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भारतीय पुर्नजागरण के कारण एवं परिणाम

भारतीय सांस्कृतिक पुर्नजागरण 

मध्यकाल के मुगल सम्राटों व सुल्तानों के अत्याचारों व हिन्दू समाज के उत्कृष्ट विद्वान अपना सन्तुलन खोकर अपनी सांस्कृतिक चेतना को भुला बैठे। अंग्रेजों द्वारा भारत पर शासन स्थापित कर लिए जाने पर शान्ति तथा व्यवस्था बन गयी व जाति के नाम पर होने वाले अत्याचार भी अब कम हो गये थे। हिन्दू विद्वान अब अपने कष्टों तथा पीड़ाओं को भुलाकर पुनः अपने देश की सभ्यता तथा संस्कृति से सम्बन्धित अच्छी-अच्छी बातों को स्मरण करने लगे तथा हिन्दू समाज चेतन, अनुप्राणित तथा उत्साहित करने में लग गये। हिन्दू विद्वानों के कृत्य सांस्कृतिक पुनर्जागरण के नाम से विख्यात हुए। भारतीय विद्वानों द्वारा सांस्कृतिक पुनर्जागरण प्रारम्भ करने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण के कारण

विद्वानों द्वारा भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण निम्न कारणों से किया गया-

  1. भारत में शान्ति व्यवस्था की स्थापना

    अंग्रेजों द्वारा भारत में शासन की स्थापना के साथ ही भारतीय परिस्थितियाँ बदलनी प्रारम्भ हो गई व अस्थिरता की समाप्ति हुई। भारतीय विद्वानों का ध्यान अब अपनी संस्कृति की ओर गया तथा वे उसकी पुनर्स्थापना के प्रयास करने लगे। इस प्रकार अंग्रेजों की शासन-स्थापना भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण में सहायक सिद्ध हुई।

  2. पश्चिमी संस्कृति का भारतीयों में प्रसार

    अंग्रेजों के भारत आने के साथ-साथ पश्चिमी सभ्यता भी भारत में घुस आयी तथा घर बनाने लगी। भारतीयों में तेजी से पश्चिमी सभ्यता का प्रसार हुआ। कुछ अंग्रेज विद्वानों, जिनमें डेविड हेअर, कैरी, मैकाले आदि प्रमुख हैं, के विचारों ने हमारे राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक विचारों पर महत्वपूर्ण ढंग से प्रभाव डाला, जिससे हमारे भीतर एक प्रकार की चेतना का प्रसार हुआ। यद्यपि अंग्रेजी भारतीयों पर जबरदस्ती थोपी गयी तथापि इसने हमें बहुत सहायता प्रदान की कि हम अन्य विकसित यूरोपीय देशों के सम्बन्ध में जान सके। अंग्रेजी की सहायता से ही भारतीय पाश्चात्य जगत के विज्ञान, दर्शन, नवीन प्रगतिशील सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों, कानून आदि का परिचय प्राप्त कर सके थे। परिणामस्वरूप भारतीयों के विचार अन्ध विश्वासों से हटकर तर्क पर आ गये तथा हमारे विचारों में आलोचनात्मक प्रवृत्ति का उदय हुआ तथा हम पुनर्जागरण का अनुभव करने लगे।

  3. साहित्यिक ज्ञान की उपलब्धि

    भारतीय विद्वान अब भारतीय साहित्य तथा इतिहास की खोज करके उसे लिखकर प्रकाशित करवाते। इस कार्य में यूरोपीय शिक्षाशास्त्रियों ने भी भारतीय विद्वानों का साथ निभाया। इन्होंने भारतीय प्राचीन संस्कृति का मुक्त कंठ से प्रशंसा की। यूरोपीय शिक्षा-शास्त्रियों ने पत्र-पत्रिकाओं को सम्पादित तथा प्रकाशित किया तथा अन्ध-विश्वास में डूबे भारतीयों को प्रकाश लाने का प्रयास किया। इस प्रकार साहित्य ने भारतीय पुनर्जागरण को विकसित करने में अपना अपूर्व योगदान दिया। यूरोपीय शिक्षाशास्त्रियों के प्रयासों ने पुनर्जागरण को भारती गति प्रदान की।

  4. धार्मिक भावों में क्रान्ति

    19वीं शताब्दी के आरम्भ में ही अनेक मिशनरियाँ यूरोप, बनानाएं अमरीका, फ्रांस आदि देशों से भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए आई। इस कार्य को सम्पन्न करने तथा भारतीयों में अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से भारत के अनेक भागों में अनाथालय, औषधालय तथा विद्यालय आदि का निर्माण कराया। अंग्रेजों ने अपनी धार्मिक पुस्तक बाइबिल को भी भारतीय भाषाओं में अनुवाद करके प्रकाशित कराया। अंग्रेजों ने अपनी सभ्यता व संस्कृति का अत्यधिक तेजी तथा प्रभावी रूप से प्रसार कराया इससे प्रभावित होकर कुछ व्यक्तियों ने ईसाई धर्म स्वीकार कराया, इससे प्रभावित होकर कुछ व्यक्तियों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। भारत के कट्टर हिन्दुओं के लिए यह एक करारा तमाचा था। उन्होंने अब हिन्दू धर्म की अच्छी-अच्छी बातें खोज कर प्रकाशित करवायीं। इस प्रकार धर्म के नाम पर पुनर्जागरण हो गया।

भारतीय पुर्नजागरण के परिणाम

भारतीय पुनर्जागरण के अनेक परिणाम सामने आये जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-

  1. प्राचीन भारतीय संस्कृति की महानता

    स्वामी रामकृष्ण परमहंस द्वारा हिन्दू धर्म का सांस्कृतिक पुनरूत्थान प्रत्येक क्षेत्र में किया गया। सन् 1886 ई० में स्वामी रामकृष्ण परमहंस का स्वर्गवास हो गया। स्वामी जी के शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने भी भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता की समस्त संसार में धूम मचा दी। परिणामस्वरूप 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हिन्दू धर्म को अन्धविश्वासों की बेड़ियों से मुक्त करके उसे धार्मिक जगत का अगुवा बनाया। हिन्दू धर्म का अगुवा बनना इस बात पर निर्भर था कि इसके द्वारा विश्व के समस्त धर्मों का आदर किया गया तथा हिन्दुओं को ज्ञात कराया गया कि उन्हें अपनी प्राचीन संस्कृति से लज्जित न होते हुए उत्साहपूर्वक उसे उत्थान-पथ पर अग्रसर करना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा विश्वविद्यालयों के विद्वान प्राध्यापकों और यूरोप व अमरीका के उच्चकोटि के विद्वानों के समक्ष उसी प्रकार हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता प्रमाणित की गयी।

  2. साहित्यिक प्रगति

    साहित्य के क्षेत्र में भी पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप अद्वितीय उन्नति हुई। श्री वीन्द्रनाथ टैगोर ने साहित्य की अभिवृद्धि की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य किया। तब केवल बंगाली भाषा का पुनर्निर्माण हुआ बल्कि अन्य देशी भाषाओं की भी भाषी श्रीवृद्धि हुई र्थ मुंशी प्रेमचन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद,सुमित्रानन्दन पंत महादेवी वर्मा, रामनरेश त्रिपाठी, निराला, सुभद्राकुमारी चौहान आदि साहित्यकारों ने हिन्दी को समृद्ध बनाने में उल्लेखनीय कार्य किया। इन साहित्कारों ने अपनी रचनाओं-लेखों, कथा-कहानियों, कविताओं आदि से हिन्दी साहित्य को नवीन मोड़ दिया। इसकी प्रतिक्रिया उर्दू साहित्य में भी उत्पन्न हुई। मुंशी प्रेमचन्द्र, सर मोहम्मद इकवाल, जिगर, हाली, जोश मलीहावादी, ख्वाजा अहमद अव्वास, साहिर लुधियानवी, अल-अहमद-सरूर, मजाज, लखनवी, कैफी आजमी, फैज-अहमद-फैज, मखदूम, सज्जाद, फिराक गोरखपुरी, जहीर, इब्राहीन जलीस आदि ने उर्दू साहित्य में नज्म तथा नस्र में एक नया जोश उत्पन्न किया।

  3. वैज्ञानिक अन्वेषण

    20वीं शताब्दी के आरम्भ में विभिन्न भारतीय विश्वविद्यालयों में पुनर्जागरण के परिणामस्वरूप विज्ञान की खोज आरम्भ की गयी। जगदीश चन्द्र वसु मेघनाथ शाह, श्री सी० वी० रमन आदि द्वारा विज्ञान के क्षेत्र में इतना अधिक उच्च कोटि का कार्य किया गया कि पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा उनके कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी। श्री वी०एन० सील की पुस्तक “Positive Science of the Ancient Hindus” तथा श्री पी०सी० रे की पुस्तक, “हिन्दू रसायन शास्त्र को इतिहास’ व उसी भाँति की अन्य पुस्तकों ने विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किये गये महत्वपूर्ण कार्यों की पुष्टि की।

  4. ऐतिहासिक खोज

    भारतीय इतिहास के विद्वानों ने भारत के प्राचीन तथा मध्यकालीन पुस्तकों तथा तथ्यों की खोज आरम्भ कर दी। विद्वानों ने प्राचीन पुस्तकों को खोजा तथा उनकी त्रुटियों को सुधारा। स्वामी विवेकानन्द जी ने ऐतिहासक तथ्यों को सुधारने तथा शुद्ध करने के लिए भारतीय इतिहासविदों का एक संघ बनाकर उसे इस संशोधन कार्य के लिए उत्तरदायी बनाया।

  5. शिक्षा पर प्रभाव

    20वीं शताब्दी के आरम्भ में हिन्दू पुनर्जागरण आन्दोलन के प्रभाव से सुदृढ़ राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक सुधार के लिए भारतीयों में उत्कृष्ट उत्साह उत्पन्न हुआ रामकृष्ण मिशन ने समाज की सेवा करने के साथ-साथ पीड़ितों, दुखियों तथा सताये गये वेसहारा व्यक्तियों की सहायता करने तथा छात्रों हेतु आरम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा की प्राप्ति तक के हेतु शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। वैदिक शिक्षा प्रदान करने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा विभिन्न स्थानों पर आर्यसमाज की देखरेख में अनेक विद्यालय तथा गुरूकुल का आरम्भ किया गया इसके पश्चात् श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा शान्तिनिकेतन की वोलपुर में तथा श्री मदन मोहन मालवीय द्वारा भी अनेक स्थानों पर गाँधी आश्रम की स्थापना की गयी तथा राष्ट्रीय चेतना का विकास किया गया।

  6. कला का उत्थान

    20वीं शताब्दी में हिन्दू समाज के पुनर्जागरण के फलस्वरूप प्राचीन कला के विद्यालय की स्थापना भी हुई। इस विद्यालय में रवीन्द्रनाथ टैगोर, हैवेल तथा सिस्टर निवेदिता ने प्राचीन काल के पुनरूत्थान में महान् योगदान दिया। भारतीयों की प्राचीन चित्रकला की विशेषताओं को मिश्रित करके इस कला को और अधिक आकर्षक बनाया गया था।

  7. थियोसोफिकल सोसाइटी का उदययोगदान-

    सन् 1882 ई० में मद्रास में मैडम ब्लावत्सकी नामक रूसी महिला ने थियोसोफिकल सोसाइटी की स्थापना की थी। ब्लावत्सकी तथा उसके मित्र कर्नल अल्काट को गुप्त शक्तियों पर अधिकार था, जिनकी प्राप्ति हेतु उनके कथनानुसार उन्हें तिब्बत के निवासी गुरूओं से प्राप्त हुई थी। मैडम का यह दावा था कि आध्यात्मिक शक्तियों के माध्यम से गुप्त संचार द्वारा उसे तिब्वती गुरूओं के आदेश प्राप्त होते रहते हैं। मैडम ब्लावत्सकी ने अपनी कुछ आध्यात्मिक शक्तियों का प्रयोग करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि इस हृदय से जगत से बाहर भी कुछ है। श्रीमती एनीबेसेन्ट, जो एक सुप्रसिद्ध आयरिश महिला थी, मैडम ब्लावत्सकी की शिष्या बन गयीं। उस समय मैडम ब्लावत्सकी इंगलैण्ड में रह रही थीं। कुछ समय पश्चात् वे वापस भारत आई थी तथा अपनी मृत्यु के पहले तक वे सोसाइटी की संचालिका बन ब्रह्मविद्या का प्रचार करती रहीं। मैडम ब्लावत्सकी एक उत्कृष्ट वक्ता थी, उनके संवादों तथा लेखों से प्रभावित होकर अनेक हिन्दुओं ने इस सोसाइटी की सदस्यता ग्रहण कर ली थी। श्रीमती एनीबेसेन्ट ने एक बार घोषणा की थी कि, “इस संसार के समस्त महान् धर्मों में किसी भी अन्य धर्म को इतना वैज्ञानिक, इतना दार्शनिक तथा इतना आध्यात्मिक नहीं पाती हूँ जितना कि हिन्दू धर्म की।”

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