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारायें 68 से 72 तक संविदा कल्प का विवेचन है। कुछ विशेष परिस्थितियों में प्राकृतिक न्याय और साम्य के आधार पर विधि वास्तविक संविदा के समान ही दायित्व किसी व्यक्ति पर अधिरोपित कर देती है। ये सम्बन्ध संविदा द्वारा सृजित सम्बन्धों के समान होते हैं, परन्तु विधिमान्य संविदा द्वारा सर्जित नहीं होते हैं। ऐसे सम्बन्धों के निर्माण के लिए किसी अभिव्यक्ति या विवक्षित संविदा की आवश्यकता नहीं होती है। संविदा कल्प के लिए न तो किसी प्रस्थापना की आवश्यकता होती है और न ही किसी प्रतिग्रहण की आवश्यकता होती है। पक्षकारों का आशय संविदा अर्जित करने का होना भी आवश्यक नहीं है। इसके साथ ही पक्षकारों की सहमति की भी आवश्यकता नहीं होती है। वास्तव में संविदा कल्प की दशा में संविदा के समान आभार विधि द्वारा आरोपित किया जाता है।

अंग्रेजी विधि में ऐसे सम्बन्धों को संविदा कल्पं या आभास संविदा नाम दिया गया है, परन्तु यह नाम बहुत अच्छा नहीं है। सर फ्रेडरिक पोलक ने इसे प्रलक्षित संविदा का नाम दिया है। इसे विधि में विवक्षित संविदा भी कहा जाता है। परन्तु भारतीय संविदा अधिनियम में प्रयुक्त शब्दावली बेहतर प्रतीत होती है। भारतीय संविदा अधिनियम में इसे “संविदा द्वारा सृजित सम्बन्धों के सदृश सम्बन्ध” नाम दिया गया है।

भारत में संविदा कल्प अर्थात् संविदा द्वारा अर्थात् सम्बन्धों के सदृश सम्बन्ध का आधार अन्यायपूर्ण ढंग से धनवान न होने देने के नियम को माना जाता है। अन्यायपूर्ण ढंग से धनवान न होने देने का नियम उस स्थिति में लागू होगा जबकि निम्नलिखित परिस्थितियाँ विद्यमान हों-

  • प्रतिवादी लाभ प्राप्त करके धनवान हुआ हो;
  • प्रतिवादी, वादी को हानि पहुंचाकर इस प्रकार धनवान हुआ हो; और
  • प्रतिवादी के इस प्रकार धनवान होने को बनाये रखना अन्यायपूर्ण हो ।

संविदा-कल्प के प्रकार

संविदा अधिनियम की धारा 68 से 72 तक संविदा कल्प के प्रकारों से सम्बन्धित है। इन धाराओं में पाँच प्रकार के संविदा कल्प का उल्लेख है जिनका विवरण अग्रलिखित है-

  1. संविदा करने में असमर्थ व्यक्ति को या उसके लेखे प्रदान की गयी वस्तुओं के लिए दावा (धारा 68) –

    यदि संविदा करने में असमर्थ व्यक्ति को या किसी ऐसे व्यक्ति को जिसका पालन पोषण करने के लिए वह वैध रूप में बाध्य है आवश्यक वस्तुयें किसी व्यक्ति द्वारा दी जाती हैं तो देने वाला व्यक्ति ऐसे असमर्थ व्यक्ति की सम्पत्ति से प्रतिपूर्ति के लिए हकदार होगा। इसके लिए आवश्यक है कि ऐसे व्यक्ति को दी गयी वस्तुयें जीवन में उसकी स्थिति के योग्य आवश्यक वस्तुयें हों। आवश्यक वस्तुओं से तात्पर्य ऐसी वस्तुओं से है जो जिस व्यक्ति को प्रदान की गया है उस उस स्थिति में बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि जिसमें वह है। अवयस्क की शिक्षा के लिए व्यय, अवयस्क की बहन के विवाह के लिए व्यय, अवयस्क के माता-पिता या उसकी सन्तान या उसकी पत्नी या उसके पति की अन्त्येष्टि क्रिया पर व्यय, अवयस्क के पूर्वजों के श्राद्ध सम्पन्न करने पर व्यय, अवयस्क के विरुद्ध चलायी गई सिविल या क्रिमिनल कार्यवाहियों से बचाव पर व्यय को आवश्यक वस्तुओं में सम्मिलित किया जाता है और इसके लिए धन देने वाला व्यक्ति अवयस्क की सम्मति में प्रतिपूर्ति का हकदार होगा प्रतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि जिस अवयस्क या संविदा करने में अक्षम व्यक्ति को वस्तुयें दी गयी है उसके पास वे वस्तुयें परिदान की तिथि पर पर्याप्त मात्रा में न हों। वस्तुयें देने वाले को यह सिद्ध करना पड़ेगा कि दी गयी वस्तुयें उसे उसके जीवन स्तर में बनाये रखने के लिए आवश्यक थी और देने के समय उसके पास उन वस्तुओं की पर्याप्त आपूर्ति नहीं थी। भारतीय विधि में प्रदान की गयी वस्तुओं के लिए अवयस्क या संविदा करने में अक्षम व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से दायी नहीं होता है, केवल उसकी सम्मति से प्रति-पूर्ति प्राप्त की जा सकती है, परन्तु अंग्रेजी विधि में वह व्यक्तिगत रूप से दायी होता है।

  2. उस व्यक्ति को प्रतिपूर्ति जो किसी अन्य द्वारा शोध्य (देय) ऐसा धन देता है जिसके संदाय में वह व्यक्ति हितबद्ध है (धारा 69)-

    यदि कोई व्यक्ति जो भुगतान में हितबद्ध है उस समय भुगतान करता है जबकि भुगतान के लिए विधि द्वारा बाध्य व्यक्ति भुगतान नहीं करता है तो वह उससे प्रतिपूर्ति प्राप्त कर सकता है। अंग्रेजी विधि में भुगतान करने वाला व्यक्ति विधि के द्वारा दूसरे व्यक्ति के ऋण या दायित्व के उन्मोचन हेतु बाध्य होना चाहिए, परन्तु भारतीय विधि में इतना ही पर्याप्त है कि उक्त भुगतान में उसका हित हो । यदि भुगतान करने वाला भुगतान में केवल हितबद्ध ही नहीं हैं बल्कि बाध्य है तो दूसरे व्यक्ति से प्रतिपूर्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। यदि भुगतान करने वाला किसी अन्य को नहीं स्वयं को भुगतान करता है तो इस धारा में प्रतिपूर्ति प्राप्त नहीं कर सकता।

  3. आनुग्रहिक कार्य या फायदा उठाने वाले व्यक्ति की बाध्यता (धारा 70) –

    यदि कोई व्यक्ति विधिपूर्वक किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई कार्य करता है या उसे कोई वस्तु प्रदान करता है और उसका आशय ऐसा कार्य निःशुल्क करने या कोई वस्तु निःशुल्क प्रदान करने का नहीं रहा है और दूसरा व्यक्ति उस कार्य या वस्तु का लाभ उठाता है तो लाभ उठाने वाला व्यक्ति उसे वापस करने या उसके लिए प्रतिकर देने के लिए दायी होगा। धारा 70 का उपबन्ध सरकार और निगमों के सम्बन्ध में भी लागू होता है, परन्तु अवयस्क के सम्बन्ध में लागू नहीं होता है।

  4. माल पड़ा पाने वाले का उत्तरदायित्व (धारा 71) –

    वह व्यक्ति, जो किसी अन्य का माल पड़ा पाता है और उसे अपनी अभिरक्षा में लेता है, उसी उत्तरदायित्व के अधीन होता है जिसके अधीन उपनिहिती होता है। उपनिहिती के कर्तव्य का उपबन्ध धारा 151 से 157, 159 से 163 और 165 से 167 में मिलती है।

  5. उन व्यक्तियों का दायित्व जिन्हें भूल या उत्पीड़न के अन्तर्गत कोई धन या वस्तु दी गयी हैं (धारा 72)-

    जिसे भूल के अन्तर्गत धन या वस्तु दी गयी है वह उसे वापस करने के लिए बाध्य है। भूल के अन्तर्गत तथ्य की भूल और विधि की भूल दोनों ही सम्मिलित हैं। परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती हैं जिसमें विबन्धन इत्यादि के आधार पर धन या माल देने वाले को अनुतोष प्रदान करना न्यायोचित न हो। भूल के अन्तर्गत दी गयी वस्तु तब तक वापस ली जा सकती है जब तक पुरानी स्थिति बनी रहती है और प्राप्त करने वाले ने उस धन या वस्तु को किसी अन्य व्यक्ति को दे देता है तो वापस करने के लिए दायी नहीं होगा। धारा 72 के अन्तर्गत जिस व्यक्ति को उत्पीड़न के अन्तर्गत धन या वस्तु दी गयी है उसे उस धन या वस्तु को वापस करना पड़ेगा। ‘उत्पीड़न’ का वह अर्थ नहीं हैं जो धारा 15 में दिया गया है। इसका प्रयोग सामान्य अर्थ में किया गया है। यदि कोई अवैध बाध्यता के अन्तर्गत दूसरे व्यक्ति को धन या वस्तु देता है तो उसे वसूल कर सकता है।

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