सहमति एवं स्वतंत्र सहमति (Consent & Free Consent)

सहमति (Consent) & स्वतंत्र सहमति (Free Consent)

सहमति (Consent)

सहमति संविदा के लिए अति आवश्यक है, जब तक प्रस्थापना की सहमति नहीं होती तब तक करार नहीं हो सकता है बिना करार के संविदा असम्भव है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 13 सहमति को परिभाषित करती है- “जबकि दो या दो से अधिक व्यक्ति एक ही बात पर एक ही भाव में करार करते हैं तब उनके बारे में कहा जाता है कि वे सहमत हुए हैं।”

इस परिभाषा के अनुसार, दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक ही बात पर और एक ही भाव से सहमत होना आवश्यक है। जहाँ पक्षकार किसी एक बात के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न अर्थ रखते हुए आपस में सहमत होते हैं वहाँ सही अर्थ में सहमति नहीं कही जाती है।

उदाहरण के लिए- जहाँ ‘क’ख’ को अमुक दाम पर एक क्विण्टल तेल बेचने का प्रस्ताव करता है और ‘ख’ उस प्रस्ताव को स्वीकार करता है। परन्तु करार करते वक्त ‘क’ का अभिप्राय मूँगफली के तेल से है, जबकि ‘ख’ का आशस सरसों के तेल से था, तो यहाँ ‘ख’ की सहमति वैध न होगी। क्योंकि दोनों पक्षकार एक ही बात पर एक ही अभिप्राय से सहमत नहीं हैं।

जहाँ पक्षकार किसी वस्तु की पहचान, अस्तित्व, स्वत्व, कीमत, मात्रा अथवा गुण के सम्बन्ध में सामान्य रूप से गलती करते हुए आपस में सहमत हो जाते हैं, तो उस दशा में दोनों ओर से की गयी ऐसी भूल करार को शून्य बना देती है।

इसलिए एक वैध संविदा का निर्माण करने के लिए पक्षकारों के लिए यह आवश्यक है कि वे एक ही बात पर एक ही आशय के साथ सहमत हों। यदि उनमें से किसी को भी किसी बात पर कोई शंका हो, तो उन्हें चाहिए कि वे अनुबन्ध करते समय ही उस शंका का समाधान कर ले अन्यथा उनके द्वारा किया गया करार शून्य होगा और उसके अन्तर्गत किसी के भी अधिकार और दायित्व का सृजन न हो सकेगा।

मौलिक भूल निम्नलिखित से सम्बन्धित हो सकती है-

  1. पक्षकार की पहचान के विषय में भूल

    जहाँ कि किसी पक्षकार या व्यक्ति जिससे करार किया गया है, की पहचान के विषय में कोई गलती हो गयी है, तो वह मामला धारा 13 के अधीन आयेगा।

  2. करार के विषय में भूल

    जब किसी अभिव्यक्त संविदा के पक्षकारों ने संविदा के विषय में भूल की है तब यह मामला भी धारा 13 के अन्तर्गत आता है। जहाँ दोनों पक्षकार भिन्न-भिन्न विषय पर संविदा करने का आशय रखते हैं वहाँ संविदा नहीं होती है, क्योंकि पक्षकार संविदा के विषय पर एक मत नहीं हैं।

  3. संव्यवहार के स्वरूप के विषय में भूल

    संव्यवहार के स्वरूप में भूल मुख्य रूप से कपट द्वारा उत्पन्न होती है। जहाँ एक व्यक्ति चाहे वह पढ़ा-लिखा है या नहीं, एक दस्तावेज पर दस्तखत करने के लिए प्रलोभित किया जाता है, जो कि उस दस्तावेज से भिन्न होता है जिस पर हस्ताक्षर करना चाहता है। तब ऐसी दशा में उसके द्वारा हस्ताक्षरित दस्तावेज शून्यता है।

उदाहरण के लिए- सेण्ट्रल नेशनल बैंक बनाम यूनाइटेड इण्डस्ट्रियल बैंक लि० का मामला है।

स्वतन्त्र सहमति (Free Consent)

स्वतन्त्र सहमति के सम्बन्ध में भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 14 निम्नलिखित प्रकार है-

जबकि सम्पत्ति-

  1. धारा 15 में यथापरिभाषित उत्पीड़न से; या
  2. धारा 16 में यथापरिभाषित असम्यक् असर से; या
  3. धारा 17 में यथापरिभाषित कपट से; या
  4. धारा 18 में यथास्थापित मिथ्या व्यपदेशन से या
  5. धारा 20, 21 और 22 के उपबन्धों के अधीन रहते हुयी भूल से न करायी गयी हो तब उसके बारे में यह कहा जा सकता है कि वह स्वतन्त्र है।

जबकि सम्मति ऐसे उत्पीड़न, असम्यक्, असर, कपट, मिथ्या-व्यपदेशन या भूल के अस्तित्व से अन्यथा न दी गयी होती, तब उसके बारे में यह कहा जाता है कि वह ऐसे करायी गयी है।

जहाँ कि किसी संविदा में दूसरे पक्षकार की सहमति उत्पीड़न, अनुचित प्रभाव, कपट या मिथ्या-व्यपदेशन से प्राप्त की गयी है वहाँ वह संविदा उस पक्षकार की इच्छा पर शून्यकरणीय होता है जिसकी सहमति इस प्रकार प्राप्त की गई।

उदाहरण के लिए- ‘अ’ ‘ब’ को जान से मारने की धमकी देकर उसकी मोटर साइकिल 2,000 रुपये में खरीद लेता है। ऐसी दशा में यह संविदा ‘ब’ की इच्छा पर शून्यकरणीय है, क्योंकि ‘अ’ ने उसकी सहमति उत्पीड़न द्वारा प्राप्त की है और इस कारण यह सहमति स्वतन्त्र नहीं है। जिन संविदाओं में दूसरे पक्षकार की सहमति स्वतन्त्र रूप से प्राप्त नहीं की जाती है, वे संविदा केवल उस समय तक ही वैध बने रहते हैं जब तक कि अधिकार प्राप्त पक्षकार (ऐसा पक्षकार जिसकी सम्पति स्वतन्त्र रूप से प्राप्त नहीं की गयी है।) उन्हें शून्य घोषित न कर दें। इसलिए एक वैध संविदा होने के लिए सहमति का स्वतन्त्र होना आवश्यक है। अर्थात् सहमति देने वाले पक्षकार पर सहमति प्राप्त करने के लिए अनुचित प्रभाव, कपट, उत्पीड़न, मिथ्या-व्यपदेशन आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। उसे प्रस्ताव के लिए स्वीकृति देने के लिए बाध्य नहीं करना चाहिए, बल्कि यह उसकी इच्छा पर ही छोड़ देना चाहिए कि वह प्रस्ताव को स्वीकार करे अथवा न करे। जब स्वीकृति देने वाला पक्षकार स्वयं अपनी इच्छा से ही, बिना किसी के कहे या दबाव डाले सहमति देता है तभी सहमति स्वतन्त्र मानी जाती है। उत्पीड़न, अनुचित प्रभाव, कपट या मिथ्या व्यपदेशन के अतिरिक्त यदि गलती के कारण कोई सहमति प्रदान की गयी है तो करार शून्यकरणीय नहीं होता बल्कि शून्य बन जाता है। यदि गलती कानून के बारे में हो, तो करार हमेशा शून्य नहीं होता है।

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