(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
close button
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
(adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});

भारत में ब्रिटिश शासकों की आर्थिक नीतियां एवं उसके प्रभाव

अंग्रेजी प्रशासन की आर्थिक नीतियां 

भारत में अंग्रेजों का प्रमुख उद्देश्य सर्वदा आर्थिक लाभ प्राप्त करना रहा। भारत में उनके द्वारा स्थापित लगान-व्यवस्था भी इसी हित की पूर्ति का एक साधन थी। लगान प्राप्त करने के लिए जो विभिन्न व्यवस्थाएँ विभिन्न अवसरों पर स्थानों पर अंग्रेजों ने स्थापित की उनका मुख्य उद्देश्य कम्पनी की आय में अधिकतम वृद्धि करना था। उसी आय से सम्पनी के प्रशासन और युद्धों के व्यय की पूर्ति की जाती थी। इसके अतिरिक्त, अंग्रेजों ने अपनी नीतियों द्वारा भारत-के हस्त-उद्योगों को भी नष्ट कर दिया जिससे कारीगर-वर्ग भी गाँवों में एकत्रित हो गया। इससे भूमि पर जनसंख्या का भार बढ़ा, भूमि का बँटवारा हुआ और किसानों की आय कम हुई। इस सभी का परिणाम भारतीय किसानों का निर्धन हो जाना था जो भारत की जनसंख्या का बहुसंख्यक वर्ग था।

अंग्रेजों की लगान-व्यवस्था का आरम्भ 1765 ई. में बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबा से हुआ जबकि ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुगल बादशाह से इन सूबों की दीवानी प्राप्त की। परन्तु उस समय में कम्पनी ने लगान-प्रशासन का उत्तरदायित्व प्रत्यक्ष रूप से अपने हाथ में नहीं लिया, अपितु दो भारतीय उप-दीवानों की नियुक्ति करके अपने लिए अधिक से अधिक आय प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इसका परिणाम बंगाल का द्वैध शासन (1765-1722 ई.) था। द्वैध-शासन पूर्णतः असफल हुआ। 1772 ई. में जब वारेन हेस्टिंग्स कम्पनी का गवर्नर बनकर भारत आया तब डायरेक्टरों के आदेश पर उसने द्वैध शासन को समाप्त करके लगान व्यवस्था का दायित्व प्रत्यक्ष रूप से कम्पनी के हाथा में ले लिया। वारेन हेस्टिंग्स ने भूमि को पाँच वर्ष के लिए ठेकेदारों को देना आरम्भ किया : यद्यपि उनसे आश्वासन लिया कि वे किसानों को पट्टे (किसानों से लगान देने के बारे में समझौता) देंगे, प्रत्येक जिले में कलेक्टरों की नियुक्ति की, समस्त जिले छह डिवीजनों में संगठित किये, प्रत्येक डिवीजन में एक लगान-बोर्ड की स्थापना की और लगान के हिसाब-किताब की जाँच के लिए एक राय-रायन नामक अधिकारी और एक आय लेखा-सचिव (ऑडीटर-जनरल) की नियुक्ति की। 1778 ई. में भूमि को पाँच वर्ष के स्थान पर प्रति वर्ष ठेके पर दिया जाना आरम्भ किया गया। परन्तु वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित लगान-व्यवस्था भी किसानों के लिए हानिकारक थी। भूमि उन ठेकेदारों को दी जाती थी जो अधिकाधिक लगान देने का आश्वासन देकर भूमि को ठेके पर लेते थे। इस कारण वे किसानों से अधिकतम लगान वसूल करने का प्रयत्न करते थे जिससे कम्पनी की स्थिति खराब होती थी। यह सब होते हुए भी बहुत से ठेकेदार ठेके की राशि को कम्पनी को नहीं दे पाते थे और उनसे उनकी भूमि छीनकर उन व्यक्तियों को दे दी जाती थी जो कम्पनी को अधिक लगान देने का वायदा करते थे। इस प्रकार वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित लगान पूर्णतः दोषपूर्ण थी।

1757 ई. ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्लासी के युद्ध को जीता उसके फलस्वरूप बंगाल, बिहार और उड़ीसा के सूबा में उसका राजनीतिक प्रभाव स्थापित हो गया। उस समय से अंग्रेजों द्वारा आर्थिक शोषण आरम्भ हुआ। प्रारम्भ में बिना कोई व्यापारिक कर दिये अपने राजनीतिक प्रभाव-क्षेत्र में व्यापार करती रही, नामक, सुपारी और तम्बाकू के व्यापार पर उसने एकाधिपत्य रखा, धीरे-धीरे अपने इस व्यापारिक एकाधिपत्य को अन्य वस्तुओं पर बढ़ाती गयी और ऐसा करते हुए उसने सफलता से अपने भारतीय और विदेशी व्यापारिक प्रतिद्वन्द्वियों को समाप्त करने में सफलता प्राप्त की। कम्पनी ने कच्चे सूत और रेशम के बेचने के व्यापार पर अपना एकाधिपत्य स्थापित किया, भारतीय जुलाहों को अपनी इच्छानुसार कपड़ा बनाने के लिए बाध्य किया और उन्हें कम से कम कीमत दी जिससे वह अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सकी। कम्पनी के कर्मचारियों ने अपने व्यक्तिगत व्यापार को लाभप्रद बनाने के लिए भी यही कार्य किये। इसके परिणामस्वरूप भारतीय कारीगर पूर्णतः निर्धन हो गये, भारतीय व्यापारी नष्ट हो गये और बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के सूबा की आर्थिक सम्पन्नता नष्ट हो गयी। 1858 ई. में सर जॉर्ज कॉर्नवेल ने ब्रिटिश संसद के सम्मुख कहा था : “मैं यह विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि (1765-1784 ई. के मध्य की ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार जैसी भ्रष्ट, लालची और स्वार्थी सरकार संसार में अन्यत्र कहीं नहीं पायी जा सकती।

18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटेन में औद्योगिक क्रान्ति हो जाने से उसकी अर्थव्यवस्था गम्भीरता से प्रभावित हुई और इस कारण ब्रिटेन से भारत के आर्थिक सम्बन्धों में भी परिवर्तन हुए। 1757 ई. में प्लासी के युद्ध की विजय के समय से ही ब्रिटेन में मशीनों का युग आरम्भ हुआ। ब्रिटेन यूरोप के राज्यों में सर्वाधिक शक्तिशाली औपनिवेशिक शक्ति था। उसके उपनिवेश उसे उसकी वस्तुओं को विस्तृत बाजार प्रदान करते थे और पारस्परिक व्यापार द्वारा भी ब्रिटेन के लिए अत्यधिक लाभदायक थे। इस व्यापारिक लाभ द्वारा ब्रिटेन में पूँजी का संचय सम्भव हुआ था। ब्रिटेन ने उस पूँजी का प्रयोग वैज्ञानिक और तकनीकी उन्नति के लिए किया जिसका परिणाम 18वीं सदी में हुई औद्योगिक क्रान्ति था। ब्रिटेन में मशीनों का युग आरम्भ हुआ जिनका प्रयोग उत्पादन के लिए किया गया जिससे विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हुई। ब्रिटेन के प्रगति करते हुए उद्योगों में प्रमुख स्थान कपड़ा-उद्योग का था तथा उसका उत्पादन एवं निर्यात ब्रिटेन के विदेशी व्यापार और आर्थिक लाभ का मुख्य साधन बन गया। इससे ब्रिटेन में पूँजीपति-वर्ग की उत्पत्ति हुई जिसने ब्रिटेन की सरकार की नीतियों को गम्भीरता से प्रभावित करना शुरू किया। इन परिवर्तनों ने भारत और और उसके जन-जीवन को गम्भीरता से प्रभावित किया। भारत का मुख्य उद्योग कपड़ा-उत्पादन था जो हाथों द्वारा संचालित साधारण उपकरणों से तैयार किया जाता था। भारत में बनाया गया यह कपड़ा ब्रिटेन द्वारा मशीनों से बनाये गये कपड़े का मुकाबला न तो भारतीय बाजारों में कर सका और न विदेशी बाजार में। इसके अतिरिक्त, ब्रिटेन की सरकार और भारत को अंग्रेजी सरकार की नीतियों का मुख्य उद्देश्य भारत से ब्रिटेन को उसके विभित्र उद्योगों के लिए कच्चा-माल उपलब्ध कराना और ब्रिटेन के बने हुए सामान को भारत में बेचने की सभी सुविधाएँ पहुँचाना मात्र रह गया। ब्रिटेन के उद्योगपतियों ने अपने लाभ के लिए ब्रिटेन की सरकार पर दबाव डालना शुरू किया और ब्रिटेन की सरकार ने भारत की अंग्रेजी सरकार की उन नीतियों को अपनाने के लिए बाध्य किया जो ब्रिटेन के हित में थीं। ब्रिटिश उद्योगपतियों ने कम्पनी की भारत सरकार की उदार आयात-नीति अपनाने के लिए बाध्य किया जिससे ब्रिटेन की वस्तुओं का आयात भारत में बहुत अधिक बढ़ गया। आर. सी. दत्त ने अपनी पुस्तक ‘भारत का आर्थिक इतिहास’ में लिखा है : “1812 ई. में ब्रिटिश संसद द्वारा नियुक्त की गयी विशेष समिति का उद्देश्य यह पता लगाना था कि ब्रिटिश उद्योगपति भारतीय उद्योगपतियों की और ब्रिटिश उद्योग भारतीय उद्योगों को किस प्रकार हटा सकते हैं।” इस प्रकार यह निश्चित था कि ब्रिटिश सरकार प्रत्येक प्रकार से ब्रिटेन के आर्थिक हितों की पूर्ति करने के लिए प्रयत्नशील थी। 1813 ई. में भारत के व्यापार पर से ईस्ट इण्डिया कम्पनी के एकाधिपत्य को समाप्त कर दिया गया। इसका उद्देश्य ब्रिटेन के सभी उद्योगपतियों और उनकी वस्तुओं के लिए भारत के बाजार को खोलना था। इससे भारत का विदेशी व्यापार कम हुआ। 1814-1835 ई. के मध्य ब्रिटेन के सूती कपड़े का निर्यात भारत में प्रायः 1 मिलियन गज से बढ़कर 51 मिलियन गज हो गया जबकि ब्रिटेन को भारत के सूती कपड़े के निर्यात की मात्रा में अत्यधिक कमी हुई और यह कमी समय के साथ-साथ बढ़ती गयी। 1833 ई. में ब्रिटेन के आर्थिक हितों की रक्षा के लिए कम्पनी की भारत सरकार ने ‘स्वतंत्र-व्यापार’ की नीति अपनायी जिसके अन्तर्गत ब्रिटेन की वस्तुओं से या तो आयात कर पूर्णतः समाप्त कर दिया गया अथवा कम कर दिया गया। इससे ब्रिटेन के उद्योगपतियों को भारत में खुला बाजार प्राप्त हो गया और ब्रिटेन का निर्यात भारत में बहुत अधिक बढ़ गया। इसके विपरीत, भारत की वस्तुओं को ब्रिटेन में आयात किये जाने से रोकने के लिए ब्रिटेन की सरकार ने ‘संरक्षण की नीति’ अपनायी जिसके अन्तर्गत भारत की वस्तुओं पर लगाये गये आयात-कर में वृद्धि की गयी। उदाहरणार्थ, 1824 ई. में भारतीय कैली को कपड़े पर 67.5% और भारतीय मलमल पर 37.5% आयात-कर था। इस कारण यह कथन भी सर्वदा उचित है कि केवल मशीनों के कारण नहीं अपितु भारत की राजनीतिक सत्ता के अंग्रेजों के हाथों में चले जाने से भारत की वस्तुओं का ब्रिटेन में निर्यात कम हुआ और ब्रिटेन की वस्तुओं का भारत में आयात बढ़ा।

उपर्युक्त परिस्थितियों में भारत के उद्योग और विदेशी व्यापार नष्ट हुए। धीरे-धीरे भारत की वस्तुओं का निर्यात ब्रिटेन में समाप्त हो गया जबकि ब्रिटेन की वस्तुओं से भारत के बाजार पट गये। इससे भारत के लघु-उद्योग नष्ट हुए और कृषि पर भार बढ़ गया, क्योंकि उद्योगों के नष्ट हो जाने से कारीगरों ने भी कृषि को अपना व्यवसाय बनाया। इसके अतिरिक्त, भारत को ब्रिटेन के उद्योगों के लिए कच्चा माल भी उपलब्ध कराना पड़ा। भारत ने ब्रिटेन को सूती और रेशमी कपड़ा भेजने के स्थान पर रुई और कच्चा रेशम भेजना शुरू किया। यह भारत की एक आवश्यकता बन गया क्योंकि ब्रिटेन की बनी हुई वस्तुओं के बदले में भारत के पास कच्चा माल भेजने के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं रह गया था। 1813 ई. में भारत ब्रिटेन को 9 मिलियन पौण्ड की रुई भेजता था, 1833 ई. में भारत ने 32 मिलियन पौण्ड की रुई भेजी। यही स्थिति अन्य कच्ची वस्तुओं के निर्यात की रही। 1849 ई. में भारत का ब्रिटेन को जूट का निर्यात 68,000 पौण्ड की कीमत का था जबकि 1914 ई. में यह निर्यात 86 मिलियन पौण्ड का हो गया। ब्रिटेन के कच्चे माल की आवश्यकता की पूर्ति करने हेतु भारत की कम्पनी की सरकार ने कपास, कच्चे रेशम, नील, चाय आदि की कृषि पर बल दिया।, भारत सरकार ने भारतीयों में ब्रिटेन की बनी हुई वस्तुओं का प्रयोग करने की रुचि उत्पन्न करने के लिए भी विभिन्न प्रयत्न किये ताकि ब्रिटेन के भारत से होने वाले व्यापार में वृद्धि हो। इन सभी परिस्थितियों ने ब्रिटेन द्वारा भारत के आर्थिक शोषण को सम्भव बनाया और भारतीयों को निर्धन बनाने में सहायता दी।

महत्वपूर्ण लिंक

Disclaimer: wandofknowledge.com केवल शिक्षा और ज्ञान के उद्देश्य से बनाया गया है। किसी भी प्रश्न के लिए, अस्वीकरण से अनुरोध है कि कृपया हमसे संपर्क करें। हम आपको विश्वास दिलाते हैं कि हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेंगे। हम नकल को प्रोत्साहन नहीं देते हैं। अगर किसी भी तरह से यह कानून का उल्लंघन करता है या कोई समस्या है, तो कृपया हमें wandofknowledge539@gmail.com पर मेल करें।

About the author

Wand of Knowledge Team

Leave a Comment

error: Content is protected !!