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1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश संवैधानिक एवं प्रशासनिक नीति में परिवर्तन 

1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश नीति में परिवर्तन 

1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश नीति में परिवर्तन 

1858 के ‘भारत सरकार अधिनियम्’ द्वारा न केवल कंपनी के शासन को समाप्त कर, सम्राट के शासन की प्रत्यक्ष स्थापना की गई बल्कि भारत में ब्रिटिश सरकार के शासन के उद्देश्य में भी परिवर्तन आया। 1857 तक अंग्रेजों का उद्देश्य देशीय राज्यों को समाप्त कर भारत की विलगता को नष्ट करना था। परंतु 1857 के विद्रोह के अनुभव को ध्यान में रखते हुए (जिसमें अधिकांश देशीय राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया था) अंग्रेजों ने इस प्रगतिशील उद्देश्य का त्याग कर दिया और सामंतवाद के नमूने के रूप में इन देशीय राज्यों को (जिन्हें वे अपने देश में समाप्त कर चुके थे) हमेशा के लिए बनाए रखने का निर्णय किया। जहाँ 19 शताब्दी के पूर्वार्ध में प्रशासन का उद्देश्य स्वतंत्र प्रेस की स्थापना करना था, वहाँ इसी शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रशासन का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता पर अधिक-से-अधिक नियंत्रण लगाना हो गया था। इसके अतिरिक्त, पहले जहाँ प्रशासन भारत के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप कर भारत को सती प्रथा जैसी बर्बर सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध अभियान चला रहा था, अब वह सुधारों के प्रति उदासीन हो गया और इसने प्रगति-विरोधी तटस्थता की नीति को अपना लिया।

1857 के विद्रोह के कारण, कंपनी के विरोध के बावजूद कंपनी का शासन समाप्त करने और भारत सरकार को सम्राट के अधीन करने के पक्ष में आम सहमति हो गई। कंपनी की यह दलील थी कि केवल वह ही इस विद्रोह के लिए जिम्मेदार न थी क्योंकि निर्णायक शक्ति पहले से सम्राट के पास थी और न ही यह नई व्यवस्था इंग्लैंड के इतिहास में कोई नई बात थी। इस प्रकार की व्यवस्था अमरीका आदि के संदर्भ में अपनाई जा चुकी थी और इसके बावजूद अमरीका और दूसरे उपनिवेश इंग्लैंड के हाथें से निकल गए थे। इस उद्देश्य के लिए 1857 ई० में ब्रिटिश संसद द्वारा एक बिल पास किया गया जिसे ‘भारत सरकार अधिनियम’ 1858 के नाम से जाना जाता है। इस अधिनियम द्वारा भारत के इतिहास का एक युग समाप्त हो गया और दूसरा युग आरंभ हो गया जिसे सम्राट के प्रत्यक्ष शासन के नाम से जाना जाता है। सरकार तो पहले से ही कंपनी के शासन को समाप्त करने के लिए अग्रसर थी परंतु अब अपने हाथ में उत्तरदायित्व ले लेने का अंतिम निर्णय कर लिया। 1858 का अधिनियम लार्ड पसर्टन ने फरवरी 1858 को हाऊस ऑफ कॉमन्स में पेश किया। कंपनी के दोषों को बताते हुए उन्होंने कहा, हमारी राजनीतिक पद्धति का यह सिद्धांत है कि सभी प्रशासनिक कार्यों के लिए मंत्रियों को उत्तरदायी होना चाहिए अर्थात संसद के प्रति, लोकमत के प्रति और सम्राट के प्रति। परंतु भारत में शासन के कार्य एक ऐसे निकाय को सौंप दिए गए है जो सम्राट द्वारा नियुक्त नहीं है, अपितु ऐसे लोगों द्वारा चुने गए हैं जिनका भारत के साथ इस से अधिक संबंध नहीं है कि उनके पास एक निश्चित मात्रा में कंपनी का स्टॉक है।

जे० एस० मिल ने कंपनी के पक्ष में वकालत की परंतु इस अधिनियम को सम्राट का समर्थन प्राप्त हो गया और 2 अगस्त 1858 को यह पारित हो गया।

1858 ई० का कानून

इस कानून की शर्ते निम्नवत् थीं :

  1. इसके द्वारा भारत का शासन ब्रिटेन की संसद को दे दिया गया।
  2. डायरेक्टरों की सभा और अधिकार-सभा को समाप्त कर दिया गया तथा उनके समस्त अधिकार भारत-सचिव को दे दिये गये। भारत-सचिव अनिर्वायतः ब्रिटिश संसद और ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का सदस्य होता था।
  3. भारत-सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक सभा-भारत-परिषद की स्थापना की गयी। इसके 7 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार ब्रिटेन के क्राउन को तथा शेष सदस्यों के चयन का अधिकार कम्पनी के डायरेक्टरों को दिया गया परन्तु प्रत्येक स्थिति में यह आवश्यक था कि इसके आधे सदस्य ऐसे हों जो कम से कम दस वर्ष तक भारत में सेवा-कार्य कर चुके हों। शासन के इस भाग को (भारत-सचिव और भारत-परिषद को सम्मिलित करके) गृह-सरकार का नाम दिया गया।
  4. अर्थव्यवस्था ओर अखिल भारतीय सेवाओं के विषय में भारत-सचिव भारत-परिषद की राय को मानने के लिए बाध्य था। अन्य सभी विषयों परवह उसकी राय को झुकरा सकता था। उसे अपने कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत करनी पड़ती थी।
  5. भारतीय गवर्नर-जरनल को भारत-सचिव की आज्ञानुसार कार्य करने के लिए बाध्य किया गया। गवर्नर-जनरल भारत में ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने लगा और इस कारण उसे वायसराय भी कहा गया।

इस कानून ने भारत के शासन में कोई परिवर्तन नहीं किया। इसके द्वारा केवल गृह-शासन में परिर्वतन किये गये थे। थोड़े समय पश्चात् 1858 ई0 में ही महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणा की जिसके द्वारा भारतीय नरेशों और नागरिकों को उनके सम्मान, सुरक्षा, धर्म और सरकारी सेवाओं आदि के विषय में आश्वासन दिया गया।

रानी विक्टोरिया की घोषणा (नवम्बर 1, 1858 ई०)

1 नवम्बर 1858 ई0 को ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया ने एक घोषणा की जिसे भारत के प्रत्येक शहर में पढ़कर सुनाया गया। इस घोषणा में ब्रिटिश सरकार ने उन मुख्य सिद्धान्तों का विवरण दिया जिनके आधार पर भारत का भविष्य का शासन निर्भर करता था। इस घोषणा का कोई कानून आधार न था क्योंकि इसे ब्रिटिश संसद ने स्वीकार नहीं किया था। परन्तु तब भी इसमें दिये गये सिद्धान्त, आश्वासन आदि कानून के समकक्ष स्थान रखते थे क्योंकि इसे ब्रिटेन के मन्त्रिमण्डल की स्वीकृत प्राप्त थी। इसमें मुख्यतः निम्नलिखित बातें सम्मिलित थीं :

इसके द्वारा घोषित किया गया कि भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा प्रशासित क्षेत्रों का शासन अब प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटेन के क्राउन द्वारा किया जायेगा।

इसके द्वारा कम्पनी के सभी असैनिक और सैनिक पदाधिकारियों को ब्रिटिश क्राउन की सेवा में ले लिया गया तथा उनके सम्बन्ध में बने हुए सभी नियमों को स्वीकार किया गया।

इसके द्वारा भारतीय नरेशों के साथ कम्पनी द्वारा की गयी सभी सन्धियों और समझौतों को ब्रिटिश क्राउन के द्वारा यथावत् स्वीकार कर लिया गया, भारतीय नरेशों को बच्चा गोद लेने का अधिकार दिया गया तथा उन्हें यह आश्वासन भी दिया गया कि ब्रिटिश क्राउन अब भारत में राज्य-विस्तार की आकांक्षा नहीं करता और भारतीय नरेशों के अधिकारों, गौरव एवं सम्मान का उतना ही आदर करेगा जितना कि वह स्वयं का करता है।

इसके द्वारा साम्राज्ञी ने अपनी भारतीय प्रजा को आश्वासन दिया कि उनके धार्मिक विश्वासों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा बल्कि उनके प्राचीन विश्वासों, आस्थाओं और परम्पराओं का सम्मान किया जायेगा।

इसके द्वारा भारतीयों को जाति या धर्म के भेदभाव के बिना उनकी योग्यता, शिक्षा, निष्ठा और क्षमता के आधार पर सरकारी पदों पर नियुक्त किये जाने का समान अवसर प्रदान करने का आश्वासन दिया गया।

इसके द्वारा यह आश्वासन दिया गया कि रानी की सरकार सार्वजनिक भलाई, लाभ और उन्नति के प्रयत्न करेगी तथा शासन इस प्राकर चलायेगी। जिससे उसकी समस्त प्रजा का हित साधन हो ।

1857 ई० के विद्रोह में भाग लेने वाले अपराधियों में से केवल उनको छोड़कर जिन पर अंग्रेजों की हत्या का आरोप था, बाकी सभी को क्षमा प्रदान कर दी गयी।

रानी विक्टोरिया की उपयुक्त घोषणा का मूल लक्ष्य भारत में स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य को सुरक्षा प्रदान करना था। इस उद्देश्य को लेकर भारतीय नरेशों के सम्मान और अधिकारों की सुरक्षा का आश्वासन दिया गया था। भविष्य में ब्रिटिश सरकार की नीति भारतीय नरेशों, जागीरदारों और प्रतिक्रियावादी तत्वों के संरक्षण की रही जिनका प्रयोग वह भारत के प्रगतिशील तत्वों के विरोध में करती रही। योग्यतानुसार पद की प्राप्ति का आश्वासन भारतीय शिक्षित वर्ग का समर्थन प्राप्त करने के लिए दिया गया था, यद्यपि इस आश्वासन की पूर्ति ब्रिटिश सरकार ने कभी नहीं की। भारतीयों को उनके धर्म, परम्पराओं आदि में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन भारतीय जन-साधारण को सन्तुष्ट करने के लिए दिया गया था क्योंकि इस प्रकार के हस्तक्षेप को विद्रोह के कारणों मे से एक प्रमुख कारण समझा गया था। यही नहीं बल्कि विद्रोह के पश्चात ब्रिटिश सरकार ने धर्मान्धता, अन्धविश्वास, जातीयता, क्षेत्रीयता आदि सभी को बढ़ावा दिया जिससे भारतीय आपस में बँटे रहें और प्रगतिशील विचारों के सम्पर्क में न आयें। इसी कारण, विद्रोह के पश्चात् भारत की अंग्रेजी सरकार ने भारत में अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को भी बढ़ावा नहीं दिया। इस प्रकार, यह घोषणा किसी भी प्रकार भारतीयों के प्रति न्याय अथवा उनकी उन्नति की भावना से प्रेरित नहीं मानी जा सकती।

1861 ई० का भारतीय कौंसिल कानून

1861 ई० का यह कानून भारत के संवैधानिक विकास में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस कानून से अंग्रजों की वह नीति आरम्भ हुई जिसे ‘सहयोग की नीति’ या ‘उदार निरंकुशता’ का नाम दिया गया क्योंकि इसके द्वारा, सर्वप्रथम, भारतीयों को शासन में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया गया था। 1857 ई० के विद्रोह से अंग्रेजों ने सबक लिया कि भारत जैसे विशाल देश का शासन भारतीयों की सहायता के बिना करना बुद्धिमानी नहीं हैं । प्रान्तों को कानून-निर्माण के जो अधिकार 1853 ई० के कानून से दिये गये थे, वे उससे सन्तुष्ट न थे। गवर्नर-जरनल की बढ़ी हुई परिषद् भी जिस प्रकार व्यवस्थापिका-सभा के रूप में कार्य कर रही थी, उससे भी अंग्रेज-शासन सन्तुष्ट न थे। इस कारण शासन में क्योंकि कोई परिवर्तन नहीं किया गया था, अतएव तीन वर्ष पश्चात् ही इस नवीन कानून को पारित किया गया।

इस कानून की धाराएँ निम्नवत् थीं :

  1. गवर्नर-जरनल को अपनी परिषद में 6 से 12 तक सदस्यों की वृद्धि करने का अधिकार दिया गया। ये सदस्य उसे कानून-निर्माण में सहायता करने के लिए थे। इनमें से कम से कम आधे सदस्यों का गैर-सरकारी होना आवश्यक था और इनका कार्यकाल दो वर्ष था। इन सदस्यों को कार्यपालिका पर नियन्यण रखने का कोई अधिकार न था। गवर्नर-जनरल को इनकी राय को ठुकराने का पूर्ण अधिकार था।
  2. गवर्नर-जरनल की कार्यकारिणी में एक पाँचवें सदस्य-अर्थ-मन्त्री-की नियुक्ति की गयी।
  3. गवर्नर-जरनल को आवश्यकता पड़ने पर आध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया जो व्यवस्थापिका-सभायें भारत-सचिव द्वारा समाप्त न किये जाने की दशा में छह माह तक लागू रह सकता था।
  4. प्रान्तों को स्थानीय य प्रान्तीय विषयों के सम्बन्ध में कानून-निर्माण का अधिकार दिया गया और इस कार्य के लिए गवर्नर को अधिकार दिया गया कि वह अपनी परिषद में 4 से 8 सदस्यों तक की नियुक्ति कर सकता था परन्तु इनमें से कम से कम आधे सदस्यों का गैर-सरकारी होना आवश्यक था। प्रान्तों द्वारा पारित प्रत्येक कानून पर गवर्नर-जनरल की स्वीकृति आवश्यक थी।

इस कानून द्वारा केन्द्र में व्यवस्थापिका-सभा के सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी थी और प्रथम बार गैर-सरकारी सदस्यों की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी थी। इस प्रकार प्रान्तों में भी व्यवस्थापिका-सभाओं की स्थापना की गयी थी। परन्तु इन व्यवस्थापिका-सभाओं का न तो संगठन उचित था और न इनकी कुछ शक्ति ही थीं इनमें अधिकांशतः राजा, महाराजा या धनवान व्यक्ति नियुक्त किये जाते थे जो भारतीय जनमत को व्यक्त नहीं कर सकते थे जिसके कारण उस आशय की पूर्ति नहीं हो सकती थी जिसके लिए ये स्थापित की गयी थीं। इनके अधिकार भी सीमित थे। इन्हें कार्यकारिणी को नियन्त्रित करने का अधिकार न था, महत्वपूर्ण विषयों पर ये वाद-विवाद नहीं कर सकती थीं और इनकी सलाह को गवर्नर और गवर्नर-जनरल ठुकरा सकते थे। इस कारण भारतीय इस एक्ट से सन्तुष्ट न हो सके और कुछ समय पश्चात् ही उन्होंने व्यवस्थित तरीके से राजनीतिक आन्दोलन आरम्भ किया। 1885 ई० में इसी उद्देश्य से ‘अखिल भारतीय काँग्रेस’ की स्थापना की गयी। इस कारण ब्रिटिश संसद को 1892 ई० में एक अन्य नवीन कानून बनाना पड़ा।

1892 का भारतीय कौंसिल एक्ट

1861 ई0 के कानून से भारतीय सन्तुष्ट न हो सके। भारत सरकार भी गृह-सरकार के विरूद्ध अपने अधिकारों में वृद्धि करना चाहती थी और इसके लिए वह अधिकाधिक भारतीयों को शासन में सम्मिलित करना आवश्यक समझती थी। अंग्रेज व्यापारी अपने स्वार्थी की रक्षा के लिए कुछ प्रतिनिधित्व चाहते थे और इस कारण व्यवस्थापिका-सभा के सदस्यों की संख्या में वृद्धि के इच्छुक थे। अतएव भारत सरकार की ओर से स्वयं सुधारों का सुझाव दिया गया जिसके परिणामस्वरूप 1892 ई० के कानून का निर्माण हुआ, जिसकी धाराएँ निम्नवत् थीं :

  1. केन्द्रीय व्यवस्थापिका-सभा के सदस्यों की संख्या कम से कम 10 और अधिक से अधिक 16 निश्चित की गयी। इनमें से 10 सदस्यों का गैर-सरकारी होना आवश्यक था।
  2. प्रान्तों में भी व्यवस्थापिका-सभा के गैर-सरकारी तथा कुल सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गयी। उत्तर प्रदेश में यह संख्या 15 और बम्बई व मद्रास में 20 निश्चित की गयी।
  3. उस समय तक व्यवस्थापिका-सभा के सदस्य गवर्नर-जनरल और गवर्नरों के द्वारा नियुक्त किये जाते थे क्योंकि भारत में निर्वाचक-पद्धति आरम्भ नहीं हुई थी। परन्तु इस एक्ट के द्वारा इन सदस्यों की नियुक्ति कुछ प्रभावशाली संस्थाओं जैसे ‘कलकत्ता चेम्बर ऑफ कॉमर्स’ या केन्द्र में प्रान्तीय व्यवस्थापिका-सभाओं के गैर-सरकारी सदस्यों की सलाह से किये जाने की व्यवस्था की गयी।
  4. इन व्यवस्थापिका-सभाओं के सदस्यों के सदस्यों को वार्षिक बजट के आर्थिक प्रस्तावों पर बहस करने का अधिकार दिया गया, यद्यपि वे उन पर मतदान नहीं कर सकते थे। सार्वजनिक प्रश्नों के विषय में इन्हें कार्यकारिणी के सदस्यों से प्रश्न पूछने का अधिकार प्राप्त हुआ, यद्यपि इसके लिए उन्हें छह दिन पूर्व सूचना देनी पड़ती थी।
  1. 1909 भारतीय परिषद् अधिनियम 1892 का अधिनियम उदारवादी कांग्रेसियों को सन्तुष्ट न कर सका इसलिए सरकार ने नरम दल को सन्तुष्ट करने के लिए 1909 का अधिनियम पारित किया इस अधिनियम की शर्ते निम्न लिखित थी।
  2. केन्द्रीय व्यवस्थापिक सभा के सदस्यों की संख्या 16 से बढ़ाकर 60 कर दी गयी।
  3. प्रान्तों में भी व्यवस्थापिका सभाओं की सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी।
  4. इस अधिनियम द्वारा चुनावों में व्यवसायिक एवं सम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रणाली को अपनाया गया।
  5. भारत सचिव को मद्रास एवं बम्बई के कार्यकारिणी के सदस्यों की संख्या 2 से बढ़ाकर 4 करने का अधिकार दिया गया।

इन सुधारों के बावजूद लोगों की आशाए पूरी नहीं हुई तत्पश्चात 1919 का भारत शासन अधिनियम पारित हुआ।

  1. इस अधिनियम के द्वारा भारत सचिव की शक्तियों पर कुछ अंकुश लगाया गया।
  2. इंग्लैंण्ड में भारत के लिए एक उच्च आयुक्त की व्यवस्था की गयी।
  3. गवर्नर जनरल की शक्तियों में वृद्धि की गयी।
  4. प्रान्तों में द्वैध शासन की स्थापना की गयी।

इस प्रकार स्पष्ट है कि 1857 से 1919 तक ब्रिटिश शासन की नीतियों में अनेक परिवर्तन हुए। जिसके फलस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय भावना का विकास हुआ और भारतीयों की स्वतन्त्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ क्यों कि इन सुधारों में अनेक ऐसी खामियां थी जिसके कारण भारतियों की आशाएं न पूरी हो सकी।

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