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भारतीय समाज सुधार में राजा राम मोहन रॉय का योगदान

ब्रह्म समाज के उद्देश्य एवं कार्य

ब्रह्म समाज

ब्रह्म समाज की स्थापना 20 अगस्त, 1828 ई. को राजा राममोहन राय ने कलकत्ता में की। राजा राममोहन राय का जन्म 1774 ई. में राधानगर नामक बंगाल के एक गाँव में हुआ। उन्होंने अपने जीवन में अरबी, फारसी, अंग्रेजी, ग्रीक, हिब्रू आदि भाषाओं का अध्ययन किया। हिन्दू, ईसाई, इस्लाम और सूफी धर्म का भी उन्होंने अध्ययन किया। 17 वर्ष की अल्पायु में ही वे मूर्ति-पूजा के विरोधी हो गये। वे अंग्रेजी भाषा और सभ्यता से प्रभावित थे। उन्होंने इंग्लैण्ड की यात्रा की। धर्म और समाज सुधार उनका मुख्य लक्ष्य था। वे ईश्वर की एकता में विश्वास करते थे और सभी प्रकार के धार्मिक अन्धविश्वासों और कर्मकाण्डों के विरोधी थे। उन्होंने अपने विचारों को लेखों और पुस्तकों में प्रकाशित कराया। कट्टर हिन्दुओं और ईसाई धर्म-प्रचारकों से उनका संघर्ष हुआ। परन्तु वे जीवनभर अपने विचारों का पोषण करते रहे और उनके प्रचारार्थ उन्होंने ब्रह्म-समाज की स्थापना की।

राजा राममोहन राय की मृत्यु के पश्चात् ब्रह्म समाज धीरे-धीरे कई शाखाओं में विभक्त हो गया। महर्षि देवेन्द्र नाथ टैगोर ने आदि ब्रह्म समाज की स्थापना की, श्री केशवचन्द्र सेन ने ‘भारतीय ब्रह्म समाज’ स्थापित किया और उनके पश्चात् ‘साधारण ब्रह्म-समाज’ की स्थापना हुई। ब्रह्म-समाज के विचारों के समान ही डॉ. आत्माराम पाण्डुरंग ने 1867 ई. में महाराष्ट्र में ‘प्रार्थना-समाज’ की स्थापना की जिसे आर. जी. भण्डारकर और महादेव गोविन्द रानाडे जैसे व्यक्तियों का समर्थन प्राप्त हुआ। इस प्रकार ब्रह्म समाज यद्यपि विभिन्न शाखाओं में विभक्त हो गया परन्तु उसका मूल आधार एक ही था। सभी का उद्देश्य हिन्दू समाज और हिन्दू धर्म का सुधार करना था तथा सभी ने ईसाई धर्म और पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित होते हुए भी हिन्दू धार्मिक ग्रन्थों- मुख्यतः वेदों-को अपना मुख्य आधार बनाया था।

ब्रह्म-समाज 19वीं सदी का पहला धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन था जो धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में भारतीय पुनर्जागरण का प्रतीक था और राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे जिन्होंने उस सदी में भारतीय धर्म और समाज की बुराइयों को दूर करने के प्रयत्न किये। उनके समय में भारतीय समाज और धर्म बहुत बुरी स्थिति में थे। हिन्दू धर्म और समाज अपने यथार्थ को भूल चुके थे, धर्म का स्थान कर्मकाण्ड और अन्धविश्वास ने ले लिया था, दर्शन का स्थान अव्यावहारिक एवं अरुचिपूर्ण क्रियाओं ने ले लिया था और समाज में अनेक कुरीतियाँ आ गयी थीं। ऐसे समय में ईसाई धर्म और पश्चिमी सभ्यता ने हिन्दू धर्म और उसकी सभ्यता पर आक्रमण किया तथा ऐसा दिखायी देने लगा कि भारतीय सभ्यता और हिन्दू धर्म नष्ट हो जायेंगे। इस अवसर पर राजा राममोहन राय और उनके ब्रह्म-समाज ने भारतीय धर्म और समाज की बुराइयों को करने के प्रयत्न आरम्भ किये। वेदों और उपनिषदों के आधार पर हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को स्थापित करने, सत्य हिन्दू धर्म का प्रचार करने तथा समाज की अनेक कुरीतियों को दूर करके उसे शक्तिशाली बनाने का कार्य ब्रह्म-समाज ने आरम्भ किया। इससे हिन्दू धर्म में हिन्दुओं का विश्वास बढ़ा, एक बार पुनः उन्हें अपने धर्म और दर्शन का ज्ञान हुआ तथा वे अपने समाज के दोषों को दूर करने के लिए तत्पर हो गये। इसी कारण हिन्दू समाज और धर्म ईसाई और पश्चिमी सभ्यता के आघात से बच सके।

ब्रह्म-समाज ने भारतीय समाज को जीवन के सभी क्षेत्रों में नवजीवन प्रदान किया। धर्म की दृष्टि से ब्रह्म-समाज ने अपने विचारों को उपनिषदों और वेदों पर आधारित करके यह बताया कि ईश्वर एक है, सभी धर्मों में सत्य है, मूर्ति-पूजा और कर्मकाण्ड निरर्थक है तथा सामाजिक कुरीतियों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। तर्क के आधार पर धर्म की व्याख्या करने का विचार सर्वप्रथम उसने ही भारत को प्रदान किया। इस कारण अपने उग्र स्वरूप को प्राप्त करने तक ‘साधारण ब्रह्म-समाज’ ने वेदों को अन्तिम ईश्वरीय वाक्य मानने से इन्कार कर दिया। धर्म की व्याख्या करते हुए उसने ईसाई धर्म के कर्मकाण्ड और ईसामसीह के ईश्वरीय अवतार होने पर भी प्रहार किया तथा अनेक अवसरों पर राजा राममोहन राय और केशवचन्द्र सेन ने ईसाई धर्म प्रचारकों से वाद-विवाद किया। इससे हिन्दू धर्म में परिवर्तित होने से रुक गये। हिन्दू धर्म को अनेक कुरीतियों से बचाने और उसे साधारण एवं आधुनिक युग के अनुकूल बनाने में ब्रह्म-समाज ने पर्याप्त सफलता पायी। यह कहा गया कि ब्रह्म-समाज पर ईसाई धर्म से प्रेरणा प्राप्त नहीं की जाती थी। उसका मूल स्रोत भारतीय प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ ही थे। यह बात अवश्य स्वीकार की जा सकती है कि पश्चिमी सभ्यता की तर्क, स्वतंत्रता और खोज की भावना से ब्रह्म-समाज अवश्य प्रभावित था। इसी कारण उसने तत्कालीन प्रचलित धर्म के अनेक सिद्धान्तों का विरोध किया और उसका विरोध करने में प्राचीन वेदों एवं उपनिषदों को अपना आधार बनाया। इस प्रकार हिन्दू धर्म को आधुनिक और सरल बनाने का श्रेय ब्रह्म-समाज को है। यही नहीं, बल्कि ब्रह्म-समाज ने भारत में अन्य धार्मिक सुधारों के लिए मार्ग प्रशस्त किया। पहला संगठन था जिसने हिन्दू धर्म की प्राचीन दीवारों पर आक्रमण करने का साहस किया और उसमें दरारें बनायी। इससे हिन्दू धर्म को नवजीवन प्राप्त हुआ और अन्य धार्मिक सुधारों को बल प्राप्त हुआ।

ब्रह्म-समाज का एक मुख्य उद्देश्य समाज-सुधार भी था। हिन्दू समाज की कोई भी ऐसी कुरीति न थी जिस पर उसने प्रहार न किया हो। आधुनिक समय में जिन कुरीतियों का विरोध सभी सामाजिक और राजनीतिक नेताओं ने किया है तथा जिन्हें सम्पूर्ण भारतीय शिक्षित-वर्ग आज घृणा की दृष्टि से देखता है, उन कुरीतियों पर प्रथम आक्रमण ब्रह्म-समाज ने किया। ब्रह्म-समाज ने सती-प्रथा, बाल-विवाह, बहु-विवाह, अल्पायु-विवाह, जाति प्रथा, पर्दा प्रथा, अस्पृश्यता, नशा आदि सभी कुरीतियों का विरोध किया। इसके साथ-साथ समाज-सुधार के लिए स्त्री शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह, विधवा-विवाह आदि क्रियात्मक कार्य भी ब्रह्म-समाज ने किये। भारतीय संविधान ने जिन कुरीतियों को अब अवैध घोषित कर दिया है उनके विरुद्ध संघर्ष का आरम्भ ब्रह्म-समाज ने ही किया था।

अपने धार्मिक और सामाजिक विचारों को फैलाने के लिए ब्रह्म-समाज आधुनिक समय के सभी साधनों का प्रयोग किया था। विभिन्न समाजों की स्थापना, भाषण, लेख, समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, स्कूल और कॉलेज आदि की स्थापना, धार्मिक वाद-विवाद आदि सभी प्रकार के साधनों का उपयोग ब्रह्म-समाज ने किया। महर्षि देवेन्द्रनाथ की ‘तत्व-बोधिनी सभा केशवचन्द्र सेन की ‘संगत सभा’ और ‘भारतीय सुधार-समाज’ जैसे सभाएँ ब्रह्म-समाज के विचारों के प्रचार के लिए सहायक सभाओं की भाँति कार्य करती थीं। ब्रह्म-समाज द्वारा समय-समय पर विभिन्न पत्रिकाएँ और समाचार-पत्र निकाले गये, जैसे राजा राममोहन राय द्वारा ‘संवाद-कौर दी’ और ‘मिरातुल अखबार’; केशवचन्द्र सेन द्वारा (Indian Movement) और ‘वाम-बोधिनी’; साधारण ब्रह्म-समाज द्वारा ‘तत्व-कौमुदी’ (Brahma Public opinion) ‘संजीवनी’ आदि। इन समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं ने भारतीय विचारों को बदलने तथा विभिन्न धार्मिक एवं सामाजिक सुधार करने में महत्वपूर्ण योग दिया।

शिक्षा के क्षेत्र में राजा राममोहन राय के नेतृत्व में ब्रह्म समाज ने अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी शिक्षा का समर्थन किया। समाज ने विभिन्न स्थानों पर अनेक स्कूल और कॉलेज खोले। राजा राममोहन राय ने स्वयं ‘वेदान्त कॉलेज’, ‘इंगलिश स्कूल’ और ‘हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना कलकत्ता में की थी। केशवचन्द्र सेन ने भी अनेक स्कूल स्थापित किये और ‘साधारण ब्रह्म-समाज’ ने ‘ब्रह्म बालिका स्कूल’ व ‘City College of Calcutta’ की नींव डाली। भारत के आधुनिकीकरण और समाज-सुधार में इन शिक्षा-संस्थाओं का कितना योगदान रहा होगा, इसका केवल अनुमान ही किया जा सकता है।

यद्यपि ब्रह्म-समाज का मुख्य प्रभाव बंगाल में हुआ परन्तु फिर भी समाज की स्थापना पंजाब, मद्रास और उत्तर प्रदेश जैसे प्रान्तों में भी की गयी। महाराष्ट्र का ‘प्रार्थना समाज’ भी ब्रह्म-समाज से प्रेरित था जिसने ‘विधवा-विवाह संघ’, ‘दक्षिण शिक्षा-समिति’ और ‘दलित उद्धार मिशन’ की स्थापना की तथा समाज और धर्म-सुधार के लिए महाराष्ट्र में वही कार्य किये जो ब्रह्म समाज ने बंगाल में किये थे।

इसके अतिरिक्त, ब्रह्म समाज के नेताओं ने कृषकों की भलाई, प्रेस और समाचार पत्रों की स्वतंत्रता, कानूनों के निर्माण आदि विभिन्न कार्यों में भाग लिया। हिन्दू समाज को चेतना प्रदान करने में, उसकी कुरीतियों को दूर करने की ओर ध्यान दिलाने में और व्यावहारिक दृष्टि से उन कुरीतियों का खण्डन करने में ब्रह्म समाज भारतीय सुधार-आन्दोलन का मार्ग-प्रदर्शक था। इसी कारण जिस समय 1828 ई. में ब्रह्म-समाज का शताब्दी दिवस और 1933 ई. में राजा राममोहन राय का मृतक दिवस मनाया गया तब उनमें जैन-बौद्ध, सिख, ईसाई, इस्लाम, आर्य-समाज, रामकृष्ण-मिशन आदि सभी के प्रतिनिधि सम्मिलित हुए। यह ब्रह्म-समाज की उदारता की भावना और भारतीय समाज द्वारा उसकी सेवाओं का स्वीकार किया जाना था। यहाँ तक कि महात्मा गाँधी ने भी अपने राजनीतिक आन्दोलन में जाति प्रथा का विरोध, स्त्री-समानता, अछूतोद्धार जैसे समाज-सुधार के लक्ष्य सम्मिलित किये।

राष्ट्रीयता की भावना के निर्माण में भी ब्रह्म-समाज ने योग दिया। भारत के प्राचीन गौरव का निर्माण और अपनी सभ्यता एवं धर्म में विश्वास राष्ट्रीयता के निर्माण में विशेष सहायक था और इस दिशा में ब्रह्म-समाज ने महत्वपूर्ण कार्य किया। केशवचन्द्र सेन ने पहली बार भारतीय आधार पर समाज का निर्माण करने का प्रयत्न किया। जिससे भारत की एकता का विचार दृढ़ हुआ और उन्हीं का उदाहरण लेकर सर्वप्रथम सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी ने अपने राजनीतिक आन्दोलन को सम्पूर्ण भारत में फैलाने का प्रयत्न किया। इसमें सन्देह नहीं कि राजनीतिक क्षेत्र में ब्रह्म-समाज का योगदान अप्रत्यक्ष और सीमित था, परन्तु फिर भी उसने उसमें सहायता प्रदान की। शिवनाथ शास्त्री ने ‘साधारण ब्रह्म-समाज’ की प्रार्थना में अपने देश और उसके नागरिकों के उद्धार की प्रार्थना को सम्मिलित किया। ब्रह्म-समाज ने तर्क और स्वतंत्रता की भावना को जन्म दिया, यद्यपि उसका समर्थन वह पश्चिमी सभ्यता के आधार पर करता था। लेकिन उसी को भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रचारकों ने मोड़ दे दिया। राजनारायन बोस जैसे व्यक्तियों ने कहा : ‘भारतीय धर्म और सभ्यता ईसाई धर्म और सभ्यता से श्रेष्ठ है।”

इस प्रकार ब्रह्म-समाज ने समाज-सुधार धर्म-सुधार और आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योग दिया। उसने पहली बार भारतीय समाज की आवश्यकताओं और समस्याओं को भारतीयों के सम्मुख रखा तथा बौद्धिक जागृति की ओर एक साहसिक कदम उठाया जिससे आगे आने वाले सुधारकों को सहायता प्राप्त हुई। धीरे-धीरे भारतीय और भारतीय धर्म-सुधारक पश्चिमी सभ्यता से प्रेरणा लेना भूल गये और उन्होंने अपनी प्रेरणा का आधार भारतीय संस्कृति और धर्म को बनाया। इससे भारत में और भी अधिक उग्रवादी धर्म एवं समाज-सुधारक हुए जिनकी पृष्ठभूमि का निर्माण भारतीय धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता ने किया। ब्रह्म-समाज का कार्य इन कार्यों को आरम्भ करने का था। पश्चिमी सभ्यता से उसे प्रेरणा प्राप्त हुई थी। इस कारण वह उसके प्रति अपनी श्रद्धा न छोड़ सका था। परन्तु उसके पश्चात् आर्य-समाज और रामकृष्ण मिशन को इसकी आवश्यकता नहीं रह गयी। भारतीय व्यक्तित्व निखर गया और उसमें पश्चिमी सभ्यता एवं धर्म से टक्कर लेने का साहस और आत्म-विश्वास आ गया। इस कारण आर्य-समाज और रामकृष्ण मिशन शुद्ध भारतीय आन्दोलन हुए। परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म-समाज ने इनकी आधारशिला का निर्माण किया। उसने ऐसा वातावरण तैयार कर दिया था जिसमें भारतीय इस साहसपूर्ण कदम को उठा सके। इसी कारण डॉ. जकारिया ने लिखा है : “राममोहन राय को उनका ब्रह्म-समाज हिन्दू धर्म, समाज और राजनीति में उन सभी सुधार आन्दोलनों को आरम्भ करने वाले थे जिन्होंने सौ वर्षों में उत्तेजना पैदा की और जिन्होंने हमारे समय में उसके अद्वितीय पुनर्जागरण को जन्म दिया है।”

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