संविदा के उन्मोचन क्या है?

संविदा का उन्मोचन

संविदा का उन्मोचन (Discharge of Contract)

संविदा का उन्मोचन अधिनियम में उपबन्धित रीतियों से यथा होता है, संविदा जब पक्षकारों पर बन्धनकारी न रह जाये तो यह कहा जाता है कि संविदा उन्मुक्त हो गयी है। संविदा का उन्मोचन निम्नलिखित रीतियों से किया जाता है-

संविदाएं जिनका पालन करना होगाः

धारा 37 स्पष्ट कर देती है कि संविदा के पक्षकारों को अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन करना चाहिये या पालन करने की प्रस्थापना करनी चाहिये, जब तक कि ऐसा पालन इस अधिनियम या किसी अन्य विधि के अन्तर्गत अभिमुक्त या अभिक्षम्य न कर दिया गया हो। यदि कोई पक्षकार पालन करने की प्रस्थापना करता है और दूसरा पक्षकार उसे स्वीकार नहीं करता है तो वह संविदा के अपालन के लिये दायी नहीं होगा और न ही संविदा के अधीन अपने अधिकार को इस खोयेगा, परन्तु इसके लिये आवश्यक है कि पालन करने की प्रस्थापना निम्नलिखित शर्तों को पूरा करती हो-

  • प्रस्थापना शर्तरहित होनी चाहिये,
  • प्रस्थपना उचित समय और स्थान पर की जानी चाहिये। यदि संविदा के अन्तर्गत पक्षकारों ने संविदा के पालन का समय और स्थान निश्चित कर दिया है तो संविदा का पालन उसी समय और उसी स्थान पर किया जाना चाहिये जो संविदा में उल्लिखित है।
  • प्रस्थापना ऐसी परिस्थितियों में की जानी चाहिये कि जिसको प्रस्थापना की गई है, उसे वह निश्चित करने का युक्तियुक्त अवसर प्राप्त हो कि जिस व्यक्ति ने ऐसी प्रस्थापना की है, वह समस्त, जिसे करने को अपनी प्रतिज्ञा द्वारा आबद्धहै, वहीं और उसी समय करने के लिये समर्थ और रजामन्द है; और
  • यदि प्रस्थापना प्रतिज्ञाग्रहीता को कोई चीज परिदत्त करने के लिए है तो प्रतिज्ञाग्रहीता को यह देखने का युक्तियुक्त अवसर हो कि जो वस्तुत प्रस्तुत की गई वह वही वस्तु है जिसे परिदत्त करने के लिए प्रतिज्ञाकर्ता अपनी प्रतिज्ञा द्वारा बाध्य है।

कई संयुक्त प्रतिज्ञाग्रहीताओं में से किसी एक को प्रस्थापना करने का वैसा ही वैध परिणाम होता है जो उन सबसे की गई प्रस्थापना का होता । संविदा के पक्षकारों को अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन करना अथवा पालन करने की प्रस्थापना करना तभी आवश्यक है जबकि उन्हें भारतीय संविदा अधिनियम अथवा किसी अन्य विधि के अन्तर्गत ऐसे पालन से अभियुक्त या माफी न दी गई हो।

संविदा का पालन किसे करना होगा ? (धारा 40-45)

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 40 के अनुसार यदि मामले की प्रकृति से ऐसा प्रतीत होता है कि संविदा के पक्षकारों का आशय यह था कि उसमें अन्तर्विष्ट प्रतिज्ञा का प्रतिज्ञाकर्ता द्वारा स्वयं पालन किया जाय, ऐसी प्रतिज्ञा (वचन) का पालन स्वयं प्रतिज्ञाकर्ता (वचनदाता) द्वाना किया जाना चाहिये, परन्तु दूसरे मामलों में प्रतिज्ञाकर्ता अथवा उसका प्रतिनिध उसके पालन हेतु किसी सक्षम व्यक्ति को नियोजित कर सकता है। यदि संविदा का आधार पक्षकार का व्यक्तिगत कौशल है अथवा पक्षकारों के मध्य विशेष वैयक्तिक विश्वास है तो उसे स्वयं संविदा का पालन करना होगा और वह उसका पालन किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा नहीं करवा सकता है।

अधिनियम की धारा 41 के अनुसार यदि प्रतिज्ञाग्रहीता (वचनग्रहीता) किसी व्यक्ति द्वारा प्रतिज्ञा (वचन) का पालन स्वीकार कर लेता है तो वह बाद में उस प्रतिज्ञा (वचन) के पालन के लिए प्रतिज्ञाकर्ता से नहीं कह सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि उस तीसरे व्यक्ति ने संविदा का पालन पूर्ण रूप से किया हो आंशिक रूप से संविदा का पालन इस निमित्त पर्याप्त नहीं है।

अधिनियम की धारा 42 के अनुसार जब दो या दो से अधिक व्यक्ति संयुक्त प्रतिज्ञा (वचन) के करता है तो जब तक कि संविदा से प्रतिकूल आशय प्रतीत न हों, वे सभी व्यक्ति अपने जीवन-काल में संयुक्त रूप से उस प्रतिज्ञा (वचन) पूरा करने के लिये उत्तरदायी होंगे।

संविदा अधिनियम की धारा 39 संविदा-भंग द्वारा उन्मोचन से सम्बन्धित है। इस धारा के अनुसार, जब संविदा का एक पक्षकार संविदा का पालन नहीं करता है जबकि विधि के अन्तर्गत वह उसका पालन करने के लिए बाध्य है तो दूसरा पक्षकार भी उस संविदा के पालन के दायित्व से मुक्त हो जाता है और वह संविद-भंग के कारण होने वाली हानि के लिये संविदा-भंग करने वाले पक्षकार से प्रतिकर वसूल कर सकता है। संविदा-भंग भी संविदा के उन्मोचन का एक ढंग होता है। धारा 39 में यह भी वर्णित है कि जब संविदा का एक पक्षकार अपनी पूरी प्रतिज्ञा का पालन करने से इन्कार कर देता है या अपनी पूरी प्रतिज्ञा का पालन कराने में अपने को निर्योग्य बना देता है तो दूसरा पक्षकार, जब तक उसने उसको चालू रखने की शब्दों द्वारा या आचरण द्वारा उपमति संज्ञात न कर दी हो, संविदा का अन्त कर सकता है।

पालन की असम्भवता की स्थिति में उन्मोचन विफलता या व्यर्थता का सिद्धान्त

संविदा अधिनियम की धारा 56 पालन की असम्भवता की स्थिति में उन्मोचन विफलता या व्यर्थता के सिद्धान्त से सम्बन्धित है। इस अधिनियम की संविदा-पालन की असंम्भवता संविदा के उन्मोचन का एक ढंग है। जब संविदा का पालन करना असम्भव हो जाता है तो वह शून्य हो जाती है और संविदा के पक्षकार उसके पालन के दायित्व से मुक्त हो जाते हैं।

अधिनियम की धारा 56 का पालन के असम्भवता से सम्बन्धित है। संविदा-पालन की असम्भवता संविदा के उन्मोचन का एक ढंग है। जब संविदा का पालन करना असम्भव हो जाता है तो वह शून्य हो जाती है। कभी-कभी ऐसा होता है कि जिस समय संविदाका निर्माण होता है, उसी समय उसका पालन करना असम्भव होता है। उदाहरण के लिए क, ख के साथ करार करता है कि वह किसी मृतक व्यक्ति को जीवित कर देगा। मृतक व्यक्ति को जीवित करना असम्भव कार्य है। जब पालन करना उसके निर्माण के समय से ही असम्भव है तो प्रारम्भिक असंभवता कहते हैं। वास्तव में ऐसी स्थिति में करार करते समय पक्षकारों का उद्देश्य असम्भव कार्य को करन का होने के कारण करार संविदा तक पहुँचता ही नहीं है और परिणामस्वरूप यह कहना बेहतर होगा कि ऐसी स्थिति में दोने पक्षकार द्वारा किया गया करार शून्य होता है। धारा 56 का प्रथम पैराग्राफ प्रारम्भिक असम्भवता से सम्बन्धित है।

दूसरी स्थिति ऐसी भी हो सकती है कि संविदा का पालन उसके निर्माण के समय तो सम्भव हो, परन्तु बाद में कुछ ऐसी घटनायें घटित हो जाती हैं जिससे कि उसका पालन असम्भव या अवैधहो जाता है। इसे पश्चात्वर्ती असम्भवता कहते हैं। ऐसी स्थिति में भी संविदा शून्य होती हैं उदाहरण के लिए क और ख परस्पर विवाह की संविदा करते हैं और विवाह के लिए निश्चित समय से पूर्व क पागल हो जाता है। संविदा शून्य होगी। इस स्थिति में संविदा के समय दोनें पक्षकार स्वस्थ चित्त के थे और संविदा विधिमान्य थी, परन्तु बाद में क के पागल होजाने के कारण संविदा शून्य हो गई।

करार और नवीकरण द्वारा उन्मोचन

संविदा अधिनियम की धारा 62 और 63 करार एवं नवीकरण द्वारा उन्मोचन से सम्बन्धित है। इस अधिनियम की धारा 62 के अनुसार यदि संविदा के पक्षकार उसके बदले एक नई संविदा प्रतिस्थापित करने या उस संविदा को विखण्डित करने या परिवर्तित करने का करार करते हैं तो मूल संविदा का पालन करना आवश्यक नहीं होता है। इस प्रकार नवीकरण विखण्डन और परिवर्तन मूल संविदा को उन्मुक्त कर देते हैं और उसके पालन की आवश्यकता नहीं होती है, अर्थात् पक्षकार अपने दायित्व से मुक्त हो जोते हैं।

अधिनियम की धारा 62 के अनुसार यदि संविदा के पक्षकार मूल संविदा के बदले एक उई संविदा प्रतिस्थापित करने या उक्त संविदा को विखण्डित करने या परिवर्तित करने का करार करने हैं तो मूल संविदा का पालन करलन आवश्यक नहीं होता है। इस प्रकार नवीकरण विखण्डन और परिवर्तन मूल संविदा को उन्मुक्त कर देते हैं और उसके पालन की आवश्यकता नहीं होती है, धारा 62 के उपबन्धों की व्यख्या निम्नवत कर सकते है-

  1. नवीकरण-

    नवीकरण से आशय किसी संविदा के स्थान पर या तो उन्हीं पक्षकारों के मध्य या विभिन्न पक्षकारों उस संविदा के उन्मोचन के प्रतिफलार्थ नई संविदा प्रतिस्थापित करने से है। जब पुरानी संविदा के स्थान पर नई संविदा प्रतिस्थापित की जाती है तो इसे नवीकरण कहते हैं। नवीकरण सभी पक्षकारों की सहमति से ही हो सकता है। नवीकरण में नई संविदा प्रभावी होती है और पुरानी संविदा समाप्त हो जाती है। स्कार्क बनाम जारडिन के वाद में नवीकरण का अर्थ अच्छी तरह समझाया गया है। जब विद्यमान संविदा की नयी संविदा द्वारा, चाहे वह उन्ही पक्षकारों के मध्य हो या विभिन्न पक्षकारों के मध्य हो, तो इसे नवीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता

  • पक्षकारों के परिवर्तन द्वारा

    जब संविदा का आभार तो कायम रहता है परन्तु उसके पक्षकारों में समस्त पक्षकारों की सहमति से परिवर्तन कर दिया जाता है तो संविदा के मूल पक्षकार संविदा-पालन के दायित्व से उन्मुक्त हो जातें हैं और नये पक्षकार दायित्वाधीन हो जाते हैं। पक्षकारों में परिवर्तन द्वारा नवीकरण के लिये सभी पक्षकारों की सहमति आवश्यक है।

नवीकरण के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है कि नवीन ॠणी मूल ऋणी का दायित्व स्वीकार कर ले। यह भी आवश्यक है कि लेनदार या ऋणदाता मूल ऋणी के स्थान पर नवीन ऋण के दायित्व को स्वीकार करे। इस निमित्त मूल ऋणी, नवीन ऋणी और लेनदार तीनों की ही सम्मति आवश्यक है।

  • पुरानी संविदा के स्थान पर नवीन संविदा के प्रतिस्थापन द्वारा

    यदि पक्षकार पुरानी संविदा के स्थान पर नई संविदा के स्थान पर नई संविदा का निर्माण कर लेते हैं तो उन्हें पुरानी संविदा के पालन से मुक्ति मिल जाती है। पुराली संविदा के स्थान पर नई संविदा की प्रतिस्थापना के लिए सभी पक्षकारों की सहमति आवश्यक है। यह नियम तभी लागू होता है जबकि पुरानी संविदा विधि मान्य और विद्यमान हो। इस बिन्दु पर विवाद है कि नवीकरण के लिए नई संविदा पुरानी है।

नवीकरण के सम्बन्ध में बम्बई उच्च न्यायालय ने निण्रय दिया है कि यदि करार के आधार को प्रभावित करने वाला तात्विक अथवा सारवान् परिवर्तन किया गया है तो इसे नवीन करार माना जाएगा। इस प्रकार यदि किया गया तात्विक या सारवान् परिवर्तन करार के जड़या आधार से सम्बन्धित है तो इसे नवीन करार समझा जाएगा। विक्रय के लिए किए गए करार के सम्बन्ध में इसकी विषय वस्तु और भुगतान की दर दोनों को ही करार का तात्विक भाग माना जाता है और इनमें से किसी में भी परिवर्तन किए जाने पर नवीन करार का सृजन माना जाता है।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए,  अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हम से संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है,  तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment