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भारत में आधुनिक शिक्षा का विकास

आधुनिक शिक्षा का विकास

1772 ई. में बंगाल से भारत में प्रत्यक्ष अंग्रेजी शासन का आरम्भ हुआ। परन्तु एक लम्बे समय तक कम्पनी के डायरेक्टरों ने भारतीयों की शिक्षा के लिए कोई भी कदम उठाना अपना उत्तरदायित्व नहीं माना। जो कुछ भी प्रयास हुआ वह भारत में निवास करने वाले अंग्रेज अधिकारियों के प्रयत्नों से हुआ। वारेन हेस्टिंग्स ने 1781 ई. में ‘कलकत्ता मदरसा’ की स्थापना की जहाँ फारसी और अरबी भाषा की शिक्षा का प्रबन्ध किया गया। 1791 ई. में अंग्रेज-रेजीडेण्ट जानेथन डंकन के प्रयत्नों से बनारस एवं रीति-रिवाजों की शिक्षा प्रदान करने के लिए 1800 ई. में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की, परन्तु 1802 ई. में डायरेक्टरों के आदेश के कारण इसे बन्द कर दिया गया। 1813 ई. के आदेश-पत्र में निश्चय किया गया कि भारतीयों की शिक्षा के लिए कम्पनी की सरकार प्रति वर्ष एक लाख रुपया व्यय करेगी, परन्तु उस धन का उपयोग पर्याप्त वर्षों तक नहीं किया गया। इसका मुख्य कारण यह रहा कि सरकार यह निश्चय न कर सकी कि इस धन का उपयोग भारतीय भाषाओं और ज्ञान की वृद्धि के लिए किया जाए अथवा भारत में पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली को आरम्भ किया जाय। अंग्रेज विद्वान और शासन-अधिकारी ही नहीं बल्कि भारतीय विद्वानों का भी इस बारे में पारस्परिक मतभेद था। राजा राममोहन राय भारत में अंग्रेजी शिक्षा को आरम्भ में किये जाने के पक्ष में थे। विभिन्न ईसाई पादरी और उदार भारतीय भी इसी पक्ष में उतरे थे। उदार भारतीयों के स्वयं के प्रयत्नों से 1817 ई. में कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की गयी थी तथा ईसाई पादरियों ने भी अंग्रेजी भाषा की शिक्षा के लिए विभिन्न स्थानों पर स्कूल खोले थे। परन्तु अनेक भारतीय और अंग्रेज ऐसे भी थे जो भारतीय भाषाओं और ज्ञान की शिक्षा पर ही सरकारी धन का व्यय चाहते थे। पर्याप्त समय तक इन दोनों पक्षों के वाद-विवाद चलता रहा।

मैकाले की शिक्षा-व्यवस्था

शिक्षा की ओर सर्वप्रथम एक महत्वपूर्ण कदम गवर्नर जनरल विलियम बेन्टिक के समय में उठाया गया। पाश्चात्य और भारतीय शिक्षा के विषय में जो मतभेद चल रहा था उसका निर्णय उसी के समय हुआ। इस विषय में निर्णय उसी के समय हुआ। इस विषय में निर्णय लेने के लिए जो समिति नियुक्त की गयी थी, वह किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकी थी। भारतीय शिक्षा के पक्ष का नेतृत्व विल्सन और प्रिन्सेप जैसे विद्वान कर रहे थे। उनको ओरिएण्टलिस्ट पुकारा गया था। अंग्रेजी भाषा और शिक्षा का समर्थन ट्रेवेलियन और राजा राम मोहन राय जैसे उदार भारतीय कर रहे थे। उन्हें ऐंग्लिसिस्ट्स पुकारा गया था। बेन्टिक स्वयं पाश्चात्य शिक्षा को आरम्भ किये जाने के पक्ष में था। परन्तु उसने अपने विचार को लादने का प्रयत्न नहीं किया। उसने अपने कानूनी सदस्य मैकॉले को शिक्षा समिति का सभापति नियुक्त किया और उससे निर्णय लेने के लिये कहा। 2 फरवरी, 1835 ई. को मैकॉले ने अपने विचारों को एक विशेष विवरण में प्रस्तुत किया। उसने भारतीय शिक्षा और ज्ञान को बहुत हीन बताया, पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली का समर्थन किया और अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का समर्थन किया। 1836 ई. में उसकी रिपोर्ट के आधार पर अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम और पाश्चात्य शिक्षा को भारत की शिक्षा प्रणाली का आधार स्वीकार कर लिया गया। मैकॉले का विश्वास था कि सरकार अपने सीमित साधनों से कुछ मात्रा में ही भारतीयों की शिक्षा की व्यवस्था कर सकती थी और वे शिक्षित भारतीयों अन्य भारतीयों की शिक्षा अथवा भारतीय भाषाओं की शिक्षा और ज्ञान की देखभाल कर सकते थे।

परन्तु उत्तर-पश्चिमी प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) में लेफ्टिनेण्ट गवर्नर जेम्स थामसन ने स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए गाँवों और नगरों में शिक्षा के लिए एक भिन्न योजना को कार्यान्वित किया। उसे लगान और सार्वजनिक सेवा-विभाग में कुछ शिक्षित भारतीयों की आवश्यकता थी, इस कारण यद्यपि उच्च शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा को ही रखा गया परन्तु माध्यमिक शिक्षा की व्यवस्था हेतु प्रादेशिक भाषा को ही माध्यम बनाया गया। तब भी मूल आधार पर शिक्षा का आधार मैकॉले द्वारा निर्धारित शिक्षा व्यवस्था ही रहा।

चार्ल्सवुड के शिक्षा-सुझाव, 1854 ई०

1854 ई. में बोर्ड ऑफ कण्ट्रोल (अधिकार-सभा) के सभापति चार्ल्स वुड ने भारतीय शिक्षा के सम्बन्ध में विस्तृत रूप से अपने सुझाव भेजे। उसको भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्ना कार्टा पुकारा गया है। उसके सुझावों की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित थीं :

  1. अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति पूर्ववत् रही, परन्तु भारतीय भाषाओं के ज्ञान को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से विकसित करने पर बल दिया गया।
  2. गाँवों में प्राइमरी वर्नाक्यूलर स्कूल स्थापित किये जायें तथा जिलें में ऐंग्लो वर्नाक्यूलर माध्यमिक विद्यालय और कॉलेज स्थापित किये जायें।
  3. व्यक्तिात प्रयत्नों के स्कूल और कॉलेज स्थापित किये जाने को प्रोत्साहन दिया जाए और सरकार उनको आर्थिक अनुदान प्रदान करे।
  4. प्रत्येक प्रान्त में एक डायरेक्टर के अधीक्षण में एक शिक्षा-विभाग खोला जाय जो प्रान्त की शिक्षा-व्यवस्था की देखभाल करे और उस सम्बन्ध में सरकार को प्रति वर्ष अपनी रिपोर्ट दे।
  5. लन्दन विश्वविद्यालय के समकक्ष कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में विश्वविद्यालय खोले जायें।
  6. व्यावसायिक शिक्षा की वृद्धि के लिए अलग से स्कूल और कॉलेज खोले जायें।
  7. इंगलैण्ड की भाँति अध्यापकों की शिक्षा के लिए अलग से ट्रेनिंग स्कूल खोले जायें।
  8. स्त्री-शिक्षा का विस्तार किया जाय।

वुड के शिक्षा-सुझावों को तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने कार्यरूप में परिणम करने का प्रयत्न किया। 1855 ई. में पृथक् शिक्षा-विभाग की स्थापना की गयी प्रान्तों में शिक्षा-डायरेक्टरों की नियुक्ति की गयी और अन्य सुझावों के आधार पर भी कार्य आरम्भ कर दिया गया। 1858 ई. में कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित किये गये जिनमें शिक्षा की व्यवस्था तो न थी परन्तु जिन्होंने परीक्षा लेने तथा डिग्री प्रदान करने के उत्तरदायित्व का निर्वाह करना आरम्भ कर दिया। आगे आने वाले कुछ दशकों में इन्हीं सुझावों के आधार पर कार्य किया गया जिसके फलस्वरूप भारत की शिक्षा का ढाँचा पाश्चात्य शिक्षा-पद्धात क आधार पर विकसित हुआ और प्राचीन शिक्षा-पद्धति नष्ट हो गयी।

1859 ई. में सरकार ने अपनी ओर से आर्थिक अनुदान दिये जाने की व्यवस्था को केवल स्कूलों और कॉलेजों तक ही सीमित कर दिया जिससे प्राथमिक शिक्षा का विकास कम हुआ। 1870 ई. में शिक्षा को प्रान्तीय विषय बना दिया गया जिससे सरकारी आर्थिक सहायता में कमी हुई और शिक्षा की उन्नति में बाधा आयी।

हण्टर कमीशन (1882-83 ई)

1882 ई. में डब्लू, डब्लू. हण्टर की अध्यक्षता में ‘वुड्स डिस्पेच’ के कार्यों का मूल्यांकन करने के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की गयी। यद्यपि इसका मुख्य लक्ष्य प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए सुझाव प्रस्तुत करना था परन्तु इसने उच्च शिक्षा के लिए भी सुझाव दिये। इसके मुख्य सुझाव निम्नलिखित थे :

  1. सरकार को उच्च शिक्षा संस्थाओं के प्रत्यक्ष संचालन तथा प्रबन्ध से अपना हाथ धीरे-धीरे हटा लेना चाहिये। इसके स्थान पर सरकार द्वारा कॉलेजों एवं माध्यमिक स्कूलों के लिए वित्तीय सहायता तथा विशेष अनुदान की व्यवस्था की जानी चाहिए। कॉलेजों और माध्यमिक स्कूलों की स्थापना मुख्यतः सामाजिक संस्थाओं एवं व्यक्तिगत प्रयत्नों के द्वारा की जानी चाहिए। सरकार उन पर नियंत्रण रखे और उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करे।
  2. सरकार को मुख्यतः प्राथमिक शिक्षा के विस्तार एवं सुधार पर ध्यान देना चाहिए। स्थानीय जिला परिषदों और नगरपालिकाओं की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।
  3. माध्यमिक शिक्षा दो प्रकार की होनी चाहिए- साहित्यिक और व्यावसायिक। दोनों के लिए भिन्न शिक्षालय होने चाहिए।
  4. स्त्री-शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए।

हण्टर कमीशन की रिपोर्ट के पश्चात् दो दशकों में माध्यमिक स्कूलों और कॉलेजीय शिक्षा का तीव्रता विकास हुआ। उसी समय में ऐसे विश्वविद्यालय स्थापित हुए जो केवल परीक्षा नहीं लेते थे बल्कि जहाँ शिक्षण की व्यवस्था भी की गयी थी। 1882 ई. में पंजाब विश्वविद्यालय स्थापित हुआ और 1887 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। परन्तु प्राथमिक शिक्षा पर सरकार ने अधिक ध्यान नहीं दिया। माध्यमिक स्कूल और कॉलेजों की शिक्षा के विस्तार में भी सरकार का योगदान कम रहा। इनका विकास मुख्यतः सामाजिक संस्थाओं एवं व्यक्तिगत प्रयत्नों से हुआ।

भारतीय विश्वविद्यालय कानून, 1904 ई०

लॉर्ड कर्जन शिक्षालयों को सरकारी नियंत्रण में लाने के लिए उत्सुक था। उसका विचार था कि भारत की शिक्षा-संस्थाएँ मुख्यतः विश्वविद्यालय राजनीतिक दलबन्दियों अथवा षड्यन्त्रों के केन्द्र बन गये थे। निश्चय ही शिक्षित भारतीयों में राष्ट्रीयता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ था वे अंग्रेजी साम्राज्यवाद के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकते थे। इस कारण लॉर्ड कर्जन का मुख्य उद्देश्य शिक्षा-संस्थाओं को सरकारी नियंत्रण में लेकर भारतीयों की राजनीतिक क्रियाओं को दुर्बल करने का था, यद्यपि बहाना उसने यह लिया कि शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा था और उसमें सुधार की आवश्यकता थी। अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसने 1901 ई. में शिमला में सरकारी शिक्षा-अधिकारियों और विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों की एक सभा बुलायी। इस सभा ने शिक्षा के सम्बन्ध में 150 प्रस्ताव स्वीकार किये। कर्जन ने 1902 ई. में सर थॉमस रैले की अध्यक्षता में एक शिक्षा कमीशन की नियुक्ति की। इसका मुख्य कार्य भारतीय विश्वविद्यालयों की शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव देना था। इसकी रिपोर्ट के आधार 1904 ई. का भारतीय विश्वविद्यालय कानून बनाया गया जिसकी मुख्य धाराएँ निम्नवत थीं :

  1. विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा और अनुसन्धान पर ध्यान दें। वे योग्य प्रोफेसरों और अध्यापकों की नियुक्ति करें तथा उचित पुस्तकालयों एवं प्रयोगशालाओं की स्थापना का प्रबन्ध करें।
  2. विश्वविद्यालयों की सीनेट के सदस्यों की संख्या कम से कम 50 से अधिक से अधिक 100 निश्चित की गयी। उनके कार्यालय की अवधि 6 वर्ष निश्चित की गयी। सीनेट के अधिकांश सदस्यों की नियुक्ति सरकार करने लगी। कलकत्ता, मद्रास और बम्बई विश्वविद्यालयों की सीनेट के सदस्यों में 20 निर्वाचित सदस्य रखे गये और अन्य विश्वविद्यालयों में केवल 15 अन्य सभी सदस्य सरकार के द्वारा नियुक्त किये जाने लगे। इसके अतिरिक्त, सरकार को सीनेट द्वारा बनाये गये नियमों में परिवर्तन करने अथवा उनको अस्वीकार करने का भी अधिकार दिया गया।
  3. विश्वविद्यालयों के अधिकार क्षेत्र को निश्चित करने, उनके अन्तर्गत कॉलेजों को स्वीकृति प्रदान करने आदि का अधिकार भी सरकार ने अपने हाथों में ले लिया।
  4. विश्वविद्यालयों का नियंत्रण अपने अधीन कॉलेजों पर बढ़ा दिया गया।

इस प्रकार इस कानून के द्वारा सरकार ने विश्वविद्यालयों को पूर्णतः अपने अधीन कर लिया और उनके माध्यम से कॉलेजों को भी अपने अधीन कर लिया। कर्जन का उद्देश्य उच्च शिक्षा को सरकारी नियंत्रण में लाना था। इस कानून ने उसके इस उद्देश्य की पूर्ति कर दी। परन्तु भारतीयों ने इसका तीव्र विरोध किया। इस कानून से शिक्षा-पद्धति पर कोई लाभदायक प्रभाव नहीं पड़ा।

परन्तु एक अन्य दृष्टि से लॉर्ड कर्जन का समय शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति का रहा। कर्जन उच्च शिक्षा की बजाय प्राथमिक शिक्षा पर, शहरों में शिक्षा प्रदान करने की बजाय ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा-प्रसार पर और व्यावसायिक शिक्षा के स्थान पर कृषि-शिक्षा पर अधिक बल देता था। यद्यपि इसका मुख्य कारण नगरों के शिक्षित व्यक्तियों का अंग्रेजी प्रशासन के विरुद्ध बढ़ता हुआ असन्तोष था जिसे कर्जन रोकना चाहता था परन्तु तब भी उसकी शिक्षा नीति से स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई।

1913 ई० का शिक्षा-प्रस्ताव

1906 ई. में बड़ौदा राज्य ने अपनी सीमाओं के अन्तर्गत प्राथमिक शिक्षा को निःशुल्क और अनिवार्य कर दिया। भारतीय राष्ट्रीय नेताओं ने भारत सरकार से मांग की कि वह प्राथमिक शिक्षा का उत्तरदायित्व इसी भाँति अपने हाथों में ले ले। भारत सरकार इस बात के लिए तो तत्पर नहीं हुई परन्तु फरवरी 1913 ई. में उसने एक प्रस्ताव स्वीकार किया जिसके द्वारा उसने निरक्षरता को समाप्त करना सरकार का दायित्व स्वीकार किया। इस प्रस्ताव में यह भी सुझाव दिया गया कि प्रत्येक प्रान्त में कम से कम विश्वविद्यालय अवश्य हो।

सैडलर विश्वविद्यालय कमीशन, 1917 ई०

1917 ई. में भारत सरकार ने विश्वविद्यालय शिक्षा में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए सरक माइकेल सेडलर की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की। इस कमीशन ने विश्वविद्यालय शिक्षा सम्बन्धी ही नहीं अपितु माध्यमिक शिक्षा सम्बन्धी सुझाव भी दिये। इसके मुख्य सुझाव निम्नवत थे:

  1. माध्यमिक शिक्षा 12 वर्ष में पूर्ण हो। हाईस्कूल की परीक्षा के पश्चात् विद्यार्थी दो वर्ष इण्टरमीडिएट में शिक्षा प्राप्त करें। इसके पश्चात् उसे विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त हो। इण्टरमीडिएट की शिक्षा हाईस्कूल के साथ सम्मिलित की जा सकती थी अथवा उसकी पृथक् व्यवस्था भी हो सकती थी। इस शिक्षा की व्यवस्था के लिए प्रत्येक प्रान्त में एक हाईस्कूल और इण्टरमीडिएट बोर्ड की स्थापना की जाय।
  2. स्नातकीय शिक्षा अधिकतम तीन वर्ष की हो तथा बी.ए. पास और ऑनर्स की शिक्षा से दी जाय।
  3. धीरे-धीरे विश्वविद्यालय ऐसे बनाये जायें जहाँ शिक्षकों और विद्यार्थियों के रहने की भी व्यवस्था हो।
  4. स्त्री-शिक्षा को बढ़ावा दिया जाये।
  5. अध्यापकों की शिक्षा के लिए स्कूल तथा कॉलेज खोले जायें।
  6. वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा का विस्तार किया जाये।

सरकार ने इस कमीशन के सभी सुझावों को स्वीकार कर लिया और 1920 ई. में प्रान्तीय सरकारों को भी इन सुझावों को कार्य रूप में परिणत करने के आदेश दिये। 1887 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना के उपरान्त कोई नवीन विश्वविद्यालय 1916 ई. तक स्थापित नहीं किया गया था, अब 1916-21 ई. के मध्य में सात विश्वविद्यालयों (मैसूर, पटना, बनारस, ढाका, लखनऊ, अलीगढ़ और उस्मानिया) की स्थापना हुई। 1919 ई. के भारत-सरकार कानून के अन्तर्गत शिक्षा को प्रान्तीय विषय बनाकर भारतीय मंत्रियों की देखरेख में दे दिया गया। परन्तु धन के अभाव में कोई महत्वपूर्ण सुधार सम्भव नहीं हुआ, केवल स्कूल और कॉलेजों की संख्या बढ़ती गयी जिसका श्रेय भी सार्वजनिक संस्थाओं एवं व्यक्तिगत प्रयत्नों को जाता है।

1921-37 ई. के मध्य पाँच अन्य विश्वविद्यालयों-दिल्ली, नागपुर, आन्ध्र, आगरा और चिदम्बरम (मद्रास) की स्थापना हुई। पुराने विश्वविद्यालयों के नियमों में कुछ सुधार किया गया जिससे वे उच्च शिक्षा और शोध कार्यों में प्रगति कर सकें। साथ ही कलकत्ता, पंजाब और इलाहाबाद के विश्वविद्यालयों में विस्तृत का अध्ययन का कार्य आरम्भ किया गया। 1925 ई. में जामिया-मिलिया विश्वविद्यालय को अलीगढ़ से दिल्ली स्थानान्तरित किया गया।

हारींग शिक्षा-समिति, 1929 ई०

1929 ई. में सर फिलिप हार्डोंग की अध्यक्षता में शिक्षा सम्बन्धी सुझाव देने के लिए एक समिति की स्थापना की गयी। इस समिति ने निम्नलिखित सुझाव दिये।

  1. प्राथमिक शिक्षा का विस्तार किया जाय परन्तु इसमें जल्दबाजी न की जाय। शिक्षा के स्तर का ध्यान रखा जाय।
  2. 8वीं कक्षा के पश्चात् विद्यार्थियों को उनकी रुचि और योग्यता के अनुकूल व्यावसायिक शिक्षा-संस्थाओं में भेजा जाय। हाईस्कूल तथा उसके आगे की शिक्षा केवल योग्य और चुने हुए विद्यार्थियों को ही दी जाय।
  3. विश्वविद्यालय की शिक्षा भी योग्य विद्यार्थियों तक सीमित की जाय।

सारजेंट शिक्षा-सुझाव, 1944 ई

1944 ई. में भारतीय शिक्षा विभाग के सेक्रेटरी सर जॉन सार्जेण्ट ने शिक्षा के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये स्कूल की दो श्रेणियाँ हों। 6 से 11 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए जूनियर स्कूल हों। इस आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य दी जाय। 11 से 17 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए सीनियर स्कूल हों। सीनियर स्कूल भी दो प्रकार के हों-साहित्यिक शिक्षा हेतु, व्यावसायिक शिक्षा हेतु।

राधाकृष्णन कमीशन, 1948-49 ई०

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने डॉ. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा सम्बन्धी सुझाव देने के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की। 1949 ई. में इस कमीशन ने अपने निम्नलिखित सुझाव दिये :

  1. माध्यमिक शिक्षा 12 वर्ष की हो।
  2. परीक्षा के दिनों को पृथक् करके विश्वविद्यालयों में कम से कम 180 दिन शिक्षा के लिए होने चाहिए। ये 180 दिन तीन सत्रों में विभक्त हों और प्रत्येक सत्र 11 सप्ताह का हो।
  3. उच्च शिक्षा की तीन श्रेणियाँ हों-सामान्य शिक्षा, उदार शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा। कृषि, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, कानून, कॉमर्स आदि की शिक्षा को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए।
  4. प्रशासकीय सेवाओं के लिए स्नातक डिग्री अनिवार्य न मानी जाय।
  5. स्नातक डिग्री की शिक्षा तीन वर्ष की हो। उसकी परीक्षा अन्तिम वर्ष में ही न हो बल्कि उसे प्रत्येक वर्ष की परीक्षा में विभाजित कर देना चाहिए।
  6. शिक्षा के स्तर में वृद्धि की जानी चाहिए और उसे समवर्ती सूची में सम्मिलित कर लेना चाहिए।
  7. शिक्षा-व्यवस्था की देखभाल के लिए एक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना की जानी चाहिए।

इस रिपोर्ट के आधार पर 1953 ई. में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना की गयी और 1953 ई. में पार्लियामेण्ट के एक कानून के द्वारा उसे एक स्वतंत्र संस्था का रूप प्रदान किया गया। विश्वविद्यालय शिक्षा अब इसी आयोग की देखरेख में है।

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