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उदारवादी अपने उद्देश्य में कहाँ तक सफल हुए ?

उदारवादी राष्ट्रीयता का मूल्यांकन

प्रारम्भ में कांग्रेस पर उदारवादियों का प्रभाव था । कांग्रेस के शुरू के दिनों में उदार राष्टवादियों ने जो काम किया, आजकल उसके प्रभाव को कम समझा जाता है ।

  • ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति मिथ्या धारणा-

    भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का क्या वास्तविक आधार था अथवा उसकी क्या प्रकृति थी, इस बात को उदारवादी नेता नहीं समझ सके। यह उनका मिथ्या अनुमान था कि दोनों देशों के हित परस्पर विरोधी न होकर एक दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। वे आवश्यकता से अधिक अंग्रेजों की न्यायप्रियता में विश्वास रखते थे । वे यह भूल गयें कि ब्रिटेश राज्य का मूलाधार भारत का आर्थिक शोषण और राजनीतिक पराधीनता है । यह स्पष्ट बात थी जिसको उदारवादी नहीं समझ सके परन्तु उनका यह विश्वास आधारहीन था।

  • भिक्षावृत्ति की दुर्बलता-

    उदारवादी लोगों में भिक्षावृत्ति की जो प्रवृत्ति थी, वह सर्वथा गलत थी। वे ब्रिटेन के द्वारा पर भिक्षा माँगकर, वहाँ की जनता की आत्मा को प्रार्थनाओं और आवेदनों से जाग्रत करके प्रतिनिधि शासन के उद्देश्य को पूर्ण करने की आशा करते थे। उसमें ऐसे लोग बहुत कम थे जो दीर्घ कारावास, देशनिर्वासन अथवा सरकार द्वारा अपनी सम्पत्ति का हरण किया जाना शांतिपूर्वक सहन कर लेते। यह उनकी दुर्बलता का प्रमाण है कि उन्होने अपनी शक्ति पर भरोसा न करके साम्राज्यवादी शक्ति को चुनौती देने के बजाय अपने शासकों की कृपा पर विश्वास किया।

इन त्रुटियों के कारण ही उदारवादी कांग्रेस को उपने उद्देश्य की प्राप्ति में विशेष सफलता नहीं मिल सकी । यही कारण है कि लोग इसकी महत्ता को स्वीकार नहीं कर सकते हैं । इसी कारण लाला लाजपतराय ने कहा कि वह राष्ट्रीय आन्दोलन के गुणों से वंचित थी । उनका लक्ष्य न तो राष्ट्रीय स्वतंत्रता की प्राप्ति थी और न उसे जनता का समर्थन ही प्राप्त था, परन्तु इस सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि उदारवादी कांग्रेस तत्कालीन परिस्थिति से विवश थी। उग्र कार्यक्रम अपना लेने पर सरकार उनका कठोरता से अन्त कर देती और उनके द्वारा वे सेवाएँ भी नहीं हो पातीं जो उन्होने भारत के लिए की।

इन सभी त्रुटियों के बावजूद उदारवादीयों को निम्नलिखित सफलताएं मिली-

  • 1982 का भारतीय परिषद् अधिनियम-

    उदार राष्ट्रवादियों के प्रयास के फलस्वरूप भारत के औपनिवेशवाद प्रशासन के ढाँचे में कुछ परिवर्तन हुआ। कांग्रेस मांग कर रही थी कि इम्पीरियल कौसिल और प्रान्तीय कौसिल के संगठन में परिवर्तन हो। इन मांगों को लेकर कांग्रेस से दो शिष्टमंडल लन्दन भेजे। इन प्रयासों के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 1892 में एक ऐक्ट अपनाया जो भारतीय परिषद् अधिनियम कहलाता हैं। इस अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं-

1892 के अधिनियम के द्वारा केन्द्रीय तथा प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी। यह निचित हुआ कि गर्वनर जनरल की व्यवस्थापिका सभा में कम-से-कम दस और अधिक-से-अधिक सोलह सदस्य मनोनीत हो सकते थे। ऐसे सदस्यों का गैर सरकारी होना जरूरी था। 1861 में उनका अनुपात आध-आधा था। इस प्रकार प्रान्तीय कौंसिल में मनोनीत और सरकारी सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गयी। इस सम्बन्ध में प्रत्यक्ष निर्वाचन का सिद्धान्त स्वीकार किया गया।

1892 के अधिनियम ने कौंसिल के कार्यक्षेत्र को बढ़ा दिया। 1861 के ऐक्ट के द्वारा प्रधान परिषदों का कार्य सिर्फ विधायन तक ही सीमित था। उन्हें प्रश्न पूछने, प्रस्ताव पास करने तथा बजट पर बहस करने का अधिकार नहीं था, लेकिन इस अधिनियम के द्वारा उन्हें वार्षिक वित्त विवरण पर वाद-विवाद करने का अधिकार प्रदान किया गया। कौंसिल के सदस्यों को सार्वजनिक महत्व के विषयों पर प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया, लेकिन इस अधिकार पर अधनियम के द्वारा कुछ प्रतिबन्ध लगा दिये गये। केन्द्रीय विधान परिषद् तथा प्रान्तीय विधान परिषदों में सरकारी अधिकारियों का बहुत रखा गया। चुने हुए सदस्यों की संख्या बहुत थोड़ी ही थी और अधिकतर गैर-सरकारी सदस्य ही मनोनीत किये जाते थे। इसमें निर्वाचन का महत्व नगण्य हो गया।

भारत मन्त्री की अनुमति से गर्वनर जनरल समय-समय पर नियम बना सकता था । जिसके अनुसार गैर-सरकारी सदस्यों को व्यवस्थापिका सभाओं में कार्यकारिणी द्वारा मनोनीत किया जाता था।

गर्वनर जनरल को अधिकर मिला कि वह परीक्षा निर्वाचन प्रणाली का सूत्रपात करें-यद्यपि ‘निर्वाचन’ शब्द का योग सब अथवा कुछ अतिरिक्त सदस्यों के चुनने के लिए नहीं हुआ था । वस्तुतः यह निश्चित किया गया कि कुछ गैर सरकारी स्थान तो मनोनयन द्वारा भरे जाएँ और शेष स्थानों की पूर्ति उन नामजद किये गये व्यक्तियों में से कुछ को चुनकर की जाय जिनकी सिफारिश म्युनिसिपल कमेटियाँ, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड, कॉरपोरेशन, विश्वविद्यालय अथवा व्यापारिक मण्डल आदि करे ।

यदि हम 1892 के अधिनियम के इन सम्बन्धों का विश्लेषण करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि इसके द्वारा भारतीय प्रशासन के क्षेत्र में चार महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गये, जिन्होंने इस अधिनियम को 1861 के अधिनियम से एक कदम आगे बढ़ा दिया । ये परिवर्तन निम्नलिखित थे-

  1. सदस्यों को सरकार की वित्तीय नीति की आलोचना करने का अधिकार मिला ।
  2. उन्हें प्रश्न पूछने का अधिकर मिला।
  3. आङ्ग सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई ।
  4. गैर-सरकारी नामजद सदस्यों का अप्रत्यक्ष ढंग से निर्वाचन होने लगा ।

1892 का भारतीय परिषद्-अधिनियम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रयास का पहला परिणम था । कांग्रेस ने अपने पहले ही अधिवेशन में एक प्रस्ताव द्वारा सरकार की वर्तमान व्यवस्था के प्रति असन्तोष प्रकट किया था और यह निवेदन किया थ कि परिषदों में निर्वाचित सदस्यों को पर्याप्त संख्या में सम्मिलित कर उसका सुधार और विस्तार किया । जाय अन्य प्रान्तों में भी परिषदों की स्थापना हो तकि परिषदों के बजट पर चर्चा करने तथा कार्यपालिका के शासन के प्रत्येक विषय पर प्रश्न करने का अधिकर दिया जया । 1892 के अधिनियम में कांग्रेस की यह मॉग-कुछ हद तक स्वीकार की गई थी, इसमें कोई सन्देह नहीं । फिर भी इस अधिनियम से प्रशासन के क्षेत्र में काई अत्यन्त महत्वूपर्ण परिवर्तन नहीं हुआ । इसलिए उसकी उपादेयता पर लोगों को शंका थी।

  • भारतीयों की राजनीतिक शिक्षा-

    यह सत्य है कि 1885 से 1905 तक के राष्ट्रीय आन्दोलन में कोई विशेष महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई। फिर भी, इस काल के आन्दोलन का महत्व इसलिए है कि इसने राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार की और भारतीय शिक्षित वर्ग का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। कांग्रेस ने इस काल में ब्रिटिश जनमत को भारत को वास्तविक दशा का ज्ञान कराया । इसकी ओर से प्रतिनिधि मण्डल इंग्लैण्ड भेजे गये जिन्होंने वहाँ सराहनीय कार्य किये। इसका फल यह हुआ कि कुछ अंग्रेज भी भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन से सहानुभूति रखने लगे । इंग्लैण्ड की सरकार इस बात पर राजी हो गयी कि शासन में भारतीयों को कुछ अधिकार अवश्य प्रदान किये जाये।

  • भारतीय राष्ट्रीयता के जनक-

    प्रारम्भिक कांग्रेस के कार्यकर्ता ही भारतीय राष्ट्रीयता के जनक थे । उन्होंने भारत की राष्ट्रीयता के जनक थे । उन्होंने भारत में राष्ट्रीयता की लहर को तीव्र किया । वे साम्प्रदायिक और प्रान्तीय धरातल से बहुत ऊँचे थे उन्होंने इनको अपने कार्यक्रम में स्थान नहीं दिया। उनके ही प्रयत्नों से बाद में कांग्रेस की नीति में परिवर्तन हुआ जो करना सरल कार्य है, किन्तु उनकी सबसे बड़ी देन भारत को यह है कि जिस भारत में कोई राजनीतिक जीवन नहीं था उस समय उन्होंने इसको आरम्भ किया और देश के लिए ऐसी राष्ट्रीय संस्था का संगठन किया जो साम्प्रदायिकता तथा प्रान्तीयता के धरातल से बहुत ऊँची थी ।

इस प्रकार उदारवादियों में कमी बहुत थी और उनको कोई विशेष राजनीतिक सफलता प्राप्त नहीं हुई, लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि वे राजनीतिक संगठन के प्रणेता थे । उनके सम्बन्ध में गुरूमुख निहाल सिंह कहते हैं, भिक्षावृत्ति की नीति अपनाने पर भी उस समय राष्ट्रीय जागरण, राष्ट्रीयता की भावना का निर्माण करने में उदारवादियों ने बहुत अधिक सहयोग दिया । उनकी सफलताओं पर विचार करते हुए पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है, प्रारम्भिक राष्ट्रवादियों ने ही आधुनिक स्वतंत्रता की इमारत की नींव डाली । उनके ही प्रयत्नों से इस नींव पर एक-एक मंजिल करके इमारत बनती चली गयी, पहले उपनिवेशों के ढंग का स्वशासन, फिर साम्राज्य के अन्तर्गत होमरूल, इसके ऊपर स्वराज्य और सबसे ऊपर पूर्ण स्वाधीनता की मंजिल बन सकी है।

वास्तव में, भारतीयों को सरकार की नीति की आलोचना करने के लिए कांग्रेस के रूप में अच्छा प्लेटफार्म मिल गया । इस काल की कांगेस की सबसे बड़ी देन थी भारतीयों को दी गयी राष्ट्रीय शिक्षा, जिसके द्वारा भारतीयों का ध्यान प्रजातन्त्र के आदर्शों की ओर आकर्षित किया गया तथा सरकार का ध्यान उसके अन्यायपूर्ण कार्यों की ओर। इसलिए इस काल को ठीक ही आधुनिक राष्ट्रवाद के लिए नींव की ईंट माना गया है।

वैधानिक आन्दोलन के कुछ वर्षों में ही कांग्रेस एक स्थाई राष्ट्रीय संस्था बन गयी और सम्पूर्ण देश की राजनीतिक उन्नति के लिए शान्तिपूर्ण उपायों पर कार्य करने लगी। कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में मदनमोहन मालवीय ने कहा कि भारतीय जनता कंग्रेस की स्थापना के बाद गूंगी नहीं रही है । उन्होंने कहा, भारतीय जनता को इस महान् संस्था कांग्रेस द्वारा अब एक जिन्ह मिल गयी है । जिसके द्वारा हम इंग्लैण्ड से कहते हैं कि वह हमारे राजनीतिक अधिकारों को स्वीकार करें। कांग्रेस के आन्दोलन से एक प्रबल जनमत सम्भव हो गया । सर हेनस कॉटन इस सम्बन्ध में लिखते है, कांग्रेस के सदस्य किसी भी दशा में सरकारी नीति में परिवर्तन लाने में सफल नहीं हुए, लेकिन अपने देश के इतिहास के विकास में और देशवासियों के चरित्र-निर्माण में निश्चित रूप से उन्होंने सफलता प्राप्त की । कांग्रेस देश में एक शक्ति बन गयी और उसका प्रचार देश के एक कोने से दूसरे कोने तक गूंजना था । इस प्रचार ने देश में राष्ट्रीय एकता और जनसेवा के उच्च आदर्शों का प्रतिपादन किया।

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