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मुस्लिम लीग

मुस्लिम लीग

मुस्लिम लीग की स्थापना (30 दिसम्बर, 1906) एवं उद्देश्य 

शिमला प्रतिनिधि मण्डल के समय मुस्लिम नेताओं ने एक केन्द्रीय मुस्लिम सभा बनाने की सोची जिसका उद्देश्य केवल मुसलमानों के हितों की रक्षा करना हो। 30 दिसम्बर, 1906 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की विधिवत् उद्घाटन किया गया। इसके उद्देश्य निम्नलिखित थे।

  1. भारतीय मुसलमानों में अंग्रेजी सरकार के प्रति राजभक्ति की भावना को बढ़ाना और यदि सरकार के किन्हीं विचारों के विषय में गलत धारणा उठे तो उसे दूर करना।
  2. भारतीय मुसलमानों के राजनैतिक तथा अन्य अधिकारों की रक्षा करना और उनकी आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को मर्यादापूर्ण शब्दों में सरकार के सन्मुख करना।
  3. उद्देश्य 1 और 2 को ध्यान में रखते हुए यथासम्भव मुसलमानों तथा अन्य भारतीय सम्प्रदायों के बीच सद्भाव बढ़ाना।

तो इस प्रकार आरम्भ से ही मुस्लिम लीग एक साम्प्रदायिक सभा थी जिसका उद्देश्य केवल मुसलमानों के राजनैतिक तथा अन्य हितों की रक्षा करना था। इसका यह स्वरूप 1947 तक बना रहा।

लीग के राजनैतिक उद्देश्य अलीगढ़ में दिए नाव वक्कार-उल-मुल्क के एक भाषण से स्पष्ट हो जाते हैं। नवाब ने कहा था, अल्लाह न करे, यदि अंगरेज राज्य भारत से समाप्त हो जाए तो हिन्दू हम पर राज्य करेंगे और हमारी जान, माल और धर्म खतरे में होगा। मुसलमानों को इस खतरे से बचने का एक मार्ग है वह है कि वे अंग्रेजी राज्य को जारी रखने में सहायता करें। यदि मुसलमान पूरे मन से अंग्रेजों के साथ रहेंगे तो उनका राज्य पूर्ण रूप से बना रहेगा। मुसलमानों को अपने आपको अंग्रेजी सेना समझना चाहिए जो ब्रिटिश क्राउन के लिए अपना रक्त बहाने और जीवन अर्पण करने को तैयार है।

1913 के पश्चात् लगभग एक दशक तक मुस्लिम लीग उदारवादी मुस्लिम नेताओं के प्रभाव में आ गई जिनमें मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना मज़हर-उल-हक़, सैय्यद वज़ीर हुसैन, हज़रत इमाम और मुहम्मद अली जिन्नाह (वह उन दिनों राष्ट्रवादी थे) प्रमुख थे। 1920 से 1923 तक मुस्लिम लीग का कार्य ङ्खप्प रहा। परन्तु साइमन आयोग की नियुक्ति (1927-30) और लन्दन में हुई गोलमेज कान्फ्रेंसों (1930-32) से मुस्लिम लीग में पुनः जान आ गई। जिन्नाह जो अब पूर्णरूपेण साम्प्रदायिकतावादी बन गए थे, अब इसके निर्विवाद नेता बन गए थे। 1932 के साम्प्रदायिक निर्णय ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाई और भी चौड़ी कर दी।

कांग्रेस लीग सम्बन्ध

कांग्रेसी नेताओं तथा कुछ राष्ट्रीय मुसलमानों ने मुस्लिम लीग की इस मांग का विरोध किया तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री श्री रेम्जे मैकडोनेल्ड ने भी मुसलमानों की इस मांग की आलोचना की। परन्तु सन् 1912 के पश्चात् मुसलमानों के दृष्टिकोण में पुनः एक बार परिवर्तन हुआ। लीग ब्रिटिश शासन से दूर हटकर कांग्रेस के निकट आती गयी। मुस्लिम लीग के उत्तरदायी शासन के लिये कांग्रेस के साथ सहयोग किया मुसलमानों से राष्ट्रवाद का विकास हुआ। दृष्टिकोण में इस परिवर्तन के प्रमुख कारण निम्न प्रकार थे

  1. अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति

    इस समय टर्की इस्लाम की महानता का प्रतीक बन गया था पर रूस व इंग्लैण्ड के प्रति शत्रुतापूर्ण नीति अपना रहे थे। इसके परिणामस्वरूप भारतवर्ष के मुस्लिम वर्ग की राजभक्ति को धक्का पहुंचा।

  2. कांग्रेस के प्रति सरकारी दृष्टिकोण में परिवर्तन

    तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड हांडिज का कांग्रेस के प्रति सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण था, जिस कारण मुस्लिम पृथकतावाद में पहले के समान बल न रहने पर वह धीमा पड़ गया।

  3. कांग्रेस के साथ सहयोग

    इस समय कुछ तत्व कांग्रेस के साथ लीग योग को मुसलमानों के हित में समझौते थे। लगी में मुहम्मद अली के नेतृत्व में एक गुट कांग्रेस-लीग सहयोग को देश के हित में मानता था।

  4. लीग का सुझाव

    सन् 1913 में मुस्लिम लीग ने अपने लखनऊ अधिवेशन में कांग्रेस के स्वशासन के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने कांग्रेस लीग सहयोग के लिये सराहनीय प्रयास किया। अतः कांग्रेस से अधिक निकट आ गई। कांग्रेस के नेताओं ने लीग के दृष्टिकोण में इस परिवर्तन का स्वागत किया।

  5. नवीन नेता

    लीग के प्रारम्भिक वर्षों में पर अलीगढ़ तक अर्ध सामन्ती तथा पृथकतावादी तत्वों का नियन्त्रण था, पर सन् 1912 तक लीग में अब्दुल कलाम आजाद, मौलाना मोहम्मद अली, शौकत अली, मुहम्मद अली जिन्ना, डॉ. अन्सारी तथा हकीम अजमद खाँ जैसे नवयुवक नेताओं को प्रमुख स्थिति प्राप्त हो गयी।

सन् 1915 में लीग में राष्ट्रीय मुसलमानों का बहुमत था। इस वर्ष लीग के अधिवेशन में कांग्रेस के प्रमुख नेताओं महात्मा गाँधी मदन मोहन मालवीय तथा श्रीमती सरोजनी नायडू को आमन्त्रित किया गया। सन् 1916 में लीग में कांग्रेस के साथ सहयोग के लिए लखनऊ समझौता नामक योजना तैयार की गई। इसके परिणामस्वरूप लीग तथा कांग्रेस एक दूसरे के निकट आ गये। परन्तु इस सम्मेलन में कांग्रेस ने लीग के साम्प्रदायिक प्रतिनिधि को स्वीकार कर लिया जो कालान्तर में घातक सिद्ध हुआ।

कांग्रेस लीग समझौते का प्रभाव

कांग्रेस लीग समझौते से लीग को अधिक लाभ हुआ। कांग्रेस द्वारा लीग के साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने के कारण मुसलमानों को बंगला में जहाँ उनकी संख्या केवल 35.46% थी उनको 42% प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। बिहार एवं उड़ीसा में उनकी जनसंख्या केवल 10.9% थी परन्तु उन्हें 25% प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। मद्रास में उनकी जनसंख्या 6.7% थी परन्तु उन्हें 15% प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। बम्बई में उनकी जनसंख्या 19.8% थी, परन्तु उन्हें 33% प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। पंजाब में उनकी जनसंख्या 55.2% थी और उनका 50% प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। समस्त भारत में उनकी जनसंख्या 24% थी जबकि उन्हें 33% प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ।

कांग्रेस ने मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाई। प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों ने टर्की के खलीफा के साथ दुर्व्यहार किया और उसे हटा दिया। इसके कारण गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन और खिलाफत आन्दोलन चलाया। इस कारण लीग तथा कांग्रेस अत्यधिक निकट आ गये। पर यह मेल क्षणिक ही सिद्ध हुआ।

लीग का 1930 का अधिवेशन-

मार्च 1926 में हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रश्न पर विचार करने के लिये कुछ मुस्लिम नेता दिल्ली में मिले। इस बैङ्गक में लीग के दो गुटा में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गये। (a) मि0 जिन्नाह ने संयुक्त निर्वाचन कलकत्ता सम्मेलन में मुस्लिम लीग में भाग लेने और साइमन कमीशन के बहिष्कार का प्रस्ताव रखा, (b) सर मोहम्मद सफी के नेतृत्व में लीग के एक वर्ग ने इन बातों का विरोध किया।

अन्त में मि० जिन्नाह ने अपने प्रगतिशील विचार छोड़कर साम्प्रदायिक राजनीति को अपना लिया देहली में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की बैठक के चौदह सूत्रों के आधार पर जिन्ना तथा शफी गुट में समझौता हुआ। ये शर्ते बाद में मुसलमानों की माँगे बन गई।

मुसलमानों का राष्ट्रीय सम्मेलन-

लीग के सन् 1930 के अधिवेशन में लीग की माँगों से असहमत राष्ट्रवादी मुसलमानों ने सन् 1931 से सर इनाम अली की अध्यक्षता में अपना एक सम्मेलन बुलाया। सर इनाम अली ने अध्यक्ष पद से बोलते हुए कहा कि पृथक निर्वाचन क्षेत्र मुसलमानों के हित में नहीं है। इस अधिवेशन में उपस्थित सभी मुस्लिम नेताओं ने संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों का समर्थन किया।

सन् 1930 का इलाहाबाद अधिवेशन और पाकिस्तान का विचार-

सन् 1930 में इलाहाबाद में डॉ. मुहम्मद इकबाल की अध्यक्षता में लीग का अधिवेशन हुआ। उन्होंने कहा कि पंजाब, सीमा प्रान्त प्रदेश, सिन्ध तथा बिलेचिस्तान को मिलाकर एक राज्य बना देना चाहिए। इस दौरान इंगलैण्ड में पढ़ रहे मुसलमान विद्यार्थियों ने एक पुस्तक का प्रकाशन किया। इस पुस्तक में कहा गया कि मुसलमानों को अपना पृथक् संघ पाकिस्तान बनाने का अधिकार प्राप्त होना चाहिये। इसी विचार ने पाकिस्तान को जन्म दिया। लेकिन जिन्नाह साहब ने पाकिस्तान के उनके विचारों का अवास्तविक कहकर अस्वीकार कर दिया।

सन् 1932 के सरकार ने एक ‘साम्प्रदायिक निर्णय’ की घोषणा की मुसलमानों तथा सिक्खों के अतिरिक्त ईसाई, एंग्लो इण्डियन, यूरोपीय समुदाय के लीगों, स्त्रियों, श्रमिकों, व्यापारियों, जमीदारों तथा विश्वविद्यालयों आदि को भी विशेष प्रतिनिधित्व प्रदान कर दिया। मुस्लिम लीग ने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया। कांग्रेसी क्षेत्रों से इसका विरोध किया गया।

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