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अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन का ऐतिहासिक एवं संस्थावादी दृष्टिकोण

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का ऐतिहासिक एवं संस्थावादी दृष्टिकोण

ऐतिहासिक तथा संस्थावादी दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन के सबसे पहले दृष्टिकोण हैं। ये दोनों दृष्टिकोण, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विकास के पहले दो चरणों में बहुत लोकप्रिय हुए।

कूटनीतिक इतिहास दृष्टिकोण

(Diplomatic History Approach)

अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन में इतिहास दृष्टिकोण सबसे पुराना दृष्टिकोण है। राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों का अध्ययन, राष्ट्रों के मध्य कूटनीतिक सम्बन्धों के इतिहास के अध्ययन के रूप में शुरू हुआ। इस दृष्टिकोण के पीछे केन्द्रीय विचार यह था कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के स्वरूप को समझने के लिए इतिहास का अध्ययन बड़ा आवश्यक है। इतिहास एक पुस्तकालय है जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सच्चे स्वरूप को समझने में हमारी सहायता कर सकता है। किसी समय विशेष में राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों का संचालन करने वाले तत्वों तथा समस्याओं की जड़ें भूतकाल में होती हैं। वर्तमान भूतकाल से जन्मता है तथा भूतकाल पर निर्भर करता है। इसलिए इनका विश्लेषण करने के लिए इतिहास हमें बड़ा प्रभावशाली तथा सहायक ज्ञान दे सकता है। इस दृष्टिकोण के बहुत-से समर्थकों के लिए “इतिहास अपने आपको दोहराता है’ एक स्वीकृत प्रमुख सिद्धान्त रहा है। राजनीतिज्ञों की पहली नीतियों में क्या गुण तथा कमियाँ थीं इसके बारे में पूरा विवरण हमें इतिहास से मिल सकता है तथा यह विवरण नीति-निर्माण में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक तथ्यों का ज्ञान वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं को समझने तथा सुलझाने में न केवल सहायक सिद्ध होता है बल्कि उनका आधार भी बन सकता है।

ऐतिहासिक दृष्टिकोण का मूल्यांकन

(Evaluation of the Historical Approach)

एक दृष्टिकोण के नाते, ऐतिहासिक दृष्टिकोण में भूतकाल के अध्ययन को वर्तमान को समझने के लिए महत्वपूर्ण बनाने का विशेष गुण विद्यमान है। आज की समस्याओं तथा विषयों के भूतकाल से सम्बन्ध को कोई नकार नहीं सकता, फिर भी यह कहना कि जो कुछ भी आज हो रहा है उसे समझने के लिए केवल भूतकाल का निरीक्षण करना होगा, बड़ा अपर्याप्त तथा छिछोरा लगता है। उदाहरण के लिए, हमारे समय में अनेक नई शक्तियाँ तथा तत्व पूरी तरह क्रियाशील हो गये हैं तो हमें अपने समय के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को समझने के लिए न केवल ऐतिहासिक तत्वों का भी विश्लेषम करना पड़ेगा बल्कि हम राष्ट्रों के मध्य वास्तविक अन्तर्लियाओं जैसे नीति-निर्माण, निर्णय-निर्माण, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सौदेबाजी एवं संचार व्यवस्था आदि को आंखों से ओझल नहीं कर सकते। वर्तमान समय के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की नई जटिलताओं का केवल अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के इतिहास के आधार पर पूर्णतया एवं पर्याप्त रूप से वर्णन नहीं किया जा सकता। फिर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के सन्दर्भ में, इतिहास केवल यूरोपीय राष्ट्रों का इतिहास रहा है न कि वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का इतिहास।

इस तरह ऐतिहासिक दृष्टिकोण, अपूर्ण तथा अपर्याप्त है। इतिहास हमारी सहायता तो कर सकता है लेकिन कुछ सीमा तक। ‘इतिहास अपने को दोहराता है’, यह धारणा केवल ऊपरी स्तरों तक ही सच्ची है। भूतकाल तथा वर्तमान में सीमित एवं ऊपरी समानताएं हो सकती हैं परन्तु इनको इतिहास का दोहराना नहीं कहा जा सकता। निस्संदेह हम इतिहास के महत्व को एक साधन के रप में नकार नहीं सकते और न ही इसकी उपेक्षा कर सकते हैं परन्तु आज जो कुछ भी हो रहा है उसे समझने के लिए हम उसे हर ताला खोलने वाली चाबी भी नहीं मान सकते। पैडलफोर्ड एवं लिंकन (Pedelford and Lincoln) ने ठीक ही कहा है, “राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी के लिए अतीत के इतिहास से प्राप्त जानकारी की अपेक्षा वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ में नीति-निर्धारण प्रक्रिया तथा राजनीतिक सौदेबाजी की कला का ज्ञान कहीं अधिक आवश्यक है।” हम ऐतिहासिक दृष्टिकोण को केवल सीमित रूप से ही प्रयोग कर सकते हैं।

संस्थावादी दृष्टिकोण

(Institutional Approach)

संस्थावादी दृष्टिकोण अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक परम्परावादी दृष्टिकोण है। युद्ध के दौरान राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों के अध्ययन के समय में यह दृष्टिकोण बड़ा लोकप्रिय बन गया था। यह दृष्टिकोण राजनीतिक आदर्शवाद से यन्त प्रभावित था। राजनीतिक आदर्शवाद ने अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को सुधारने पर बल दिया ताकि अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में शांति, समृद्धि तथा विकास सम्भव हो। इस उद्देश्य के लिए इसने एक त्रिकोणीय कार्यक्रम का समर्थन किया।

  1. अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं का निर्माण किया जाए ताकि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में मेल-मिलाप तथा तालमेल लाया जाए और इनका निर्देशन किया जाए।
  2. युद्ध को समाप्त करने तथा युद्ध की विनाश क्षमता को कम करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कानून का विकास किया जाए।
  3. निशस्त्रीकरण तथा शस्त्र-नियंत्रण द्वारा शस्त्रों को समाप्त तथा कम करके अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को दृढ़ किया जाए।

अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के रूप में राष्ट्र-संघ की 1919 में स्थापना के बाद, शान्ति स्थापना के उत्तरदायित्व के साथ राजनीतिविदों तथा राजनीतिज्ञों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की दिशा को सुधारने के काम, आम बात हो गई। यह विश्वास किया गया कि अन्तर्राष्ट्रीय कानून एवं संगठनों का विकास करने तथा उन्हें सुधारने से राष्ट्रों के मध्य फैली हुई अराजकता की स्थिति को समाप्त किया जाना सम्भव हो सकेगा। वे इतने आशावादी थे और यह आशा करते थे कि अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं, जैसे राष्ट्र संघ, के विकास द्वारा युद्ध को समाप्त किया जा सकता है तथा अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय झगड़ों को शान्तिपूर्वक एवं बुद्धिमत्ता से सुलझाया जा सकता है। परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के कानूनी ढांचे, शक्तियों तथा कार्यों के अध्ययन को महत्व दिया था। यह सब इसलिए किया गया ताकि उनकी कार्यप्रणाली को काफी सुधारा जा सके तथा उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की दिशा को मार्ग देने तथा उन्हें संचालित करने वाली लाभदायक तथा प्रभावशाली संस्थाएँ बनाया जा सके।

संस्थावादी दृष्टिकोण का मूल्यांकन

(Evaluation of Institutional Approach)

ऐतिहासिक दृष्टिकोण की तरह ही संस्थावादी दृष्टिकोण भी सीमित एवं अपर्याप्त है। निस्सन्देह 1945 के बाद अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं तथा उपसंस्थाओं का तीव्र विकास इस बात का द्योतक है कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के संस्थानीकरण की ओर झुकाव अधिक है। लेकिन फिर भी यह विकास राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों के जाल का आईना नहीं माना जा सकता। अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के बाहर अन्तर्राज्यीय अन्तःक्रियाएं (Inter-State Interactions) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का एक बड़ा हिस्सा है। इस तरह यह दृष्टिकोण तो बड़े सीमित रूप से हमारी सहायता कर सकता है। यथार्थ राजनीति, वास्तविक शक्ति-संघर्ष तथा प्रभुत्व, जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की दिशा का निश्चित करता है तथा उसे आकार देता है, सब अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से बाहर घटित होते हैं तथा इनके स्वतंत्र अध्ययन की आवश्यकता होती है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर काम करने वाली कानूनी संस्थाओं के अध्ययन पर ही सारा ध्यान केन्द्रित करके हम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के केवल एक ही पहलू के अध्ययन के दोषी बन जाएंगे। संस्थाओं का अध्ययन अर्थात् उनके संगठनों, ढांचों, शक्तियों तथा कार्यों का अध्ययन अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के अध्ययन को बड़ा औपचारिक तथा सैद्धान्तिक अध्ययन बना देगा तथा अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के सम्बन्ध में सिद्धान्त-निर्माण कार्य को कठिन और सीमित बना देगा।

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