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कांग्रेस विभाजन (सूरत फूट)

कांग्रेस विभाजन (सूरत फूट) 

सन् 1885 में राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। सन् 1892 तक कांग्रेस पर उदारवादियों का पूर्ण प्रभाव रहा, परन्तु इसके उपरान्त कुछ ऐसे नवयुवकों ने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण की, जो राजनीतिक भिक्षावृत्ति के प्रबल विरोधी थे। सन् 1905 में कांग्रेस में उग्रवादियों की संख्या बहुत बढ़ गयी परन्तु इस समय कांग्रेस में उदारवादियों की संख्या अधिक थी और वे उग्रवादियों के विचारों से सहमत न थे। परन्तु इस समय कांग्रेस में उदारवादियों की संख्या अधिक थी और उग्रवादियों के विचारों से सहमत न थे। फलतः उग्रवादी सन् 1907 में कांग्रेस से पृथक् हो गये। उदारवादियों और उग्रवादियों का यह पृथक्करण सूरत की फूट के नाम से प्रसिद्ध है।

सन् 1892 ई० के पश्चात् कांग्रेस के कुछ नवयुवक सदस्यों ने उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की नीति का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। सन् 1894 में लोकान्य तिलक ने कांग्रेस में प्रवेश किया। उन्होंने अपने पत्रों द्वारा आते ही क्रान्ति का बिगुल बजा दिया। उनके उग्रवादी विचारों का समर्थन करना बहुत से लोगों ने प्रारम्भ कर दिया। सन् 1905 के बाद सम्भावना दिखाई देने लगी कि सन् 1906 के कलकत्ता अधिवेशन में फूट पड़ जायेगी, परन्तु इस समय उदारवादियों ने बड़ी दूरदर्शिता से काम लिया और अपने बहुमत के आधार पर डॉ० रासबिहारी बोस को कलकत्ता अधिवेशन का सभापति निर्वाचित करवाया, जबकि उग्रवादियों का मत था कि लोकमान्य तिलक को इस अधिवेशन का सभापति बनाया जाये। उग्रवादियों ने इंग्लैण्ड से दादाभाई नौरोजी को बुलवाया। दादाभाई नौरोजी ने बड़ी योग्यता तथा चातुर्य से दोनों दलों में समझौता करा दिया। लेकिन कलकत्ता अधिवेशन में इतना शोर-गुल हुआ कि अधिवेशन की कार्यवाही की सहायता से स्थापित दी गयी।

लोकमान्य तिलक की लोकप्रियता बढ़ती गयी, परन्तु कांग्रेस में उदारवादियों की संख्या बहुत अधिक थी। सन् 1907 से कांग्रेस का सूरत में अधिवेशन हुआ। इस अधिवेशन में उदावादियों और उग्रवादियों में मतभेद इतना अधिक बढ़ गया कि उग्रवादियों ने कांग्रेस से अपना सम्बन्ध बिच्छेद कर लिया। सूरत की फूट के परिणामस्वरूप उग्रवादियों ने कांग्रेस से पृथक् होकर अपना आन्दोलन चलाया। इस प्रकार सूरत की फूट कांग्रेस के इतिहास में एक सबसे अधिक दुखपूर्ण घटना थी। ब्रिटिश सरकार इस घटना से बहुत प्रसन्न हुई और कांग्रेस की शक्ति का प्रभाव क्षीण हो गया।

सूरत की फूट का परिणाम कांग्रेस और देश दोनों के लिये अहितकार सिद्ध हुआ। तिलक, विपिन चन्द्रपाल, लाल लाजपतराय आदि देशभक्त नेताओं ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। इस फूट के कारण भारतीय जनता के बहुत कष्ट सहन करना पड़ा क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने उदारवादियों की उदासीनता का लाभ उगाकर उग्रवादियों के प्रति बड़ी कङ्गोरता का व्यवहार किया। उग्रवादियों के बड़े-बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया। सन् 1908 में तिलक को 6 वर्षों के लिये जेल में डाल दिया गया। सन् 1909 में मार्ले-मिण्टो अधिनियम ने भारत में साम्प्रदायिकता का बीज बो दिया।

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