पारस्परिक सहमति द्वारा संविदा की समाप्ति पर अधिनियम के प्रावधान

संविदा की समाप्ति पर अधिनियम के प्रावधान

संविदा की समाप्ति पर अधिनियम के प्रावधान

धारा 62 के अनुसार यदि संविदा के पक्षकार उसके बदले एक नई संविदा प्रतिस्थापित करने या उस संविदा को विखण्डित करने या परिवर्तित करने का करार करते हैं तो मूल संविदा का पालन करना आवश्यक नहीं होता है। इस प्रकार नवीकरण, विखंडन और परिवर्तन मूल संविदा को उन्मुक्त कर देते हैं और उसके पालन की आवश्यकता नहीं होती है, धारा 62 के उपबन्धों की व्याख्या निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत की जा सकती है-

नवीकरण

धारा 62 के अन्तर्गत नवीकरण से तात्पर्य किसी संविदा के स्थान पर या तो उन्हीं पक्षकारों के मध्य या विभिन्न पक्षकारों के मध्य उस संविदा के उन्मोचन के प्रतिफलार्थ नई संविदा प्रतिस्थापित करने से है। जब पुरानी संविदा के स्थान पर नई संविदा प्रतिस्थापित की जाती है तो इसे नवीकरण कहते हैं। नवीकरण सभी पक्षकारों के सहमति से ही हो सकता है। नवीकरण में नई संविदा प्रभावी होती और पुरानी संविदा समाप्त हो जाती है। कार्क बनाम जारडिन के वाद में नवीकरण का अर्थ अच्छी तरह समझाया गया है। जब विद्यमान संविदा की नयी संविदा द्वारा चाहे वह उन्हीं पक्षकारों के मध्य हो या विभिन्न पक्षकारों के मध्य हो, इस प्रतिफल के बदले में प्रतिस्थापित किया जाता है कि मूल संविदा समाप्त हो जाय तो इसे नवीकरण करता है। नवीकरण निम्न प्रकार से किया जा सकता है-

  1. पक्षकारों के परिवर्तन द्वारा-

    जब संविदा का आभार तो कायम रहता है परन्तु उसके पक्षकारों में समस्त पक्षकारों की सहमति से परिवर्तन कर दिया जाता है तो संविदा के मूल पक्षकार संविदा-पालन के दायित्व से उन्मुक्त हो जाते हैं और नये पक्षकार दायित्वाधीन हो जाते हैं। पक्षकारों में परिवर्तन द्वारा नवीकरण के लिए सभी पक्षकारों की सहमति आवश्यक है।

नवीकरण के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है कि नवीन ऋणी मूल ऋणी का दायित्व स्वीकार कर ले। यह भी आवश्यक है कि लेनदार या ऋणदाता मूल ऋणी के स्थान पर नवीन ऋणी के दायित्व को स्वीकार करें। इस निमित्त मूल ऋणी नवीन ऋणी और लेनदार तीनों की ही सम्मति आवश्यक है।

  1. पुरानी संविदा के स्थान पर नवीन संविदा के प्रतिस्थापन द्वारा-

    यदि पक्षकार पुरानी संविदा के स्थान पर नई संविदा का निर्माण कर लेते हैं तो उन्हें पुरानी संविदा के पालन से मुक्ति मिल जाती है। पुरानी संविदा के स्थान पर नई संविदा की प्रतिस्थापना के लिए सभी पक्षकारों की सहमति आवश्यक है। यह नियम तभी लागू होता है जबकि पुरानी संविदा विधि मान्य और विद्यमान हो। इस बिन्दु पर विवाद है कि नवीकरण के लिए नई संविदा पुरानी संविदा के भंग किये जाने के पूर्व की जानी आवश्यक है अथवा नहीं। मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार यदि पुरानी संविदा को भंग किया गया है और तत्पश्चात् नई संविदा की गयी है तो भी नई संविदा न्यायालय द्वारा प्रवर्तित करायी जा सकती हैं क्योंकि धारा 62 में उल्लिखित नवीकरण सम्बन्धी उपबन्ध लागू होता है चाहे प्रतिस्थापित संविदा (नई संविदा) पुरानी संविदा के भंग के बाद की गयी हो अथवा पुरानी संविदा के पालन के तिथि से पूर्व की गयी हो। परन्तु कुछ उच्च न्यायालयों ने मद्रास उच्च न्यायालय के मत के विपरीत मत व्यक्त किया है। इनके अनुसार यह धारा तभी लागू होती है जबकि नई संविदा पुरानी संविदा के भंग होने के पूर्व की गयी हो। यदि पुरानी संविदा का भंग किया जा चुका है तो उसके स्थान पर नई संविदा प्रतिस्थापित नहीं की जा सकती है और पुरानी संविदा के भंग के लिए वाद चलाया जा सकता है।

नवीकरण के सम्बन्ध में बम्बई उच्च न्यायालय ने अंधेरी ब्रिज न्यू कोआपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी बनाम कृष्णकांत देव के वाद में निर्णय दिया है कि यदि करार के आधार को प्रभावित करने वाला तात्विक अथवा सारवान् परिवर्तन किया गया है तो इसे नवीन करार माना जायेगा। इस प्रकार यदि किया गया तात्विक या सारवान् परिवर्तन करार के जड़ या आधार से सम्बन्धित है तो इसे नवीन करार समझा जायेगा। विक्रय के लिए किये गये करार के सम्बन्ध में इसकी विषय वस्तु और भुगतान की दर दोनों को ही करार का तात्विक भाग माना जाता है और इनमें किसी में भी परिवर्तन किये जाने पर नवीन करार का सृजन माना जाता है।

यह उल्लेखनीय है कि पुरानी संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न आभार या दायित्व ही नई संविदा के लिए प्रतिफल होता है। परिणामस्वरूप पुरानी संविदा के अन्तर्गत विधिमान्य आभार की नई संविदा के निर्माण के समय विद्यमान रहना आवश्यक है। इस प्रकार पुरानी संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न आभार या दायित्व विधिमान्य होना चाहिए तथा नई संविदा के निर्माण के समय विद्यमान होना चाहिए और यदि यह ऐसा नहीं है तो नई संविदा का प्रतिफल नहीं हो पायेगा और नई संविदा बिना प्रतिफल के होने के कारण शून्य हो जायेगी। नवीकरण के लिए जिस नई संविदा का निर्माण किया गया है, वह विधिमान्य और प्रवर्तनीय होनी चाहिये। नई संविदा विधिमान्य और प्रवर्तनीय नहीं है तो नवीकरण नहीं होगा और पुरानी संविदा कायम रहेगी और पक्षकारों के अधिकार और दायित्व पुरानी संविदा के आधार पर निर्धारित होंगे तथा पक्षकार पुरानी संविदा से बाध्य होंगे।

विखंडन और परिवर्तन

धारा 62 यह स्पष्ट कर देती है कि यदि संविदा के पक्षकार संविदा के विखंडन का करार करते हैं तो उसका पालन आवश्यक नहीं होगा। संविदा के पक्षकार आपस में करार करके संविदा के निबन्धन अर्थात् संविदा की शर्तों में परिवर्तन कर सकते हैं और जब पारस्परिक सहमति से वे संविदा की शर्तों में परिवर्तन करते हैं तो वास्तव में उन्हें परिवर्तित संविदा का पालन करना पड़ता है न कि मौलिक संविदा का। ऐसे परिवर्तन के लिए संविदा के दोनों पक्षकारों की पारस्परिक सहमति आवश्यक है।

धारा 63 के अनुसार कोई भी वचनग्रहीता अपने को दिये गये किसी वचन के पालन से पूर्णत: या भागतः अभिमुक्ति प्रदान कर सकता है या छूट प्रदान कर सकता है या ऐसे पालन के समय को बढ़ा सकता है या उसके स्थान पर किसी तुष्टि को जिसे वह ठीक समझे, स्वीकार कर सकता है।

वचन के पालन से अभिमुक्ति या छूट

प्रत्येक वचनग्रहीता अपने को दिये गये वचन के पालन से वचनदाता को पूर्णत: या भागत: अभिमुक्ति या छूट प्रदान कर सकता है। इस अभिमुक्ति या छूट को प्रतिफल द्वारा समर्थित होना आवश्यक नहीं है। इस बिन्दु पर भारतीय विधि और अंग्रेजी विधि में भेद हैं। भारत में इसे प्रतिफल द्वारा समर्थित होना आवश्यक नहीं हैं जबकि अंग्रेजी विधि के अन्तर्गत जब तक यह सील के अन्तर्गत न हो, प्रतिफल द्वारा समर्थित होना चाहिये, अन्यथा यह निष्प्रभावी होगा। उदाहरण के लिए क ख को 5000 रु. का देनदार है। ‘क’ उस समय और स्थान पर जबकि 5000 रु. देय थे ख को 2000 रु. देता है और ‘ख’ सम्पूर्ण ऋण की तुष्टि के रूप में उसे स्वीकार कर लेता है। सम्पूर्ण ऋण का उन्मोचन हो जायेगा और ख बाद में बकाया 3000 रु. के लिए वाद नहीं चला सकता। यह भारतीय विधि की स्थिति है। यदि अंग्रेजी

विधि के अन्तर्गत ऐसी स्थिति होती है तो ख बकाया 3000 रु. के लिए वाद चला सकता है जब तक कि क को दी गयी उक्त छूट या परिहार के लिए ख को कुछ प्रतिफल न दिया हो, अथवा जब तक कि छूट या परिहार प्रदान करने वाला करार सील के अन्तर्गत न किया गया हो। इस प्रकार भारतीय विधि के अन्तर्गत छूट या परिहार का प्रतिफल द्वारा समर्थित होना आवश्यक नहीं है। अर्थात् यदि छूट या परिहार प्रतिफल रहित हो तो भी प्रभावी होगा।

इस प्रकार भारत में छूट या परिहार के लिए न तो किसी करार की आवश्यकता है और न छूट या परिहार प्रदान करने वाले किसी करार के लिए प्रतिफल की ही आवश्यकता होती है।

संविदा पालन का समय बढ़ाना

धारा 63 के अन्तर्गत वचनग्रहीता संविदा-पालन की अवधि को बढ़ा सकता है और इसके लिए किसी प्रतिफल की आवश्यकता नहीं होगी। परन्तु यह उल्लेखनीय हैं कि संविदा-पालन के समय का बढ़ाया जाना पक्षकारों की पारस्परिक सहमति से होना चाहिए। वचनग्रहीता एकतरफा अपने लाभ के लिए संविदा-पालन के समय को बढ़ा नहीं सकता है, इसके लिए दूसरे पक्षकार की सहमति भी आवश्यक होगी। इस प्रकार वचन ग्रहीता बिना वचनकर्ता की सहमति प्राप्त किये, अपने लाभ के लिए वचन के पालन के समय को बढ़ा नहीं सकता है।

पालन के स्थान पर कोई अन्य तुष्टि स्वीकार करना

वचनग्रहीता वचन पालन के स्थान पर कोई अन्य तुष्टि जिसे वह ठीक समझे स्वीकार कर सकता है और तत्पश्चात् वचनदाता के वचन पालन से उन्मुक्त हो जायेगा। इसके लिए किसी प्रतिफल की आवश्यकता नहीं होती है। वचनपालन के स्थान पर कोई अन्य तुष्टि स्वीकार करने की अंग्रेजी विधि में अभिसंविदा और तुष्टि कहते हैं।

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