संविदा अधिनियम के अधीन अवैध करार

संविदा अधिनियम के अधीन अवैध करार

संविदा अधिनियम के अधीन अवैध करार (Agreement Declared Void Under Contract Act)

“किसी व्यक्ति के विवाह के अवरोधार्थ करार शून्य है।”

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 26 के अनुसार “ऐसा हर करार शून्य है जो अप्राप्तवय से भिन्न किसी व्यक्ति के विवाह के अवरोधार्थ हो ।”.

विधि व्यक्तियों की स्वतन्त्रता के विधि मान्य करार देती है विवाह के मामले भी विधि का विचार समान है, ऐसी स्वतन्त्रता को प्रतिबन्धित करने वाला करार विधि विरुद्ध है विधि किसी व्यक्ति को विवाह हेतु वाहय नहीं करती है फिर भी ऐसा करार जिसके लिये किसी व्यक्ति को विवाह न करने के लिए वाहय किया जाय लोक निती के होने के कारण विधि विरुद्ध होने के कारण विधि विरुद्ध या शून्य होते है।

उदाहरण के लिए- ‘अ’ तथा ‘ब’ के मध्य सिवाय दूसरे पक्षकार के साथ के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ विवाह न करने का कोई पारस्परिक वचन विवाह पर अवरोध के रूप में, इसलिए शून्य है कि करार में दूसरे के साथ विवाह करने का वचन शामिल नहीं है।

मोहम्मद अली बनाम एइसा खातून के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ किसी विवाह में यह शर्त रखी जाती है कि यदि पति किसी दूसरी औरत से विवाह करेगा तो पत्नी को तलाक प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त होगा।

अंग्रेजी विधि में विवाह के पूर्ण अवरोध में करार शून्य होता है परन्तु विवाह के आंशिक अवरोध में करार शून्य नहीं होता है। इस प्रकार अंग्रेजी विधि में विवाह के अवरोध के आधार पर करार तभी शून्य होता है जबकि वह विवाह करने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाता हो । उदाहरण के लिए यदि करार के अन्तर्गत प्रतिज्ञाकर्ता यह प्रतिज्ञा करता है कि वह किसी से विवाह नहीं करेगा, यह करार शून्य होगा परन्तु करार जिसके अन्तर्गत प्रतिज्ञाकर्ता यह प्रतिज्ञा करता है कि वह किसी विशेष व्यक्ति से विवाह नहीं करेगा। शून्य नहीं होगा क्योंकि यह विवाह पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लगाता है।

भारतीय विधि में विवाह के अवरोध में करार शून्य होता है, चाहे अवरोध पूर्ण हो अथवा आंशिक हो। इस सामान्य नियम का केवल एक अपवाद है। यह सामान्य नियम अवयस्क के सम्बन्ध में लागू नहीं होता है। धारा 26 यह स्पष्ट रूप से उपबन्धित करती हैं कि अवयस्क को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति के विवाह के अवरोधार्थ प्रत्येक करार शून्य होता है।

इस प्रकार भारत में विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगाने वाले करार शून्य होते हैं, चाहे प्रतिबन्ध पूर्ण हो या आंशिक हो। विवाह करने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने वाले करार से तात्पर्य ऐसे करार से है जो किसी व्यक्ति को विवाह करने से पूर्णत: रोक देता है। उदाहरण के लिए, किसी करार के अन्तर्गत प्रतिज्ञाकर्ता यह प्रतिज्ञा करता है कि वह किसी से विवाह नहीं करेगा। यह करार विवाह में पूर्ण अवरोध उत्पन्न करता है। विवाह करने पर आंशिक प्रतिबन्ध लगाने वाले करार से तात्पर्य उस करार से हैं जो किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट व्यक्ति से विवाह करने से रोकता है अथवा किसी व्यक्ति को कुछ अवधि के लिए विवाह करने से रोकता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस बात में सन्देह व्यक्त किया है कि धारा 26 के अन्तर्गत आंशिक अवरोध उत्पन्न करने वाले करार भी सम्मिलित होंगे। परन्तु धारा 26 में कोई ऐसा शब्द नहीं है जिससे यह प्रतीत होता हो कि विवाह में आंशिक अवरोध उत्पन्न करने वाले करार के सम्बन्ध में यह धारा लागू नहीं होगी। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में विवाह करने पर पूर्ण अथवा आंशिक प्रतिबन्ध लगाने वाले करार शून्य होंगे। जो करार विवाह की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध नहीं लगाते हैं, वे शून्य नहीं होते हैं। लफ्तुनिसा बनाम शहरबानू में करार यह था कि यदि विधवा पुनः विवाह करेंगी तो उसका भरण पोषण का अधिकार समाप्त हो जायेगा। न्यायालय ने इस करार को विधि मान्य ठहराया।

“व्यापार में रूकावट डालने वाले करार शून्य होते हैं।”

ऐसे सभी करार शून्य होगे जो किसी व्यक्ति की किसी प्रकार के विधिपूर्ण व्यवसाय, व्यापार आदि करने से रोके ऐसी रुकावट के विस्तार तक शून्य होता है- भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 27 में ऐसे करारों का विवेचन है।

धारा 27 के अनुसार “प्रत्येक करार जिससे कोई व्यक्ति किसी प्रकार की विधिपूर्ण वृत्ति व्यापार या कार बार करने से अवरुद्ध होता है अवरोध के विस्तार तक शून्य होता है। “

अंग्रेजी विधि- नार्डेनफेल्ट बनाम मेक्सिम नार्डेनफेल्ट गन कं० के वाद में वर्तमान विधि की व्याख्या की गयी है।

अपीलार्थी ने जो बन्दूक और कारतूसों को बनाता था, अपना कारबार प्रत्यर्थी कम्पनी को बेच दिया और उसने 25 साल तक ऐसा व्यापार न करने का करार किया और यह भी करार किया कि वह ऐसा कोई भी कारबार नहीं करेगा जिसकी प्रत्यर्थी कम्पनी के साथ प्रतियोगिता हो ।

हाउस आफ लार्ड्स ने केवल करार के उस भाग को शून्य घोषित किया जो अपीलार्थी पर ऐसा कारबार करने पर प्रतिबन्ध लगाता था जिसकी प्रत्यर्थी कम्पनी के साथ प्रतियोगिता हो । शेष भाग को वैध घोषित किया।

भारतीय विधि- इस विषय पर भारतीय विधि की स्थिति धारा 27 से स्पष्ट हो जाती है। इस धारा के अनुसार प्रत्येक करार जिससे कोई व्यक्ति किसी प्रकार के विधिपूर्ण व्यवसाय, व्यापार या कारबार करने से अवरुद्ध होता है, अवरोध के विस्तार तक शून्य होगा। अंग्रेजी विधि के समान भारतीय विधि में भी अवरोध चाहे पूर्ण (सामान्य) हो अथवा आंशिक हो, यदि वह किसी व्यक्ति को कोई विधिपूर्ण व्यवसाय, व्यापार या कारबार करने से रोकता है, शून्य होता है, अर्थात् धारा 27 के अन्तर्गत केवल पूर्ण अवरोध ही सम्मिलित नहीं है बल्कि आशिक अवरोध भी सम्मिलित है। उदाहरण के लिए मधु चन्द्र बनाम राजकुमार के बाद में वादी और प्रतिवादी एक ही मोहल्ले में एक ही तरह का कारबार करते थे। प्रतिवादी ने वादी से यह करार किया कि यदि वादी अपनी दुकान उस मोहल्ले से हटा ले तो वह उसे कुछ धन देगा। वादी ने अपनी दुकान उस मुहल्ले से हटा लिया और उक्त धन की माँग किया परन्तु प्रतिवादी ने धन नहीं दिया। वादी ने वाद चलाया। न्यायालय ने करार को धारा 27 के अन्तर्गत शून्य ठहराया। इस वाद में अवरोध आंशिक था।

इस प्रकार यदि कोई करार किसी व्यक्ति को विधिपूर्ण पेशा व्यापार या कारबार करने से रोकता है तो जिस सीमा तक वह इस प्रकार रोकता है, उस सीमा तक शून्य होगा और इससे कोई अन्तर नहीं होगा कि अवरोध या प्रतिबन्ध सामान्य (पूर्ण) है, अथवा आंशिक है। अवरोध चाहे सामान्य (पूर्ण) हो अथवा आंशिक हो, शर्त सहित हो अथवा शर्त रहित हो, सीमित हो अथवा असीमित हो, यदि यह पेशा या व्यापार या कारबार पर अवरोध है तो शून्य होगा।

यह उल्लेखनीय है कि धारा 27 के अन्तर्गत यदि करार किसी व्यक्ति को विधिपूर्ण पेशा, कारबार या व्यापार करने से रोकता है तो अवरोध की सीमा तक शून्य होगा। इस प्रकार यदि करार का कुछ भाग किसी व्यक्ति को विधिपूर्ण पेशा, व्यापार या कारबार करने से रोकता है परन्तु कुछ भाग ऐसा अवरोध उत्पन्न नहीं करता है और करार के उस भाग को जो अवरोध उत्पन्न नहीं करता है, अवरोध उत्पन्न करने वाले भाग से अलग किया जा सकता है तो अवरोध उत्पन्न करने वाला भाग तो विधिमान्य होगा परन्तु अवरोध उत्पन्न करने वाला करार शून्य होगा। परन्तु यदि करार को विभाजित नहीं किया जा सकता है और उसका कुछ भाग धारा 27 के अन्तर्गत अवैध है और कुछ भाग विधिमान्य है, तो सम्पूर्ण करार अवैध और शून्य होगा।

अपवाद-

ऐसी कुछ अपवादिक दशायें है जो ऐसे करारों को भी विधि मान्य करती है। जो किसी व्यक्ति विधिपूर्ण व्यापार, कारवार करने से रोकते है जो निम्नलिखित है- वास्तव में अंग्रेजी विधि और भारतीय विधि में इसी विषय पर भेद है। अंग्रेजी विधि में व्यापार अवरोधक करार उस समय विधिमान्य और प्रवर्तनीय होता है जब कि वह करार के पक्षकारों के हित में और लोक हित में युक्तियुक्त होता है परन्तु भारतीय विधि में अवरोधक करार तभी विधिमान्य और प्रवर्तनीय होता है जबकि वह अधिनियम में उल्लिखित अथवा न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त अपवादों में आता है।

क. अधिनियम के अन्तर्गत अपवाद-

  1. भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 27 के अन्तर्गत अपवाद –

    धारा 27 के अन्तर्गत इस सामान्य सिद्धान्त का कि व्यापार अवरोधक करार शून्य होते हैं। एक अपवाद दिया गया है। यदि कोई व्यक्ति कारबार का सुनाम (गुडविल) बेचता है और क्रेता के साथ करार करता है कि वह एक निश्चित स्थानीय सीमा के भीतर जिस कारबार के सुनाम का विक्रय कर रहा है, उनके समान कारबार उस समय तक नहीं करेगा जब तक कि क्रेता अथवा उसका उत्तराधिकारी उस कारबार को करता है तो यह करार विधिमान्य होगा बशर्ते कारबार की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार की सीमा न्यायालय को युक्तियुक्त प्रतीत हो। इस प्रकार इस अपवाद के अन्तर्गत व्यापार या कारबार पर प्रतिबन्ध अथवा अवरोध लगाने वाला करार तभी विधिमान्य और प्रवर्तनीय होता है जबकि विक्रेता एक निश्चित स्थानीय सीमा के भीतर उस प्रकार का कारबार करने से रोका जाता है जिस प्रकार के कारबार का सुनाम बेचा है और वह केवल उस समय तक ऐसा कारबार करने से रोका जाता है जब तक कि क्रेता या उसका उत्तराधिकारी उस कारबार को करता है तथा कारबार की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए न्यायालय के मत में उक्त सीमा युक्तियुक्त है। यह अपवाद सुनाम के क्रेता के हित को सुरक्षा प्रदान करने हेतु सृजित किया गया है।

  2. भारतीय भागीदारी अधिनियम के अन्तर्गत अपवाद –

    भागीदारी अधिनियम की निम्नलिखित धाराओं के अन्तर्गत भागीदारों के मध्य किये गये करार यद्यपि कि व्यापार अवरोधक होते हैं विधिमान्य और प्रवर्तनीय होते हैं। ये धारायें निम्न हैं- धारा 11 (2), 36(2), 54 और 55 (3)।

ख. न्यायालय द्वारा मान्यता प्राप्त अपवाद-

  1. सेवा की संविदा-

    यदि कोई नौकर या कर्मचारी अपने मालिक या नियोजक से यह करार करता है कि वह एक निश्चित अवधि तक उसकी सेवा में रहेगा और उस अवधि में किसी अन्य व्यक्ति की सेवा नहीं करेगा तो यह करार विधिमान्य होगा। इसी प्रकार यदि कोई कर्मचारी अपने नियोजक से यह करार करता है कि वह एक निश्चित अवधि तक उसकी सेवा करेगा और उस अवधि में ऐसा कोई कारबार नहीं करेगा जो नियोजक के कारबार की स्पर्धा में हो तो ऐसी दशा में यह करार विधिमान्य होगा।

निरंजन शंकर गोलीकारी बनाम सेंचुरी स्पिनिंग कं० लि० के वाद में एक कर्मचारी ने अपने नियोजक से यह करार किया कि वह उसकी 5 वर्ष तक सेवा करेगा और इस 5 वर्ष की अवधि में नियोजक के कारबार के सदृश कारबार नहीं करेगा अथवा किसी ऐसे व्यक्ति, फर्म या कम्पनी की सेवा नहीं करेगा जो नियोजक के कारबार के सदृश कारबार करती हो, चाहे वह भले ही उस नियोजक की नौकरी छोड़कर एक अन्य ऐसी कम्पनी की नौकरी करने लगा जो उक्त नियोजक के कारबार के सदृश कारबार करती थी। न्यायालय ने करार को विधिमान्य ठहराया और उक्त कर्मचारी को दूसरे नियोजक (कम्पनी) की नौकरी करने से रोक दिया।

  1. व्यापारिक संयोजन-

    कभी कभी एक समान कारबार या व्यापार करने वाले व्यापारी अथवा विनिर्माता आपस में करार करते हैं कि वे एक निश्चित मूल्य से कम पर अपना माल नहीं बेचेंगे और लाभ को एक सामान्य फण्ड में जमा करेंगे तथा लाभ को एक निश्चित अनुपात में आपस में विभाजित करेंगे। ऐसा करार शून्य नहीं होता है। ऐसा करार पक्षकारों के अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए होता है। परन्तु यदि ऐसे करार का उद्देश्य पक्षकारों को अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाना नहीं हैं बल्कि एकाधिकार स्थापित करना है तो वह शून्य हो जायेगा।

अंग्रेजी विधि में भी ऐसा करार विधिमान्य होता है बशर्ते लगाया गया अवरोध या प्रतिबन्ध पक्षकारों के हित तथा लोकहित में युक्तियुक्त हो ।

  1. सोलस एग्रीमेन्ट अथवा एकाकी संव्यवहार करार-

    यदि कोई विक्रेता या निर्माता किसी क्रेता से करार करता है कि वह अपने द्वारा निर्मित अथवा उत्पादित सम्पूर्ण माल केवल उसी क्रेता को बेचेगा, किसी अन्य क्रेता को नहीं बेचेगा अथवा कोई क्रेता किसी विक्रेता अथवा विनिर्माता से करार करता है कि किसी निश्चित वस्तु की जितनी भी उसे आवश्यकता होगी वह उसी विक्रेता अथवा विनिर्माता से क्रय करेगा, किसी अन्य से नहीं, तो ऐसे करार को सोलस एग्रीमेन्ट या एकाकी संव्यवहार करार कहते हैं। यदि ऐसा करार पक्षकारों के हित की सुरक्षा के लिए किया गया है और एकाधिकार स्थापित करने के उद्देश्य से नहीं किया गया अथवा अवरोध अनुचित रूप से लम्बी अवधि के लिए नहीं हैं तो करार शून्य नहीं होता है। उदाहरण के लिए एक वाद में एक अभ्रक के विनिर्माता ने वादी से करार किया कि वह अपने द्वारा उत्पादित माल केवल उसी वादी को बेचेगा, अन्य किसी को नहीं बेचेगा तथा वह उक्त माल अपने भण्डार में नहीं रखेगा, न्यायालय ने करार को विधिमान्य और प्रवर्तनीय ठहराया।

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