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1885 से 1905 तक भारतीय राजनीति में उदारवादी नेतृत्व की नीति

भारतीय राजनीति में उदारवादी नीति

कांग्रेस के शिशुकाल में उस पर उदारवादियों का प्रभाव था । इन उदारवादियों का ब्रिटिश शासन को न्यायपरायणता में अटूट विश्वास था । इसका कहना था कि भारत का भविष्य और उसकी उन्नति ब्रिटेन के साथ सम्बद्ध है । भारतीयों को अपने शासकों के अनुनय विनय करके अपने देश के उत्थान में सहयोग देना चाहिये। किसी तरह के राजनीतिक आन्दोलन या उथल-पुथल में इन लोगो का कोई विश्वास नहीं था । इनके अस्त्र थे- प्रस्ताव और प्रतिनिधि मण्डल । ये अपनी माँगें कांग्रेस के विविध अधिवेशनों में अंग्रेज शासकों से मिला-जुला करते थे जिससे उन्हें भारतीयों की आकांक्षाओं तथा विचारों का ज्ञान हो और वे उनकी दिक्कतों दूर करने के लिए ठोस कदम उठावें । वे उदारवादी भारत की पुर्ण स्वाधीनता की कल्पना भी नही कर सकते थे । वे केवल चाहते थे कि भारत में प्रतिनिध संस्थाओं की स्थापना की जाय जिनमें भारतीयों को भी भाग लेने का अधिकार प्राप्त हो । इन्होने अंग्रेज जाति के हृदय में भी यह भाव उत्पन्न कराने का यत्न किया कि वे भारतीयों के साथ सहानुभूति रखें और भारतीयों की आकांक्षाओं में पूर्ण सहयोग दें । 1885-1904 तक कांग्रेस पर ऐसे ही विचार वालों का पूर्ण प्रभाव रहा। यद्यपि धीरे-धीरे उदारवादी भी अपनी मांगों में उग्र होते गये, लेकिन कुल मिलाकर वे नरम नीति का ही अनुसरण करते रहे और कभी भी उन्होंने अपनी राजनीति को आन्दोलनात्मक स्वरूप देने का यत्न नहीं किया । कांग्रेस के प्रारम्भिक काल में इसके उद्देश्य बड़े नम्र थे और यह केवल चाहती थी कि सरकार भारतीयों की कठिनाइयाँ समझकर उन्हें दूर करने का यत्न करे तथा ऐसी संस्थाओं की स्थापना करे जिनमें भारतीयों को प्रतिनिधित्व प्राप्त हो और वे सरकार को शासन उन्नत करने के सम्बन्ध में सुझाव दें।

उदारवादी नीति एवं सिद्धांत

यदि हम उदारवादियों के इन उद्देश्यों का विश्लेषण करें तो उनके निम्नलिखित सिद्धान्त स्पष्ट होते है-

  1. ब्रिटिश शासन के राजभक्त

    प्रारम्भिक राष्ट्रवादी उदार और ब्रिटिश शासन के समर्थक और प्रशंसक थे । वे असहयोग या क्रान्तिकारी विचारों के विरोधी थे। उदारवादी कांग्रेस के नेता उच्च घराने के थे और अंग्रेजी शिक्षा से प्रभावित थे । दादाभाई नौरोजी, उमेश चन्द्र बनर्जी, फिरोजशाह मेहता आदि नेताओं के हृदय में ब्रिटिश शासन के प्रति कृतज्ञता की भावना थी । उनका कहना था कि ब्रिटिश ने ही भारत को आधुनिक सभ्यता के मार्ग पर अग्रसर किया; स्वतंत्रता और जनवाद आदि से प्रेम की भावना उत्पन्न की; आदर्शवाद, तर्कवाद, शिक्षा और यातायात के साधनों द्वारा राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया एवं देश की बिखरी जनता को एक राष्ट्र के सूत्र में बाँधने का काम किया । अत: कांग्रेस के प्रारम्भिक काल के कार्यकर्ता राजभक्त थे और राजनीतिक जागृति के लिए अपने को अंग्रेजों का कृतज्ञ मानते थे।

  2. क्रमिक सुधारों में विश्वास

    नरमदलीय राष्ट्रीय रूढ़िवादी थे । वे देश के शासन-व्यवस्था में कोई विशेष परिवर्तन नहीं करना चाहते थे । उनका मुख्य उद्देश्य प्रशासन अर्थात् परिषद्, नौकरी, स्थानीय संस्था, रक्षा-सेना आदि में सुधार करवाना था । वे क्रमिक सुधार में विश्वास करते थे और क्रान्तिकारी परिवर्तनों के विरोधी थे । वे चाहते थे कि राजन तिक तथा प्रशासकीय क्षेत्र में धीरे-धीरे सुधार लाया जाया । 1906 में कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में दादाभाई नौरोजी ने ‘स्वशासन अथवा स्वराज्य’ की माँग की और वह भी ब्रिटिश साम्प्रज्य की छत्रछाया में । यह भी स्वीकार किया गया कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लम्बी अवधि तक भारतीयों को प्रशिक्षण की आवश्यकता है । अत: उदारवादी नेता किसी भी प्रकार के क्रान्तिकारी परिवर्तन के विरूद्ध थे । इसी कारण उन्होंने केवल छोटे-मोटे प्रशासनिक सुधारों की माँग सरकार के समक्ष की। आ0 जी0 प्रधान के शब्दों में, कांगेस के प्रारिम्भिक दिनों के प्रस्तावों से पता चलता है कि उनकी माँगें अत्यन्त साधारण थीं। कांग्रेस के नेता आदर्शवादी नहीं थे, वे हवाई किला नहीं बनाते थे। वे व्यावहारिक सुधारक थे तथा आजादी क्रमशः, कदम-कदम करके हासिल करना चाहते थे।’

  3. भारत के हित में ब्रिटेन से स्थायी सम्बन्ध की स्थापना

    उदार राष्टवादी पाश्चात्य सभ्यता तथा विचार के पोषक थे । उनके दृष्टिकोण में ब्रिटेन से भारत का सम्बन्ध भारतीयों के लिए वरदान स्वरूप था। ब्रिटेन के प्रभाव के परिणाम स्वरूप अंग्रेजी साहित्य, शिक्षा-पद्धति, यातायात के साधन, न्यायप्रणाली, स्थानीय स्वशासन आदि भारत के लिए अमूल्य वरदान सिद्ध हुए । उनका मत था कि यूरोपीय विचार और दर्शन लोगों में स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र के प्रति आदर उत्पन्न करता है । अतः भारत के हक में यह श्रेयस्कर है कि ब्रिटेन से उसका अटूट सम्बन्ध बना रहे । इस सन्दर्भ में कतिपय उदारवादी नेताओं के शब्द उल्लेखनीय हैं। एनी बेसेंट ने कहा था, इस काल, के नेता अपने को ‘बेटिश प्रजा मानने में गौरव का अनुभव करते थे। गोपालकृष्ण गोखले ने कांगेस के अध्यक्ष पद से 1905 में कहा था कि हमारा भाग्य अंग्रेजों के साथ जुड़ा हुआ है, चाहे वह अच्छे के लिए हो या बुरे के लिए। फिरोजशाह मेहता ने कांग्रेस के छठे अधिवेशन में अध्यक्ष पद के भाषण देते हुए कहा था इंग्लैण्ड और भारत का सम्बन्ध इन दोनों समस्त विश्व की आने वाली पीढ़ियों के लिए वरदान होगा । दादाभाई नौरोजी ने भी कहा था कि कांग्रेस ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध विद्रोह करने वाली संस्था नहीं, वह तो ब्रिटिश सरकार की नींव को दृढ़ करना चाहती है।

उदार राष्टवादियों की इन घोषणाओं को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि वे घोर प्रतिक्रियावादी और विदेशी सरकार के राष्ट्र विरोधी चाकर थे, लेकिन उन्हें ऐसा समझना ठीक नहीं है । वस्तुतः वे उस समय के भारतीय समाज में राजनीतिक दृष्टि से संगठित सबसे अधिक प्रगतिशील शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते थे किसान और मजदूर आन्दोलनों के अभ्युदय के पूर्व पूँजीपति वर्ग एवं उच्च मध्यम वर्ग ही यहाँ की सबसे प्रगतिशील संगठित शक्ति थी । यही वर्ग देश में समाज-सुधार का काम करता था, जनता में जागृति फैलाता था और देश की तमाम दकियानूसी चीजों के खिलाफ आवाज उठाता था।

इन नेताओं का यह विश्वास था कि भारत के हितों और ब्रिटेन के हितों में विरोध नहीं परन्तु इन्होनें भारत की गरीबी समझी और यह अनुभव किया कि मुक्त व्यापार की नीति भारतीयों उद्योगों के हित में नहीं है । दादाभाई नौराजी ने भारतीयों की गरीबी का अपनी पुस्तक भारतीय गरीबी और ब्रिटिश शासन में बड़ा सुन्दर-दिग्दर्शन दिया है । भारत की गरीबी के लिए उदारवादी ब्रिटिश शासन को दोषी समझते थे, परन्तु उनका इस बात पर बल नहीं था, क्योंकि उदारवादी तो भारत और ब्रिटेन के आर्थिक हित को एक-दूसरे का विरोधी नहीं मानते थे । अतः 1905 में बंगाल विभाजन के बाद स्वदेशी आन्दोलन चला तो सुरेन्द्र नाथ बनर्जी आदि उदारवादी नेताओं ने उनका केवल आर्थिक दृष्टि से ही समर्थन किया, राजनीतिक दृष्टि के रूप में नहीं, जैसा उदारवादी समझते थे । बनर्जी ने कहा था कि स्वदेशी आन्दोलन का आधार देश प्रेम था, न कि विदेशियों के प्रति घृणा। स्वेदशवाद का उद्देश्य विदेशी आदर्श, विद्या, कला और उद्योगों को बाहर निकालना नहीं था, वरन् वह उन्हें राष्ट्रीय पद्धति में समाविष्ट करने पर जोर देता था।

  1. अंग्रेजों की न्याप्रियता में विश्वास

    उदारवादी नेता अंग्रेजी सरकार की न्यायप्रियता में पूर्ण विश्वास रखते थे, जैसा कि इस काल के नेताओं ने समय-समय पर अपने भाषणों द्वारा व्यक्त किया था। सर फिरोजशाह मेहता ने 1890 में कहा कि मुझे इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि ब्रिटिश राजनीतिज्ञ अन्त में जाकर हमारी पुकार पर अवश्य ध्यान देंगे । टी0 माधवराज ने कांग्रेस के तृतीय अधिवेशन में स्वागत समिति के अध्यक्ष पद से भाषण रखते हुए कहा था कि कांग्रेस के बारहवें अधिवेशन में मुहम्मद रहीम तुल्ला ने कहा था कि अंग्रेजो से अधिक ईमानदार और शक्ति सम्पन्न जाति सूर्य के नीचे कोई नहीं है। इस प्रकार, प्रारम्भिक काल में कांग्रेस के नेताओं के हृदय में अंग्रेजों के प्रति सद्भावना थी और वे उन्हें बड़े आदर तथा श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे । उनके विचार में अंग्रेज स्वतंत्रता प्रेमी थे और उन्हें भारतीयों की योग्यता पर विश्वास हो गया तो वे उन्हें बिना हिचक स्वशासन का अधिकार दे देंगे । यही कारण था कि कांग्रेस की शुरू से ही अंग्रेजी की न्यायप्रियता तथा उदारता में पूर्ण विश्वास है । संसार की सबसे बड़ी प्रतिनिधि सभा ब्रिटिश कॉमन्स सभा के स्वतंत्रता-प्रेम में हमारा असीम विश्वास है । जहाँ कहीं भी अंग्रेजों का अधिपत्य कायम हुआ है और उनकी सरकार का निर्माण हुआ है, उन्होंने उसका निर्माण प्रतिनिधियात्मक आदर्श पर ही किया है ।

  2. राजनीतिक स्वशासन की प्राप्ति

    उदारवादी नेता केवल प्रशासनिक सुधार ही नहीं चाहते थे, बल्कि उनका लक्ष्य भारतीयों के लिए स्वशासन की प्राप्ति भी था। वे ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत स्वशासन की स्थापना चाहते थे । उनके विचार में ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीयों को स्वशासन की पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त हो चुका था। भारत स्वशासन के लिए पूर्ण तैयार था। स्वशासन के महत्व के सम्बन्ध में श्रीमती एनी बेसेंट ने कहा था कि स्वतंत्र संस्थाएँ मानसिक और नैतिक अनुशासन की सर्वोत्तम शिक्षण-संस्थायें हैं। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कहा था कि स्वशासन ईश्वर की व्यवस्था और इच्छा है। प्रत्येक राष्ट्र को अपने भाग्य का स्वयं निर्णायक होना चाहिये।

  3. वैधानिक तरीकों में विश्वास

    उदारवादी नेताओं का अंग्रेजों की न्याप्रियता में अटूट विश्वास था। इसलिए वे क्रान्ति का मार्ग अपनाने के लिए तैयार नहीं थे। वैधानिक संघर्ष में उनका पूर्ण विश्वास था. । अतः उन्होंने सरकार के साथ संघर्ष करने की बात कभी नहीं की। वे सरकार को जरा भी असन्तुष्ट करना नहीं चाहते थे। हिंसात्मक उपायों की कल्पना उनके दिमाग में कभी नहीं आयी । हिंसा को उन्होनें तिलांजली दे दी थी और उन्होंने प्रार्थनाओं, प्रार्थना-पत्रों, स्मरण पत्रों और प्रतिनिधि-मण्डलों द्वारा सरकार से अपनी न्याय युद्ध माँगों को मानने का आग्रह किया। बहुत से विद्वानों का कहना है कि इस समय कांग्रेस की नीति प्रार्थना करने की थी, अपनी माँगों के लिए लड़ने की नहीं। इस मार्ग को कुछ लोगों ने ‘राजनीतिक भिक्षावृत्ति’ का मार्ग है। नरमदलीय राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी मार्ग से सफलता प्राप्ति को संदिग्ध समझते थे और अपने अधिकारों की याचना सरकार से बड़े नम्र शब्दों में करते थे। इसी मनोवृत्ति के कारण उन्होंने वैधानिक आन्दोलनों द्वारा अपनी मांगों की पूर्ति करने का प्रयास किया। उन्होंने उन योजनाओं को कभी स्वीकार नहीं किया अपितु उनका बहिष्कार ही किया जिनमें उनके तनिक भी शंका हो कि सरकार के लिए अहितकर होंगी । उन्होंने सरकार के दमन कार्य तथा अन्याय पूर्ण कार्यो और कानूनों का भी खुलकर विरोध किया । उन्होंने केवल जनता की इच्छाओं तथा भावनाओं को अपने प्रस्तावों तथा अन्य उपायों द्वारा सरकार के सामने बड़े नम्र रूप में प्रस्तुत किया। 1889 में उनके प्रयास से एक ब्रिटिश समिति स्थापित की गयी। 1903 में भारतीय संसद समिति की स्थापना की गयी जो ब्रिटेन की लोकसभा को भारतीय स्थिति से अवगत कराती रहे और भारत के प्रति उनके सदस्यों के दिल में सद्भाव की भावना जाग्रत कर सके।

प्रारम्भिक दिनों में कांग्रेस की माँगे

लेकिन उन दिनों भी जब कांग्रेस पर उदारवादी नेताओं का पूर्ण प्रभाव था, कांग्रेस भारतीयों के लिए कुछ राजनीतिक अधिकार की माँगे से बाज नहीं आयी। 1861 के इण्डिया कौंसिल एक्ट के अनुसार भारत में जिस शासन-व्यवस्था की स्थापना की गयी थी, उसके ढाँचे तथा कार्यकरण की त्रुटियों की आलोचना तथा उनमें सुधार सुझाव कांग्रेस अधिवेशनों के प्रस्तावों में सम्मिलित रहते थे। इन माँगो में निम्नलिखित में निम्नलिखित थे-

  1. भारतीय शासन कार्य की जाँच के लिए रॉयल कमीशन की नियुक्ति । भारत मन्त्री और उसकी इण्डिया कौंसिल को उठा देना । इम्पीरियल तथा प्रान्तीय कौंसिल का विस्तार, उनमें सरकारी सदस्यों कीसंख्या में कभी तथा निर्वाचित गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या में बृद्धि । इन कौंसिलों के सदस्यों को प्रश्न पूछने के अधिकारों की प्राप्ति इत्यादि।
  2. इण्डियन सिविल सर्विस की परीक्षाा का इंग्लैड तथा भारत में एक साथ होना और उसकी आयु सीमा को बढ़ाया जाना ।
  3. मुकद्मों की सुनवाई में जूरी प्रथा को मान्यता दिया जाना ।
  4. सैनिक अफसरों की शिक्षा के लिए भारत के सैनिक कालेजों की स्थापना तथा कानून में सुधार । भारतीयों को स्वयं के रूप में सेना में भरती किया जाना ।
  5. भारतमन्त्री की कौसिल और प्रिवी कौंसिल में भारतीयों को स्थान मिलना ।
  6. शस्त्र-कानून में संशोधन किया जाना ।
  7. देश में औद्यागिक शिक्षा का प्रचार करना ।

कांग्रेस की इन माँगों से पता चलता हैं कि इसने उन दिनों भी राजनीतिक अधिकारों की माँग शुरू कर दी थी। भारतीय कोष से होने वाले सैनिक व्यय को लेकर भी कांग्रेस चिन्तित थी और उत्तरी तथा दक्षिणी वर्मा को एक-एक कर भारत में उसके सम्मिलित किये जाने का विरोध भी कांग्रेस ने किया।

उक्त वर्णन से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि कांग्रेस ने शासन-व्यवस्था को उन्नत करने तथा भारतीयों को राजनीतिक अधिकार दिलाने की ओर ही अपना ध्यान दिया। उसने सरकार की उन समस्त नीतियों की कठोरतम आलोचना भी की, जिसके द्वारा भारतीयों के हितों की उपेक्षा कर अंग्रेजी हितों का संरक्षण करने का प्रयत्न किया जाता था। उसने उसकी साम्राज्यवादी नीति तथा अर्थ-सम्बन्धी नीति का विरोध किया। उसने प्रवासी भरतीयों के प्रति अपनाई हुई नीति की तीव्र आलोचना की। इसके अतिरिक्त कांग्रेस ने सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं के निर्धारण की माँग सरकार से की, जिससे देश की दरिद्रता का अन्त हो और जनता सुखमय जीवन व्यतीत कर सके।

इस सम्बन्ध में उसकी माँगें निम्नलिखित थीं-

  1. भूमि-करों में कमी की जानी चाहिये ।
  2. जनता पर लगे अन्य करों में कमी होनी चाहिये ।
  3. सिंचाई की उचित व्यवस्था हो ।
  4. कृषि बैंको की स्थापना हो ।
  5. भारत के उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहन प्रदान करना चाहिये ।
  6. विदेशों में भेजे जाने वाले अनाज के निर्यात पर प्रतिबन्ध लगे ।
  7. विदेशियों को कम संख्या में नियुक्त करना चाहिये ।
  8. शासन के भारी व्यय में कमी करने की ओर प्रयत्नशील होना चाहिये ।
  9. विदेशी माल पर ऊंचा आयात-कर लगाना चाहिये ।

इस प्रकार, उक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत शिक्षित वर्ग, शासन-व्यवस्था, वैदेशिक रीति तथा सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था से असन्तुष्ट था और वह इसमें परिवर्तन चाहता था।

कांग्रेस के कार्यों की समीक्षा

यदि हम प्रारम्भिक दिनों में कांग्रेस की माँगों का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि कांग्रेस का उद्देश्य राजनीतिक, प्राशासकीय, आर्थिक और सामाजिक सुधार लाना था । इस प्रकार साधारण जनता की भलाई से सम्बन्धित कोई भी प्रश्न ऐसा नहीं था, जिस पर कांग्रेस का ध्यान नहीं गया हो। इसके प्रत्येक वर्ष के प्रस्तावों में जो विभिन्न विचार अन्तर्निहित रहते थे, उनसे राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं की राजनीति बुद्धिमत्ता का परिचय मिलता है। कांग्रेस की माँगों का ही परिणाम था कि ब्रिटिश सरकार ने 1892 का अधिनियम पारित किया, जिसके अनुसार व्यवस्थापिकाओं की सदस्य संख्या बढ़ा दी गयी, अप्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था की गयी और सदस्यों को वाद-विवाद तथा प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया । कांग्रेस की आर्थिक तथा सामाजिक माँगों की ओर भी ब्रिटिश सरकार ने ध्यान दिया लेकिन महत्वपूर्ण ठोस कदम का आभाव रहा ।

निस्सन्देह कांग्रेस ने सुधार-सम्बन्धी अनेक माँगों को ब्रिटिश सरकार के समक्ष रखा; लेकिन राष्ट्रीय स्वाधीनता की ओर उसने कोई कदम नहीं उठाया। वस्तुतः उन दिनों कांग्रेस स्वतंत्रता के लक्ष्य से बहुत दूर। रही यह राष्ट्रीय आन्दोलन के गुणों से वंचित थी। न तो उनका लक्ष्य ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता की प्राप्ति था और न उसे जनता का समर्थन ही प्राप्त था। वह कुछ शहरी शिक्षित मध्यवर्गीय लोगों की संस्था थी। इसके अतिरिक्त वे देश के हितों की रक्षा के लिए किसी तरह का बलिदान करने के लिए भी तैयार नहीं थे। गुरमुख निहालसिंह ने लिखा है कि तिलक और सम्भवतः गोखले को छोड़कर कांग्रेस के उदार नेता व्यक्तिगत बलिदान करने और स्वतंत्रता के लिए मुसीबत सहने के लिए तैयार नहीं थे।

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