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प्रशासनिक भ्रष्टाचार

प्रशासनिक भ्रष्टाचार

भारतीय प्रशासन में सच्चरित्रा (इण्टेग्रिटी) तथा नैतिकता (एथिक्स) की स्थापना एक विषम समस्या है। समसामयिक राजनीतिक-प्रशासनिक परिदृश्य में नैतिकता एवं ईमानदारी दुर्लभ प्रवृत्ति का रूप लेती जा रही है। बीसवीं सदी का अन्तिम दशक भारतीय राजनीति में “घोटाला काल” के रूप में जाना जाएगा, ऐसा मत प्रकट किया जाता है। सच्चरित्रता का विलोम “भ्रष्टाचार” एक सामान्य एवं आवश्यक घटना बन चुका है। सार्वजनिक प्रशासन में सच्चरित्रता के महत्व को स्पष्ट करते हुए प्रथम पंचवर्षीय योजना में कहा गया था-“सार्वजनिक मामलों एवं प्रशासन में सच्चरित्रता होना आवश्यक है, अतः प्रत्येक सार्वजनिक कार्य सम्बन्धी शाखा में इस पर बल दिया जाना चाहिये। भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव बहुत व्यापक होता है। इसके फलस्वरूप न केवल ऐसी गलतियाँ होती हैं जिनको सुधारना कठिन हो जाता है बल्कि यह प्रशासनिक ढाँचे की जड़ों एवं प्रशासन में जनता के विश्वास को ही हिला देता है, अतः प्रशासन में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक निरन्तर चलने वाला युद्ध छेड़ देना चाहिये।”

भ्रष्टाचार एक विश्वव्यापी तथा परम्परागत समस्या है। कौटिल्य का कहना था- “सार्वजनिक कर्मचारियों द्वारा सरकारी धन का दुरुपयोग न करना उसी तरह असम्भव है जिस तरह कि जीभ पर रखे शहद को न चखना। जिस प्रकार पानी में तैरती मछली कब दो बूँद पानी पी लेती है, पता ही नहीं चलता उसी प्रकार सार्वजनिक धन के साथ कर्मचारी रहते हैं। “इस उदाहरण से स्पष्ट है कि लोक सेवाओं में भ्रष्टाचार की समस्या प्राचीनकाल से ही विद्यमान रही है। भारत की लोक कथाओं, किस्से-कहानियों से लेकर ऐतिहासिक दस्तावेजों तक यह (भ्रष्टाचार) चर्चित समस्या रही है। सल्तनत काल, मुगल काल तथा अन्य राजशाही व्यवस्थाओं में राज्य के कार्मिकों द्वारा भ्रष्टाचार के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा अपने कर्मचारियों को कम वेतन देने के कारण भी लगभग प्रत्येक कर्मचारी किसी न किसी प्रकार के भ्रष्टाचार में लिप्त था। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में गबन, भ्रष्टाचार या रिश्वतखोरी की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है।

भ्रष्टाचार का अर्थ

भ्रष्टाचार अर्थात् भ्रष्ट आचरण, शिष्टाचार या नैतिकता विहीन व्यवहार का परिचायक है। भ्रष्टाचार का आशय दो दृष्टियों से समझा जा सकता है। संकीर्ण दृष्टि में भ्रष्टाचार का अभिप्राय किसी कार्य को करने या न करने के लिए रिश्वत लेना है तो व्यापक दृष्टि में भ्रष्टाचार, सार्वजनिक पद या सत्ता का दुरुपयोग करने को कहते हैं। इस दुरुपयोग में जानबूझकर किसी एक को लाभ पहुँचाना या किसी दूसरे को हानि पहुँचाना अथवा स्वार्थ भाव से पद एवं उसकी शक्तियों का अनैतिकतापूर्वक उपयोग करना है।

भारतीय दण्ड संहिता (आई० पी० सी०) की धारा 161 में भ्रष्टाचार को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-“जो व्यक्ति शासकीय होते हुए या होने की आशा में अपने या अन्य किसी व्यक्ति के लिए विधिक पारिश्रमिक से अधिक कोई घूस लेता है या स्वीकार करता है अथवा लेने के लिए तैयार हो जाता है या लेने का प्रयत्न करता है या किसी कार्य को करने या न करने के लिए उपहारस्वरूप या अपने शासकीय कार्य करने में किसी व्यक्ति के प्रति पक्षपात या उपेक्षा, या किसी व्यक्ति की कोई सेवा या कुसेवा का प्रयास, केन्द्रीय या राज्य सरकार या संसद या विधानमंडल या किसी लोक सेवक के संदर्भ में करता है तो उसे तीन वर्ष तक के कारावास का दण्ड या अर्थदण्ड (जुर्माना) या दोनों दिये जा सकेंगे।”

भ्रष्टाचार के कारण

भारत में भ्रष्टाचार तथा बढ़ती हुई जनसंख्या ऐसे दो मुद्दे हैं जिन पर विशाल ग्रंथ लिखे जा सकते हैं। यद्यपि भ्रष्टाचार के मूल में अनेक राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक तथा सांस्कृतिक कारक निहित हैं तथापि यहाँ कतिपय विशिष्ट तथा महत्वपूर्ण कारणों को ही वर्णित करना उचित समझा गया है। ये कारण निम्न हैं-

  1. राजनीतिक प्रश्रय

    स्वतंत्रता से पूर्व स्वाधीनता संग्राम के दिनों में राजनीति एक “मिशन” के रूप में थी किन्तु स्वतंत्रता के पश्चात् इसने “कमीशन” का रूप ले लिया है। सामाजिक परिवर्तन, नियंत्रण तथा नैतिक विकास में राजनेताओं की आदर्श छवि किसी भी देश के लिए गर्व की बात होती है लेकिन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का पतन तथा इसके कर्णधारों की धूमिल होती छवि, एक गंभीर चिंता का विषय बन चुकी है। अब यह स्पष्टतः स्वीकार किया जा चुका है कि भ्रष्टाचार का जन्म सत्ता के उच्च शिखरों में होता है जो शनैः-शनैः सम्पूर्ण तंत्र में रिस जाता है। राजनेताओं के साथ अपराधियों, तस्करों, आतंकवादियों, जासूसों, व्यापारियों तथा देशद्रोहियों के सम्बन्ध अब सबके सामने आ चुके हैं। भारतीय लोकतंत्र के समक्ष उपस्थित गंभीर चुनौतियों में सर्वप्रथम राजनीतिक आचरण में आई शोचनीय गिरावट ही है। भ्रष्ट माध्यमों से चुनाव जीतने की प्रक्रिया से लेकर मंत्रीपद के दुरुपयोग तक पैसा और केवल पैसा ध्येय बन जाता है। हमारी प्रशासनिक व्यवस्था में भी राजनीति का नीति-निर्माण तथा कार्यक्रम क्रियान्वयन में निर्णायक भूमिका है, अतः प्रशासन तंत्र राजनेताओं के भ्रष्टाचार का सर्वसुलभ क्षेत्र बन गया है। भ्रष्टाचार की अमर बेल को राजनीतिज्ञों तथा उच्च प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा पाला-पोसा गया है जो अब सम्पूर्ण तंत्र पर फैल गई है। भारतीय राजनीतिक व्यवस्था तथा शासन प्रणाली सैद्धान्तिक रूप से अत्यन्त सुदृढ़ है जो देश के भाग्य को यदि चाहे तो कुछ ही वर्षों में परिवर्तित कर सकती है किन्तु व्यावहारिक स्तर पर व्याप्त न्यूनताएँ चरित्र पतन की अन्तिम सीमाओं को छू रही हैं। आज स्थिति यह हो गई है कि राज्य सभा में केन्द्रीय मंत्री, प्रशासनिक भ्रष्टाचार को बिना किसी झिझक के स्पष्टतः स्वीकार करते हैं।

  2. विज्ञान तथा भौतिकवाद का प्रसार

    विज्ञान तथा तकनीकी विकास के साथ ही संसार भर में मानव जाति सुविधाभोगी होती जा रही है। रहन-सहन, खान-पान, आवास, संचार तथा यातायात की अत्याधुनिक मशीनों एवं सुविधाएँ जीवन को भौतिकवाद की ओर अग्रसर करती हैं। आज प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक सुख-सुविधाएँ, स्वयं तथा परिवार के लिए जुटाना चाहता है। एक ओर ये भौतिक वस्तुएँ जीवन-शैली को सुख पहुँचाती है वहीं दूसरी ओर ये वस्तुएँ प्रतिष्ठा की परिचायक (स्टेट्स सिम्बल) बनती जा रही हैं। चूँकि वेतनभोगियों की आय की सीमा निश्चित होती है, अतः वे भ्रष्ट साधनों से अतिरिक्त आय जुटाते हैं। समस्या का सबसे गम्भीर पक्ष यह है कि समाज में व्यक्ति के पास उपलब्ध सम्पत्ति का आकलन तो किया जा रहा है किन्तु इस विषय पर नहीं सोचा जाता है कि एकत्र सम्पत्ति का स्रोत क्या है। दूसरे शब्दों में कहें तो भ्रष्टाचार को सामाजिक मान्यता प्राप्त हो चुकी है तथा इसे किसी व्यक्ति की चारित्रिक कमजोरी के रूप में नहीं देखा जाता है। मनुष्य तो स्वभाव से ही असंतोषी होने के कारण निरन्तर तृष्णाओं के भँवरजाल में फँसा रहता है। पैसा तथा प्रतिष्ठा एक-दूसरे के पर्याय हो चुके हैं, अतः व्यक्ति निरन्तर पैसा कमाने की ही जुगत बिठाता रहता है। आज का मानव इसी जन्म की नहीं अपितु सात जन्मों की चिंता कर धन एकत्र करना चाहता है।

  3. औद्योगीकरण तथा नगरीकरण

    स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में उद्योगों का विकास तेजी से हुआ है। सरकार की नीतियों, कार्यक्रमों तथा नौकरशाही की कार्यशैली में कोटा, परमिट तथा लाइसेंस प्रणालियों ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। जिन व्यक्तियों के पास साधन थे, वे अपने व्यापार या उद्योग का विस्तार करते गए। इस प्रक्रिया में जब भी उन्हें बाधा अनुभव हुई तो उन्होंने सम्बन्धित कार्मिक, नियम या यूँ कहें कि प्रशासन को ही खरीद लिया। दूसरी तरफ कुछ नव धनाढ्य वर्ग भी प्रगति करने लगे। इन नव धनाढ्यों ने भी सरकारी कानूनों को ताक पर रख दिया। धीरे-धीरे उद्योगपतियों तथा पूँजीपतियों ने राजनेताओं को चुनाव लड़ने तथा पार्टी गतिविधियों के लिए चन्दा देना शुरू किया और इस प्रकार सम्पूर्ण राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र भ्रष्टाचार के कुचक्र में फँस गया।

  4. देशभक्ति की कमी

    भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् यहाँ के अधिकांश नागरिक स्वयं को स्वतंत्र नहीं अपितु स्वछन्द समझने लगे हैं। अधिकारों का ज्ञान तथा जागरूकता अवश्य बढ़ी है किन्तु नागरिक कर्त्तव्य को निर्वाहित करने में उदासीनता की प्रवृत्ति अपनाई जा रही है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में तो जनता ही सम्प्रभु होती है लेकिन भारतीय लोकतंत्र जो विश्व में सबसे बड़ा है, कि जनता, सरकार को स्वयं में सर्वथा पृथक् समझती है। देश के सरकारी कार्मिक से लेकर आम आदमी तक हर कोई सरकार को परायेपन की नजर से देखता है। सरकारी संस्था को लूटने तथा हानि पहुँचाने को सामान्यतः अपराध नहीं माना जा रहा है। जिस देश के नागरिकों की मानसिकता इस सीमा तक विकृत हो वहाँ भ्रष्टाचार का बोलबाला स्वतः ही होता है। बहुत-से नागरिक तो देश की सीमाओं पर युद्ध करने को ही देशभक्ति का परिचायक मानते हैं। कई बार ऐसा भी होता है जब व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति हेतु सरकारी कार्मिक को प्रस्ताव करके घूस देता है ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार का फैलाव सरलता से होता है। भारतीय समाज अपनी विविधताओं तथा विषमताओं के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ का नागरिक स्वार्थपूर्ति में देश को कितनी ही बड़ी हानि पहुँचाने में नहीं हिचकता है। देशभक्ति या कर्तव्यनिष्ठा की बातें करने वाला अथवा सुधारों के प्रयास करता व्यक्ति संगठन में उपहास का पात्र बनाया जाता है, तो दूसरी ओर वह अपनी ईमानदारी के कारण समकक्ष कार्मिकों से पिछड़ता चला जाता है। ऐसी स्थिति में भ्रष्टाचार की राह पकड़ना ही उचित माना जाता है।

  5. नैतिक मूल्यों का पतन

    बहुधा भारतीय संस्कृति के प्राचीनकाल को बहुत ही उजला एवं सशक्त माना जाता है, लेकिन ऐतिहासिक प्रमाण तो यही सिद्ध करते हैं कि लोक सेवाओं में सदैव भ्रष्टाचार विद्यमान रहा है। प्राचीनकाल में समाज की संरचना सरल थी, जीवन की इच्छाएँ कम थीं तथा ग्रामीण परिवेश में नैतिकता का एक विशिष्ट महत्व था। वर्तमान भारत में सच्चरित्रता या ईमानदारी की बातें करने वाला “उपहास” का पात्र बन जाता है, क्योंकि मानसून में टर्राते मेढ़कों में कोयल को कौन सुने? भारत में भ्रष्टाचार की स्थिति को स्पष्ट करते हुए नीरद सी० चौधरी ने लिखा है- ‘छोटे-से क्लर्क से लेकर मंत्री तक शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसे किसी न किसी मात्रा में धन द्वारा नियंत्रित न किया जा सके।” स्थिति यह बन चुकी है कि प्रत्येक कार्मिक अपने पद, वातावरण तथा परिस्थितियों के अनुसार यथासंभव भ्रष्टाचार करता है। चूँकि अब रिश्वत के रूप में बोरियाँ भरकर रुपये कमाये जाते हैं, अतः हजार-पाँच सौ की रिश्वत चाय-पानी के रूप में मानी जाती है। ऑफिस से स्टेशनरी उठाकर लाना या किसी कार्य को देरी से निबटाना अथवा अपने परिचित को अतिरिक्त लाभ पहुँचाना इत्यादि प्रक्रियाएँ तो शायद ही कोई भ्रष्टाचार की श्रेणी में मानता होगा। प्रशासन में छोटी-छोटी अनियमितताएँ अब स्वाभाविक प्रक्रियाएँ मान ली गई हैं। यह हमारे नैतिक मूल्यों के पतन का ही परिचायक है। जो व्यक्ति कर्त्तव्यनिष्ठा या ईमानदारी से कार्य करना चाहता है उसे ‘असामाजिक’ का लेबल लगा दिया जा रहा है। ईश्वर के प्रति अनास्था तथा कुछ में छद्म आस्था के कारण भी नैतिकता का स्तर घटता है।

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति नये तथा पुराने सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों के संक्रमण काल से गुजर रही है। इस संघर्ष की स्थिति में परिवर्तन समुचित दिशा में नहीं ले जा पाते हैं अतः अव्यवस्था का जन्म होता है। विगत दो-तीन दशकों से आम भारतीय का नैतिक पतन अधिक हुआ है जो कई कारणों से प्रभावित है।

  1. वेतनमानों की विसंगतियाँ

    विशाल भू-भाग तथा विविध सामाजिक-आर्थिक जटिलताओं के कारण भारत के प्रत्येक स्थान पर जीवन-यापन एक समान नहीं है। गाँवों में कम आय में भी सम्मानपूर्वक जीवन बिताया जा सकता है वहीं महानगरों में विपुल धनराशि भी अपर्याप्त सिद्ध होती है। शहरी क्षेत्रों में कार्यरत निम्न श्रेणी के कर्मचारी का वेतन उसकी दैनिक पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता जबकि राजपत्रित अधिकारी के सिर पर आयकर की तलवार लटकी रहती है। उदाहरणस्वरूप जयपुर नगर में एक चपरासी को राज्य सरकार मात्र 3500 रु० वेतन देती है जो तीन या चार व्यक्तियों के परिवार को पालने के लिए सर्वथा कम राशि है, जबकि 8000 रुपये मूल वेतन से अधिक प्राप्त करने वाले अधिकारी की मासिक प्रावधायी निधि कटौती (जी० पी० एफ०) 2000 रुपये से भी अधिक होती है। ऐसी स्थिति में उसे भी पर्याप्त वेतन नकद प्राप्त नहीं हो पाता है। प्रतिवर्ष फरवरी, मार्च माह में सरकारी अधिकारियों को या तो अधिकांश रुपये बचत योजनाओं में विनियोजित करने पड़ते हैं अथवा आयकर के रूप में सरकार को चुकाने होते हैं। सारांशतः भारत में कार्य, पद, योग्यता, मँहगाई तथा परिस्थिति के अनुसार वेतन नहीं दिया जाता है, अतः कतिपय कार्मिक मजबूर होकर अवैधानिक तरीकों से आय करना भी शुरू कर देते हैं।

  2. नियंत्रण प्रणाली में दोष

    प्रशासनिक कार्यों में नैतिकता समाहित करने तथा जवाबदेयता सुनिश्चित करने के लिए अनेक कानून तथा प्रशासनिक संरचनाएँ कार्यरत हैं किन्तु नियंत्रण का यह तंत्र प्रायः निष्क्रिय और अकार्यकुशल पाया गया है। सतर्कता आयोग, भ्रष्टाचार निरोधक विभाग, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो, पुलिस एवं गुप्तचर विभाग, जनप्रतिनिधि (मंत्री), लेखा परीक्षण तथा लोकायुक्त सहित भ्रष्टाचार नियंत्रण की विभागीय प्रणालियाँ सम्पूर्ण मारक क्षमता से क्रियाशील नहीं रह पाती हैं। समस्या तो यह है कि भारतीय समाज की प्रत्येक कोशिका को चरित्रहीनता का रोग लग चुका है, अतः नियंत्रण प्रणालियों में भी भ्रष्ट एवं अनैतिक चरित्र के कार्मिकों का बोलबाला है। यदि भारत में प्रशासनिक कानूनों तथा संगठनों को सक्रिय कर दिया जाए तो भ्रष्टाचार की समस्या कुछ ही दिनों में नियंत्रित हो सकती है। जन अभियोग निराकरण की बहुत सी संरचनाओं के उद्देश्यों तथा प्रक्रियाओं की जनसाधारण को पर्याप्त जानकारी भी नहीं है। इस कारण भी प्रशासन में भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लग पाता है।

  3. नौकरशाही की जटिल एवं धीमी कार्य प्रणाली

    सामान्यतः नौकरशाही की कार्य प्रणाली कानूनों, कठोर नियमों तथा जटिल प्रक्रियाओं से घिरी होने के कारण श्रम, धन तथा समय साध्य होती है। अधिकांश व्यक्ति इन प्रक्रियाओं से तंग आकर शीघ्रतापूर्वक कार्य सम्पादित करवाने हेतु घूस (स्पीड मनी) प्रदान करते हैं। शनैः-शनैः सरकारी कार्मिकों की यह प्रवृत्ति बन जाती है कि वे बिना घूस लिए कार्य/फाइल को आगे ही नहीं बढ़ाते हैं अथवा उपभोक्ता को हतोत्साहित करने हेतु अनावश्यक कमियाँ निकालते हैं। नौकरशाही का सबसे बड़ा अवगुण “लालफीताशाही’ ही माना जाता है, क्योंकि इसी अवगुण के कारण ही “भोलाराम का जीव’ न जाने कहाँ अटक कर रह जाता है।

  4. भ्रष्टाचार : एक संक्रामक रोग

    संक्रामक रोग वे रोग होते हैं जो एक व्यक्ति से दूसरे तक कीटाणुओं के माध्यम से फैलते हैं। यद्यपि भ्रष्टाचार एक शारीरिक रोग नहीं है फिर भी यह एक सामाजिक-मानसिक बीमारी अवश्य है। समाज के अधिकांश भाग को चपेट में ले चुका भ्रष्टाचार गंभीर व्याधि बन चुका है। पहले ऐसा माना जाता था कि गरीबी, अशिक्षा तथा परम्परागत समाजों में भ्रष्टाचार शीघ्र फैलता तथा पनपता है किन्तु भारत की स्थिति में तो भ्रष्टाचार को फैलाने में शिक्षित, धनी तथा आधुनिक समाज ने कहीं अधिक योगदान दिया है। इस प्रकार भ्रष्ट आचरण करने वाली सरकारी कार्मिक तथा उसके आचरण को बढ़ावा देने वाले नागरिक दोनों ही इस रोग से ग्रस्त हैं। भारत में तो आज यह भी कहा जा रहा है कि भ्रष्टाचार और विकास दोनों साथ-साथ चलते हैं, अतः विकासशील देशों में भ्रष्टाचार अनिवार्य है।

समाधान

प्रशासन में सच्चरित्रता स्थापित करने या भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए निम्न सुझाव विचारणीय हैं-

  1. रसेल महोदय ने सुधार दो प्रकार के बताये हैं-
  • क्रान्तिकारी-गंदे पानी से भरे गिलास का पानी फेंक दो अर्थात् व्यवस्था को आमूल-चूल परिवर्तन करना क्रान्तिकारी सुधार कहलाता है।
  • सुधारवादी-गंदे पानी से भरे गिलास में थोड़ा स्वच्छ जल और मिला दो अर्थात् व्यवस्था को समग्र रूप से उखाड़ने की अपेक्षा उसमें अच्छाइयों का समावेश किया जाए।

इन सुधारों को प्रशासनिक भ्रष्टाचार की समस्या पर लागू करते समय व्यावहारिक समस्याएँ आती हैं। क्रान्तिकारी सुधार से सम्पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के समक्ष संकट उत्पन्न हो सकता है जबकि सुधारवादी प्रयास इसलिए असफल हो सकते हैं कि हमारे गिलास में पानी कुछ ज्यादा ही गंदा है, अतः स्वच्छ पानी भी गंदा हो जाएगा। ऐसी स्थिति में उपाय यही बचता है कि पहले गंदे पानी को कडुवा दवाई (कानून) से साफ किया तत्पश्चात् उसमें साफ पानी यानि नैतिकता के संस्कार मिलाए जाएँ।

  1. भारत में प्रत्येक नागरिक को कुछ समय के लिए सैनिक सेवाओं में अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया जाए ताकि उन्हें देश-भक्ति के प्रति रुझान हो तथा कष्ट उठाने की आदत भी
  2. स्कूलों तथा कॉलेज शिक्षा में नैतिक शिक्षा अर्थात् संस्कार पैदा करने वाले पाठ्यक्रमों का समावेश किया जाय ।
  3. सरकारी धन के दुरुपयोग को हत्या के समान दण्डनीय घोषित कर देना चाहिए।
  4. सरकारी कार्मिकों की कार्यशैली तथा व्यवहार का मूल्यांकन प्रेस, पंचायत, स्वयंसेवी संगठनों तथा आम जनता की खुली अदालत में होना चाहिए।
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