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ब्रिटिश शासन काल में औद्योगिक उद्योगों की स्थापना

ब्रिटिश काल में भारत के प्रमुख उद्योग

भारतीय सरकार द्वारा प्रत्येक प्रान्त में उद्योग-धन्धों के विकास हेतु एक औद्योगिक विभाग की स्थापना की गयी थी। 1921 ई. में एक आर्थिक आयोग का गठन किया गया। इसके दो वर्ष पश्चातू उद्योग-धन्धों को संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से टैरिफ बोर्ड भी स्थापित किया गया तथा सन् 1932 ई. में एक अधिनियम पारित किया गया जिसे ‘Indian Tarrif Amendment Act’ का नाम दिय गया। इस अवधि के मध्य भारत सरकार द्वारा अन्य अनेक देशों के साथ व्यापार तथा व्यवसाय सम्बन्धी समझौते किये गये तथा उन देशों में से प्रत्येक देश में एक ‘व्यापार कमिश्नर’ ने भी भारत में औद्योगिक उन्नति के प्रयास किये द्वितीय विश्व युद्ध के मध्य ही भारत सरकार द्वारा देश के प्रधान उद्योगों जैसे लोहा, फौलाद, जलपान तथा मशीनों के कल-पुर्जे बनाने आदि से सम्बन्धित उद्योगों को अपने नियंत्रण में ले लिया गया था। इसके पश्चात् सन् 1947 ई. में भारत को अंग्रेज सरकार द्वारा स्वतंत्रता प्रदान कर दी गई। स्वतंत्रता पाते ही भारत के नवयुवकों द्वारा औद्योगिक क्षेत्र में अपनी वृद्धि का प्रयोग किया गया जिसके कारण आज भारत की गणना विश्व के प्रथम श्रेणी औद्योगिक देशों में की जाती है।

भारत के प्रमुख उद्योग

उस समय कई प्रकार के उद्योग विकसित हुए, जिनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखिता हैं-

  1. सूती कपड़ा उद्योग

    भारत में 1854 ई. में सूती कपड़े की प्रथम आधुनिक मशीन स्थापित की गई थी। इस प्रकार बम्बई सूती कपड़ा उद्योग का प्रथम केन्द्र बना। इसमें निम्न कूट प्रमुख वाली का योगदान था जिन्होंने इसे सूती कपड़े उद्योग का प्रथम मुख्य केन्द्र बनाया। यहाँ मौसम में नमी थी, नगर में मशीनों के लिये पूँजी उपलब्ध थी। बम्बई का यह कपड़ा उद्योग अंग्रेजों की आँख में चुभने लगा, उन्होंने लंकाशयर के बने कपड़ों पर से आयात कर हटा दिया। इस प्रकार प्रतिस्पर्धा के कारण बम्बई देश का सर्वाधिक प्रसिद्ध सूती कपड़ा केन्द्र बन गया। यह भारत में सूती कपड़ा उद्योग का प्रथम पड़ाव था। धीरे-धीरे नागपुर, शोलापुर तथा अहमदाबाद में सूती कपड़ा उद्योग स्थापित हो गया। इन समस्त मिलों की प्रमुख विशेषता यह थी कि यह सभी मिलें उस स्थान पर स्थापित हुई जहाँ कच्चा माल आसानी से उपलब्ध हो जाता था तथा सस्ती मजदूरी पर ही लोग काम कर दिया करते थे। इन सभी जगहों पर आबादी के कारण भारी मात्रा में खपत भी होती थी।

प्रथम विश्व युद्ध के समय भारतीय सूती कपड़ा मिल अच्छी स्थिति में पहुंच चुकी थी, परन्तु युद्ध के पश्चात् उसके मुकाबले पर जापान आ गया। इसलिये 1927 ई. के बाद उद्योगों को संरक्षक प्रदान किया जाने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के समय उद्योगों ने देश की अंदरूनी मांग तथा युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु अपना विस्तार किया इससे आयात कम हुआ तथा निर्यात बढ़ने लगा। सन् 1924 ई. में जापान से भारत में कपड़ा आना बिल्कुल बन्द हो गया था। उधर इंग्लैण्ड की मिलें भी अपने भूतपूर्व बाजारों की माँग को पूरी नहीं कर पा रही थीं, इसलिये भारतीय कपड़ा बाजार में छाने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के समय भारत में कपड़े की जबरदस्त माँग बनी हुई थी लेकिन भारतीय उद्योगपतियों ने अधिक मुनाफे को ध्यान में रख भारत की अन्दरूनी माँग की परवाह न कर निर्यात को बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप माल की तंगी के कारण भाव ढह गये तथा भारत की गरीब जनता को बहुत कठिनाई हुई।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् कपड़ा मिलों की संख्या तीव्र गति से बढ़ी थी। भारत में सन् 1947 ई. में 423 मिलें थीं। विभाजन के बाद भारत में यह संख्या 408 रह गई, लेकिन 1954 तक यह संख्या 461 हो गई। उस समय विश्व में कपड़ा तैयार करने वाले देशों की कम संख्यां इस प्रकार थी प्रथम अमरीका, द्वितीय सोवियत संघ, तृतीय भारत।

  1. पटसन उद्योग

    बंगाल के रिशरा नामक स्थान पर सन् 1855 ई. में भारत की प्रथम आधुनिक पटसन मिल स्थापित की गई थी। लगभग एक दशक पश्चात् इससे लाभ की स्थिति उत्पन्न हुई। बंगाल के उद्योगपतियों ने इसके उत्साहवर्द्धक परिणाम देखते हुए नई पटसन मिलों को स्थापित करने में अपनी अभिरुचि दिखाई, लेकिन मिलों की संख्या बढ़ जाने से उत्पादन खपत से ज्यादा हो गया। परिणामतः अपेक्षित मुनाफा न हो सका, परन्तु इस उद्योग की विशिष्टता यह थी कि इस उद्योग में अधिकतर अंग्रेजों की पूँजी लगी हुई। उनके हाथों में ही संचालन था, परिणामस्वरूप खपत से अधिक उत्पादन होने के बावजूद इस उद्योग ने प्रगति की।

19वीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों में केवल बंगाल में ही 5,000 से अधिक बिजली के करघे लगे हुए थे। बीसवीं शताब्दी में सन् 1929 ई. में मन्दी के कारण इसमें परेशानी पेश आई थी, लेकिन कुछ समय बाद स्थिति में सुधार हुआ। सन् 1947 ई. में यहाँ 113 पटसन मिलें सफलतापूर्वक चल रही थीं।

उद्योग को सबसे बड़ा नुकसान विभाजन से हुआ था विभाजन से पटसन उत्पादन क्षेत्र पाकिस्तान के क्षेत्र में आ गये, पाकिस्तान पटसन उत्पादक देश बन गया जबकि भारत विश्व का सबसे बड़ा पटसन खपत वाला देश बन गया।

  1. लोहा तथा इस्पात उद्योग

    बिहार के झरिया कोयला क्षेत्र में सन् 1873 ई. में बनाया। यहाँ मौसम में नमी थी, नगर में मशीनों के लिये पूँजी उपलब्ध थी। बम्बई का यह कपड़ा उद्योग अंग्रेजों की आँख में चुभने लगा, उन्होंने लंकाशयर के बने कपड़ों पर से आयात कर हटा दिया। इस प्रकार प्रतिस्पर्धा के कारण बम्बई देश का सर्वाधिक प्रसिद्ध सूती कपड़ा केन्द्र बन गया। यह भारत में सूती कपड़ा उद्योग का प्रथम पड़ाव था। धीरे-धीरे नागपुर, शोलापुर तथा अहमदाबाद में सूती कपड़ा उद्योग स्थापित हो गया। इन समस्त मिलों की प्रमुख विशेषता यह थी कि यह सभी मिलें उस स्थान पर स्थापित हुई जहाँ कच्चा माल आसानी से उपलब्ध हो जाता था तथा सस्ती मजदूरी पर ही लोग काम कर दिया करते थे। इन सभी जगहों पर आबादी के कारण भारी मात्रा में खपत भी होती थी।

प्रथम विश्व युद्ध के समय भारतीय सूती कपड़ा मिल अच्छी स्थिति में पहुंच चुकी थी, परन्तु युद्ध के पश्चात् उसके मुकाबले पर जापान आ गया। इसलिये 1927 ई. के बाद उद्योगों को संरक्षक प्रदान किया जाने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के समय उद्योगों ने देश की अंदरूनी मांग तथा युद्ध की आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु अपना विस्तार किया इससे आयात कम हुआ तथा निर्यात बढ़ने लगा। सन् 1924 ई. में जापान से भारत में कपड़ा आना बिल्कुल बन्द हो गया था। उधर इंग्लैण्ड की मिलें भी अपने भूतपूर्व बाजारों की माँग को पूरी नहीं कर पा रही थीं, इसलिये भारतीय कपड़ा बाजार में छाने लगा। द्वितीय विश्व युद्ध के समय भारत में कपड़े की जबरदस्त माँग बनी हुई थी लेकिन भारतीय उद्योगपतियों ने अधिक मुनाफे को ध्यान में रख भारत की अन्दरूनी माँग की परवाह न कर निर्यात को बढ़ावा दिया। परिणामस्वरूप माल की तंगी के कारण भाव ढह गये तथा भारत की गरीब जनता को बहुत कठिनाई हुई।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् कपड़ा मिलों की संख्या तीव्र गति से बढ़ी थी। भारत में सन् 1947 ई. में 423 मिलें थीं। विभाजन के बाद भारत में यह संख्या 408 रह गई, लेकिन 1954 तक यह संख्या 461 हो गई। उस समय विश्व में कपड़ा तैयार करने वाले देशों की कम संख्यां इस प्रकार थी प्रथम अमरीका, द्वितीय सोवियत संघ, तृतीय भारत।

  1. पटसन उद्योग

    बंगाल के रिशरा नामक स्थान पर सन् 1855 ई. में भारत की प्रथम आधुनिक पटसन मिल स्थापित की गई थी। लगभग एक दशक पश्चात् इससे लाभ की स्थिति उत्पन्न हुई। बंगाल के उद्योगपतियों ने इसके उत्साहवर्द्धक परिणाम देखते हुए नई पटसन मिलों को स्थापित करने में अपनी अभिरुचि दिखाई, लेकिन मिलों की संख्या बढ़ जाने से उत्पादन खपत से ज्यादा हो गया। परिणामतः अपेक्षित मुनाफा न हो सका, परन्तु इस उद्योग की विशिष्टता यह थी कि इस उद्योग में अधिकतर अंग्रेजों की पूँजी लगी हुई। उनके हाथों में ही संचालन था, परिणामस्वरूप खपत से अधिक उत्पादन होने के बावजूद इस उद्योग ने प्रगति की।

19वीं शताब्दी के अन्तिम 25 वर्षों में केवल बंगाल में ही 5,000 से अधिक बिजली के करघे लगे हुए थे। बीसवीं शताब्दी में सन् 1929 ई. में मन्दी के कारण इसमें परेशानी पेश आई थी, लेकिन कुछ समय बाद स्थिति में सुधार हुआ। सन् 1947 ई. में यहाँ 113 पटसन मिलें सफलतापूर्वक चल रही थीं।

उद्योग को सबसे बड़ा नुकसान विभाजन से हुआ था विभाजन से पटसन उत्पादन क्षेत्र पाकिस्तान के क्षेत्र में आ गये, पाकिस्तान पटसन उत्पादक देश बन गया जबकि भारत विश्व का सबसे बड़ा पटसन खपत वाला देश बन गया।

  1. लोहा तथा इस्पात उद्योग

    बिहार के झरिया कोयला क्षेत्र में सन् 1873 ई. में उस समय भारत में चीनी की खपत लगभग 10 लाख टन प्रति वर्ष थी।

  2. कागज उद्योग

    भारत में 19वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में अनेक स्थानों पर कागज तैयार करने के उद्योग लगाये गये। सन् 1870 ई. में हुगली पर ‘वाली मिल्ज’ की स्थापना हुई। 1897 ई. में लखनऊ में एक स्थान पर पेपर मिल स्थापित हुई। 1885 ई. में पूना में डेकन पेपर मिल कम्पनी तथा 1889 ई. में रानीगंज में बंगाल पेपर मिल की स्थापना की गई।

29वी शताब्दी में भी कई पेपर मिल स्थापित हुई, जिनमें प्रमुख 1939 ई. में की भद्रावती की मैसूर पेपर मिल तथा सन् 1942 ई. में भूतपूर्व हैदराबाद रियासत द्वारा स्थापित सीरपुर पेपर मिल थी। इन मिलों में सुधार हुए तरीकों से पेपर तैयार किया जाता था। भारत में स्वाधीनता के पश्चात् कागज की माँग बढ़ गयी थी।

  1. कोयला खान उद्योग

    भारत को औद्योगीकरण पर अग्रसर करने हेतु कोयलो का उत्पादन बढ़ाना आवश्यक था। उस समय औद्योगिक बिजली का प्रमुख साधन कोयला ही था। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में भारत की अधिकांश कोयला खाने अंग्रेजों के हाथ में थी। भारत पूँजीपति निचले स्तर की खानों के मालिक थे। कोयला उद्योग भारत में मुख्यतः बिहार, बंगाल का उड़ीसा आदि के कोयला क्षेत्र में स्थापित था। भारत में 1937 ई. में कोयले का वार्षिक उत्पादन 2,50,00,000 टन पहुँच चुका था। युद्ध के समय कोयला उत्पादन बढ़ा था, परन्तु अधिकांश कोयला सरकार युद्ध कार्यों में लेती थी, भारत की आम जनता तक वह पहुँच पाता कोयलो के दाम बढ़ गये। यह उद्योग निजी उद्योगपतियों के हाथ में था, वह केवल अपने लाभ के विषय में सोचते थे। भारत सरकार ने उनका व्यवहार सुधारने के हेतु 1944 ई. में कोलियरी कन्ट्रोल आर्डर (कोयला खान नियंत्रण आदेश) पारित कर दिया है। यह आदेश भी मजदूर वर्ग की समस्याओं को न सुधार सका। खान मालिक, मजदूर वर्ग की दुर्दशा के प्रति उदासीन थे। स्वाधीनता प्राप्ति के पहले इस उद्योग के राष्ट्रीयकरण की मांग उठाई गयी, जो कि 1973 तक पूरी न हो सकी।

  2. एल्यूमीनियम उद्योग

    द्वितीय महायुद्ध के कुछ समय पहले भारत में एक और उद्योग की स्थापना हुई, जिसका नाम था “एल्यूमीनियम उद्योग’। एल्यूमीनियम कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड तथा एल्यूमीनियम प्रोडक्शन कम्पनी ऑफ इंडिया लिमिटेड ने 1937 ई. में कलकत्ता के पा रोलिंग मिलों की स्थापना की। 1943 ई. में एलवाथ में एक और एल्यूमीनियम उद्योग की स्थापना की गई। भारत में एल्यूमीनियम की चादरे, छड़ें तथा अन्य वस्तुओं की माँग तेजी से बढ़ गई तथा यह उद्योग तेजी से ही स्थापित हो गया।

  3. सीमेंट उद्योग

    भारत में सन् 1904 ई. में मद्रास में पहले एक छोटा सीमेंट कारखाना लगाया गया, जो बाद में बड़े स्तर पर भी उत्पादन करने लगा। अगले दशक में ही इंडियन सीमेंट कम्पनी, कटनी, सीमेंट एण्ड इन्डस्ट्रियल कम्पनी तथा वृंदी पोर्टलैण्ड सीमेंट कम्पनी आदि कई कम्पनी खुल गई। 1914 ई. में सीमेंट फैक्टरियाँ ने एक हजार टन से कम उत्पादन किया, लेकिन आगामी दशक में यह 2,50,000 टन हो गया। इसकी माँग निरन्तर बढ़ती जा रही थी। युद्ध के समय इसकी माँग और अधिक बढ़ गयी। सन् 1936 ई. में 10 कम्पनियों ने मिलर एसोसियेटिड कम्पनी लिमिटेड (ए.सी.सी) के नाम से काम प्रारम्भ कर दिया। इसके अलावा डालमिया समूह ने भी बड़े पैमाने पर उत्पादन प्रारम्भ किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् यह माँग बढ़ गयी। सरकार ने भी इस ओर ध्यान देना प्रारम्भ कर दिया था।

  4. चमड़ा उद्योग

    भारत में 19वीं शताब्दी में जानवरों की खाल तथा चमड़ा था। अनेक स्थानों पर चमड़े का सामान बनाया जाता था। 19वीं शताब्दी के मध्य इसे एक उद्योग के रूप में अपना लिया गया। इससे आधुनिक फैक्टरी स्थापित की गई तभी से कानपुर में चमड़ा उद्योग मुख्य उद्योग बन गया, इसके अलावा बम्बई तथा मद्रास में भी चमड़ा उद्योग प्रारम्भ किया गया। चमड़ा उत्पादन में भारत आत्मनिर्भर था। अनेक देशों को भारत से निर्यात किया जाता था। चमड़ा उद्योग के भावी विकास का अध्ययन करने हेतु 1930 ई. में “हाईड्स सेंस ईक्वायरी कमेटी’ की स्थापना हुई। इस कमेटी ने चमड़ा उद्योग में नई सम्भावनाओं का पता लगाया।

  5. तेल उद्योग

    भारत में तेल निकालने का आधुनिक उद्योग काफी समय बाद शुरू हुआ विश्व युद्ध के पश्चात् ही बड़ी मात्रा में तेल पेरने की ओर गम्भीरतापूर्वक सोचा गया। इस उद्योग ने बड़ी धीमी गति से प्रगति की।

  6. अन्य उद्योग

    भारत में कुछ अन्य उद्योग भी विकसित हुए जिनमें 1941 में विशाखापट्टनम में आधुनिक ढंग की जहाज निर्माण गोदी का स्थापित होना प्रमुख था। अन्य उद्योगों में सल्फाइड, शोरे, फिटकरी, गंधक, चूने, कास्टिक सोडा, सोडियम कारबोनट तथा नाइट्रिक एसिड जैसे रसायन तैयार करना आदि था। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् यहाँ मशीनी औजार बनाने के उद्योग स्थापित हुये, जिसने भारत का सही मायनों में औद्योगीकरण कर दिया था।

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