संविदा के विशिष्ट अनुपालन के निर्देश की अवस्थाएं
संविदाओं का विशेष उपचार साम्या के अन्तर्गत आता है यह सामान्यतया साम्याविधि के तहत उपचार प्रदान करना न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है किंतु ऐसे विवेक न इच्छित होते हैं न ही निरंकुश न्यायाला को अनने विवेकाधिकार को प्रयोग बड़ी ही सर्तकता से करने की परम अवाश्यकता होती है। यह विवेकाधिकार विधि के मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित होता है तथा इसमें न्यायालय मामले एवं पक्षकारों की परिस्थितियों एवं पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत किये गये साक्ष्य पर भी भली-भाँति विचार करता है।
विशिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 10 के अन्तर्गत उन परिस्थितियों को वर्णित किया गया है, जिनके कि अन्तर्गत न्यायालय विशिष्ट अनुपालन का उपचार प्रदान कर सकता है, परन्तु जब तक न्यायालय अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करे उससे पूर्व ही वादी को यह दिखाना होगा कि प्रश्नगत संविदा विधिक संविदा है तथा विधि न्यायालयों द्वारा प्रमाणित है।
धारा 10 के अनुसार निम्नलिखित परिस्थितियों में किसी संविदा के लिए विशिष्ट अनुपालन का प्रर्वतन कराया जा सकता है-
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जब क्षतिपूर्ति के निर्धारण का कोई मापदण्ड न हो-
जब किसी संविदा की कुछ विशिष्ट या व्यवहारिक गुणों के कारण या संविदा की प्रासंगिता के कारण, चाहे वह उसकी विषय-वस्तु के सम्बन्ध में हो या दोनों पक्षों की शर्तों व सम्बन्धों के सम्बन्ध में हों, संविदा भंग की दशा में कोई विधिक मापदण्ड न होने के कारण क्षतिपूर्ति का आंकलन करना असम्भव हो जाता है अथवा क्षतिपूर्ति की पर्याप्त निश्चितता तक पहुँच पाना मुश्किल हो जाता है तब ऐसी परिस्थिति में न्यायालय अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करते हुए उस क्षतिपूर्ति को नकद धनराशि के रूप में दिलाये जाने का उपचार प्रदान करता है।
उदाहरण- ‘क’ एवं ‘ख’ के मध्य एक ऐसी संविदा होती हैं जिसमें कि ‘क’ एक तस्वीर को खरीदने एवं ‘ख’ उस तस्वीर को बेचने का वचन देता है। इस तस्वीर को बनाने वाले की मृत्यु हो चुकी है। ऐसी परिस्थिति में ‘क’ ‘ख’ को संविदा के विशिष्ट अनुपालन के लिए बाध्य कर सकता है, क्योंकि इस मामले में उस तस्वीर को न दे पाने के लिए संविदा के विशिष्ट अनुपालन के लिए क्षतिपूर्ति की धनराशि की गणना करने अथवा मापने का कोई भी मापदण्ड नहीं है।
इस प्रकार की संविदाओं में आकस्मिक संविदा, भविष्य में उत्पन्न होने वाली सम्पत्ति से सम्बन्धित संविदा- बँटवारा विलेख सम्बन्धी संविदा, साझेदारी संविदा, पेटेण्ट अधिकार सम्बन्धी संविदा, कॉपीराइट संविदा, विशिष्ट मूल्यांकन सामग्री से सम्बन्धित संविदा आदि कुछ ऐसी ही संविदाएँ हैं, जिनका कि विशिष्ट अनुपालन इस धारा के अधीन कराया जा सकता है।
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जब आर्थिक क्षतिपूर्ति पर्याप्त अनुतोष न हो-
जहाँ पर वादी को क्षतिपूर्ति प्रदान करना ही एकमात्र पर्याप्त उपचार हो तो न्यायालय को विशिष्ट अनुपालन की डिग्री पारित नहीं करनी चाहिए। क्षतिपूर्ति के लिए उचित डिग्री वह होती है जिसमें कि संविदा भंग की तिथि से सम्पत्ति के मूल्य की गणना की जाय। इस प्रकार यह अनुतोष न्यायालय द्वारा ऐसी स्थिति में प्रदान किया जाता है जबकि वादी को दिये जाने वाली आर्थिक क्षतिपूर्ति उस क्षति के लिए पर्याप्त न हों जोकि उसे कारित हुई।
उदाहरण- ‘क’ ‘ख’ से एक कम्पनी के कुछ विशिष्ट अंशों को क्रय करने की संविदा करता है, परन्तु बाद में ‘ख’ उन अंशों को देने से इन्कार कर देता है। संविदा के विशिष्ट अनुपालन के लिए ‘क’ ‘ख’ को अंश देने के लिए बाध्य कर सकता है, क्योंकि अंश सीमित मात्रा में है तथा बाजार में उपलब्ध नहीं है। अत: अशों को न देने के बदले में दी जाने वाली आर्थिक क्षतिपूर्ति पर्याप्त नहीं हो सकेगी।
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जब आर्थिक क्षतिपूर्ति प्राप्त करने योग्य न हो-
धारा 10 के इस शीर्षक के अन्तर्गत संविदा के विशिष्ट अनुपालन की डिग्री पारित कराने हेतु वादी के पास प्रतिवादी के दिवालिया हो जाने का मुख्य आधार होता है। जहाँ यह सम्भावना हो कि यदि निर्णीत की गयी आर्थिक क्षतिपूर्ति वसूल नहीं की जा सकती है, तो न्यायालय द्वारा विशिष्ट अनुपालन की डिग्री पारित करके वादी को उपचार प्रदान किया जायेगा। परन्तु इस व्यवस्था का प्रचलन भारत में सन्देहपूर्ण है, परन्तु जैसाकि ए०आई०आर, 1929, पी०सी० 190 के मामले में यह व्यवस्था दी गयी है कि यदि किसी संविदा के पक्षों के मध्य किसी कार्य को करने की संविदा होती है तथा वह कार्य ऐसी प्रकृति का है कि संविदा भंग की स्थिति में उसके लिए आर्थिक क्षतिपूर्ति पर्याप्त नहीं होगी। अर्थात् जहाँ वादी के लिए धन के रूप में क्षतिपूर्ति पर्याप्त हो तो विशिष्ट अनुपालन की डिग्री न्यायालय द्वारा पारित नहीं की जानी चाहिए। बल्कि इसका सही उपचार है, क्षतिपूर्ति प्रदान करना जिसकी कि गणना संविदा भंग की विधि पर की जानी चाहिए।
उदाहरण– ‘क’ ने प्रतिफल के बदले में एक वचन-पत्र बिना किसी पृष्ठांकन के ‘ख’ को हस्तान्तरित किया। इसके पश्चात् ‘क’ दिवालिया हो जाता है; तथा ‘ग’ उसका अभिहस्तांकिनी नियुक्त किया जाता है। इस परिस्थिति में ‘ख’ ‘ग’ को वचन-पत्र के पृष्ठांकन करने को बाध्य कर सकता है। यदि वचन पत्र का पृष्ठांकन न करने के लिए आर्थिक क्षतिपूर्ति की डिग्री न्यायालय द्वारा पारित की जाती है तो वह व्यर्थ होगी, क्योंकि जिसके द्वारा वचन-पत्र निर्गत किया गया है वह तो दिवालिया हो चुका है। अत: ऐसी दशा में आर्थिक प्रतिकर प्राप्त करना असम्भव हो जायेगा।
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