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अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में एकल-ध्रुवीय का उदय

अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में उभर रही एकल-ध्रुवीय

(Emerging unipolarity in the international system)

एक ध्रुवीय व्यवस्था का उदय

दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जो द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था स्थापित हुई थी वह 1955 के बाद के समय में बहुध्रुवीय व्यवस्था में परिवर्तित होनी आरम्भ हो गई। अमरीकी ब्लॉक तथा सोवियत ब्लॉक के साथ-साथ कई अन्य शक्ति केन्द्र विश्व व्यवस्था में उभर आये। चीन एक स्वतन्त्र शक्ति केन्द्र बना तथा ऐसी ही स्थिति फ्रांस ने भी प्राप्त कर ली। यूरोपीय समुदाय के कुशल संचालन द्वारा पश्चिमी यूरोपीय देश संयुक्त रूप में एक शक्तिशाली केन्द्र के रूप में उभरे। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन ने भी अपनी संगठित शक्ति को विश्व राजनीति को प्रभावित करने के योग्य बना लिया। पश्चिमी जर्मनी तथा जापान दो आर्थिक रूप में अत्यन्त शक्तिशाली केन्द्रों के रूप में विश्व पटल पर उभरे। भारत, ब्राजील, नाईजीरिया, मिस्र आदि जैसे कुछ देश स्थानीय महाशक्तियों के रूप में उभरे। आंतरिक मतभेदों के कारण दोनों महाशक्तियों के ब्लॉकों की क्रियाशीलता सीमित हो गई। अतः इस प्रकार द्वि-ध्रुवीकरण बहु-ध्रुवीकरण अथवा बहुकेन्द्रवाद तथा द्वि-बहुकेन्द्रवाद में रूपांतरित हो गया।

फिर 1987 के बाद जो परिवर्तन भूतपूर्व सोवियत संघ, पूर्वी यूरोपीय देशों, जर्मनी तथा विश्व के अन्य भागों में आये उसके परिणामस्वरूप विश्व शक्ति संरचना में काफी बड़े तथा महत्वपूर्ण परिवर्तन अत्यन्त शीघ्रता से आने आरम्भ हुए जिनके फलस्वरूप शीत युद्ध का अन्त हुआ, पूर्वी यूरोपीय देशों में साम्यवाद का पतन हुआ तथा उदारवाद को उनके द्वारा अपनाया गया, पश्चिमी जर्मनी तथा पूर्वी जर्मनी का विलय हुआ, ऐस्टोनिया, लाटविया तथा लिथुआनिया सोवियत संघ से स्वतन्त्र हुए, वार्सा समझौता टूट गया, सोवियत संघ का विधटन हुआ, 9 भूतपूर्व सोवियत गणराज्यों ने स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात स्वतन्त्र राज्यों का राष्ट्रकुल बना लिया, साम्यवादी देश चीन, क्यूबा तथा वियतनाम अकेले पड़ गये, संयुक्त राज्य अमरीका एक महाशक्ति के रूप में और अधिक शक्तिशाली बन गया। इसने नाटो को बनाए रखा। संयुक्त राष्ट्र संघ पर भी अमरीका का वर्चस्व स्थापित हो गया। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन अपनी आंतरिक कमजोरियों के कारण शिथिल हो गया। तीसरे विश्व के देश अपनी आर्थिक कठिनाइयों में बहुत अधिक उलझ गये। जर्मनी, पूर्वी जर्मनी के विलय के बाद, अपनी आंतरिक सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति में उलझ गया तथा जापान भी अपनी आर्थिक शक्ति के होते हुए अमरीका की शक्ति अक्षय पाने लगा। इन सभी परिवर्तनों के कारण विश्व शक्ति संरचना में गहरा परिवर्तन आ गया तथा विश्व स्तर पर एक ध्रुवीय व्यवस्था का उदय हुआ। निम्नलिखित तथ्यों से विश्व शक्ति संरचना की एकल-ध्रुवीय प्रकृति का पता चलता है।

  1. पूर्वी यूरोप के राज्य साम्यवादी घेरे से बाहर निकल गये तथा पश्चिमी यूरोप के देशों के साथ उनके सम्बन्ध अब मधुर हुए। शीत युद्ध समाप्त हुआ। पूर्वी जर्मनी तथा पश्चिमी जर्मनी मिलकर एक राज्य बन गये। बर्लिन की दीवार गिर गई। ऐसे परिवर्तनों के फलस्वरूप यूरोप में अमरीका की भूमिका कम हुई लेकिन यूरोपीय देश भी यूरोपीय परिवर्तनों में उलझ गये। सोवियत संघ तो विघटित ही हो गया।
  2. सोवियत संघ के विघटित होने के बाद रूस इसका उत्तराधिकारी तो बना परन्तु अपनी आंतरिक परिस्थितियों, भूतपूर्व सोवियत गणराज्यों के साथ सम्बन्धों की समस्याएं तथा स्वतन्त्र राज्यों (जो पहले भूतपूर्व सोवियत संघ के भाग थे) के राष्ट्रकुल सदस्यों के मध्य विद्यमान विरोध के कारण, यह राज्य अथवा अन्य कोई भी देश अकेले ही अथवा 11 देश मिलकर भी भूतपूर्व सोवियत संघ के समान विश्व राजनीति में भूमिका नहीं निभा सके। अतः सोवियत संघ तथा साम्यवादी गुट के विघटन के बाद विश्व रंगमंच पर अमरीका ही एकल महाशक्ति बन गया।
  3. चीन, वियतनाम तथा क्यूबा साम्यवाद देश बने रहे परन्तु वे भी उदारवादी परिवर्तनों की ओर अग्रसर हुए। वे किसी भी तरह विश्व में साम्यवादी गुट को पुनर्जीवित करने के न तो इच्छुक रहे और न ही सक्षम।
  4. जापान तथा जर्मनी दोनों आर्थिक शक्तियां ही रही, सैनिक शक्तियाँ नहीं। जर्मनी एकीकरण के बाद, अपने आंतरिक सामाजिक-आर्थिक पुनर्निमाण की समस्या में उलझ गया। जापान ने अमरीकी दबाव को दूर कर पाने में अपने आप को सक्षम नहीं पाया।
  5. गुटनिरपेक्ष राज्य अपने-अपने आर्थिक विकास की समस्याओं में उलझे रहे। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन परिवर्तित विश्व परिस्थिति के अनुसार अपने आप को पूरी तरह से ढाल नहीं सका। आंतरिक मतभेदों तथा शिथिलता के कारण इसकी सक्रियता में कमी आई। नये वातावरण के अनुरूप नयी दिशाओं को निर्धारित करने की समस्या ने गुट-निरपेक्ष आन्दोलन को शिथिल बनाए रखा।
  6. संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में कोई भी स्थायी सदस्य राज्य अमरीका का विरोध करने के लिए पूर्णतया तैयार नहीं था। अस्थायी सदस्य तो निर्णय-निर्माण कर केवल सीमित प्रभाव ही डाल सकते थे।
  7. वार्सा पैक्ट की समाप्ति के बाद भी संयुक्त राज्य अमेरिका ने नाटो को बनाये रखा तथा इसने नाटो का विस्तार भी किया। इससे नाटो को यूरोप में अपना प्रभाव बढ़ाने का एक उपकरण बनाया।
  8. खाड़ी युद्ध में सफलता, सोवियत संघ तथा साम्यवादी गुट के विघटन तथा विश्व के अन्य शक्ति-केन्द्रों की कमजोर स्थितियों के कारण विश्व शक्ति संरचना में संयुक्त राज्य अमरीका का वर्चस्व स्थापित होग या।
  9. विचारधारा के सन्दर्भ में भी विश्व एक ही विचारधारा-उदारवादी-लोकतन्त्रीय विचारधारा के पक्ष में झुक गया। साम्यवाद की विचारधारा को काफी व्यापक तथा गहरी हानि पहुंची। समाजवाद की विचारधारा भी अब उदारवाद तथा पूंजीवाद के पक्ष में ही कार्य करने लगी।
  10. अमरीकी एक महाशक्ति के रूप में विश्व राजनीति में अपना प्रभुत्व जमाने लगा। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् में निर्णय-निर्माण पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया। ईराक तथा लीबिया के सम्बन्ध में सुरक्षा परिषद् के निर्णय इसके प्रतीक बने। इसने ईराक पर बार-बार हवाई हमले करने जारी रखे। इसने रूस पर दबाव डाल कर उसे भारत को क्रायोजेनिक इंजन तकनीक का हस्तांतरण न करने के लिए मजबूर कर दिया। विश्व शक्ति संरचना एकल-ध्रुवीय ही बनी रही तथा इसकी चोटी पर संयुक्त राज्य अमरीका विद्यमान रहा। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय उच्च पुलिस अधिकारी के रूप में कार्य करने लगा। जापान, जर्मनी, रूस, चीन, फ्रांस, यूरोपीय संघ, ‘नाम’ तथा संयुक्त राष्ट्र संघ इसकी शक्ति पर अंकुश लगाने में अपने आप को असमर्थ ही पाते रहे।
  11. शीत-युद्धोतर काल में विरोध-सुलझाव के क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका में वृद्धि हुई। यह विश्व के कई भागों में शांति स्थापना के लिए सक्रिय कार्य करने लगा तथापि इसकी सुरक्षा परिषद् में निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया पर अमरीकी प्रभुत्व स्पष्ट दिखाई दिया।
  12. बोसनिया, लीबिया, सोमालिया आदि के विषय पर सुरक्षा परिषद् के निर्णय अमरीकी इच्छाओं के अनुसार हए। लीबिया तथा ईराक पर प्रतिबन्धों की अवधि को बढ़ाए जाने से भी ऐसा स्पष्ट दिखाई दिया।
  13. विश्व राजनीति के बदलते हुए स्वरूप में अमरीका विश्व स्तर पर अपना अन्तर्राष्ट्रीय प्रभुत्व स्थापित करने का यत्न करता रहा। मानव अधिकारों, परमाणु अप्रसार सन्धि (NPT) तथा CTBT के समर्थन के आधार पर अमरीका ने यह चाहा कि अधिक से अधिक देश उसके प्रभाव क्षेत्र में आ जायें।
  14. पश्चिमी एशिया के सम्बन्ध में अरब-इसराईल वार्ता को बढ़ावा देकर तथा बाद में इसराईल पी० एल० ओ० शान्ति समझौते को वाशिंगटन में हस्ताक्षरबद्ध करवा कर, सोमालिया में अपने हितों की रक्षा करके, उत्तर-अटलांटिक प्राथमिकता व्यापार समझौते (NAPTA) तथा मध्य एशिया-प्रशांत देशों के साथ (APTA) व्यापार समझौते के द्वारा अमरीका का यह भरसक प्रयत्न रहा कि विश्व व्यवस्था पर उसका वर्चस्व रहे तथा उत्तर-सोवियत व्यवस्था में वह अन्य देशों से लगातार आगे की स्थिति बनाये रखें।
  15. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद जैसी साझी समस्या के सम्बन्ध में भी अमरीका विश्व को अपनी सोच तथा नीतियों का रंग देने का प्रयास करता रहा। अगस्त, 1998 में इसने सूडान तथा अफगानिस्तान पर कुछ मिसाइल दागे तथा इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई का नाम दिया।

अतः इन सभी घटनाओं एवं परिस्थितियों के कारण विश्व संचना अब एकल-ध्रुवीय संरचना ही बन गई। जैसे द्वि-ध्रुवीकरण का स्थान बहुकेन्द्रवाद ने लिया था वैसे ही 1991 के बाद बहुकेन्द्रवाद एकल-ध्रुवीकरण में परिवर्तित हो गया। शीत-युद्धोत्तर विश्व शक्ति संरचना में तथा विचारधारात्मक स्वरूप में एकल-ध्रुवीय विश्व बन गया तथा इसमें संयुक्त राज्य अमरीका का प्रभुत्व बना रहा। वास्तव में बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक का अत्यन्त विशाल परिवर्तन विश्व राजनीति में अमरीकी प्रभुत्व के विस्तार के रूप में हुआ। अमरीका अपने आप में एक विश्व नेता अथवा विश्व पुलिसमैन बन गया। Pan Americanism तथा एकल ध्रुवीय विश्व एक समकोण बन गये।

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