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मार्टन कैपलान के अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के छः मॉडल

मार्टन कैपलान के अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का सिद्धांत

(Morton Kaplan’s Six Models of International System)

मार्टन कैपलान ‘व्यवस्थावादी दृष्टिकोण‘ के मुख्य व्याख्याता हैं। वे कहते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था की धारणा, इसके सारे घटनाक्रम के अन्वेषण के उपकरण के रूप में, सबसे अच्छे अध्ययन के अवसर प्रदान करती है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था बहुत कुछ सम्मिलित करके बनती है, यह उन अन्तक्रियाओं से बनती है जो न तो पूरी तरह सहकारी होती है तथा न ही पूरी तरह विरोधात्मक। इसका अपना तथा अन्तर्राष्ट्रीय एवं पार-राष्ट्रीय उप-व्यवस्थाओं तथा कार्यकर्ताओं का समूह होता है। यह सभी कार्यकर्ताओं की अन्तक्रियाओं से मिलकर बनती है।

प्रत्येक अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ता की आन्तरिक व्यवस्था, अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था की प्राचल होती है। इस तरह अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण में अन्तक्रियाओं का विनिमय लगातार होता रहता है। मार्टन कैपलान ने जो ‘व्यवस्था दृष्टिकोण’ दिया है उसके अनुसार यह परीक्षण करना होता है कि “जब अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं की व्यवस्था के अन्दर परिवर्तन होते हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं के व्यवहार में क्या परिवर्तन होते हैं।” कैपलान इस व्यवस्था के पाँच तत्वों को विशिष्ट मानते हैं :

  1. व्यवस्था के आवश्यक नियम (Essential Rules of the System)
  2. नियमों का रूपान्तरण (Transformation of Rules)
  3. कार्यकर्तओं का वर्गीकरण करने वाले तत्व (Actors Classificatory Variables)
  4. सामर्थ्य तत्व (The Capability Variables)
  5. सूचना तत्व (Information Variables)

इस तरह के धारणात्मक ढाँचे के आधार पर मार्टन कैपलान ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के छ: मॉडल दिए हैं। ये मॉडल हमारा प्राथमिक ध्यान खींचते हैं क्योंकि यही मॉडल मिलकर सबसे पुराने, सबसे व्यापक तथा सबसे लोकप्रिय व्यवस्था संरचना हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के यह बृहत मॉडल (Macro models) भी हैं तथा अन्वेषण करने वाले उपकरण भी हैं। ये छ: मॉडल निम्नलिखित हैं :

  1. शक्ति-सन्तुलन व्यवस्था (The Balance of Power System)
  2. शिथिल द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था (The Loose Bi-polar System)
  3. कठोर द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था (The Tight Bi- Polar System)
  4. सार्वभौम व्यवस्था (The Universal System)
  5. श्रेणीबद्ध व्यवस्था (The Hierarchical System)
  6. इकाई निषोधाधिकार व्यवस्था (The Unit Veto System)

पहले तीन मॉडल तो ऐतिहासिक हैं जबकि बाकी तीन परिकाल्पनिक प्रक्षेप हैं।

  1. शक्तिसन्तुलन व्यवस्था:

    यह प्रतिमान 18 वीं तथा 19वीं शताब्दी के यूरोप में प्रचलित शक्ति सन्तुलन की ओर इशारा करता है। यह एक लोकप्रिय प्रतिमान है। इसमें पाँच या छः बड़ी-बड़ी शक्तियों के बीच शक्ति सम्बन्धों से एक सन्तुलन कायम होता है तथा व्यवस्था में काई भी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन नहीं होता। इस मॉडल के छः मूल नियम अनलिखित हैं:

  1. प्रत्येक राष्ट्र समझौतों के माध्यम से अपनी क्षमताओं में वृद्धि करता है, युद्ध के माध्यम से नहीं।
  2. प्रत्येक राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करने की क्षमताओं की वृद्धि करने के लिए अवसरों को गवाता नहीं बल्कि इनसे संघर्ष करता है।
  3. व्यवस्था से किसी भी कार्यकर्ता को निकाला नहीं जाता। विरोधी के समाप्त होने से पहले ही कार्यकर्ता युद्ध रोक देते है।
  4. एक कार्यकर्ता या कार्यकर्ताओं का समूह किसी ऐसे दूसरे समूह का या एक कार्यकर्ताओं का विरोध करता है जो बाकी की व्यवस्था में प्रभुत्व या आधिपत्य की स्थिति ग्रहण कर लेता है अथवा ऐसा करने का प्रयत्न करता है।
  5. किसी भी कार्यकर्ता को राष्ट्रोपरि संगठन के सिद्धान्तों पर चलने से रोकने के प्रयत्न किए जाते हैं।
  6. किसी भी हारे हुए या कमजोर किए गए कार्यकर्ता को व्यवस्था में पुनः शामिल करना होता है। कार्यकर्ता किसी भी पहले अनावश्यक कार्यकर्ता को मुख्य कार्यकर्ताओं के वर्ण में लोते हैं तभा सभी मुख्य कार्यकर्ताओं को मुख्य भूमिका भागीदारों के रूप में स्वीकार करते हैं।

ये छः नियम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में ‘सन्तुलन को बनाए रखते हैं। इन नियमों को बनाए रखने में असफलता का अर्थ सन्तुलन अव्यवस्था तथा अन्त में सन्तुलन की समाप्ति होती है। ‘सन्तुलन की समाप्ति का अर्थ व्यवस्था की समाप्ति होता है। 20वीं शताब्दी के प्राथमिक वर्षों में इन नियमों का पालन नहीं किया गया था जिसके परिणामस्वरूप ‘शक्ति-सन्तुलन व्यवस्था की सक्रियता समाप्त हो गई तथा 1914 में पहला महायुद्ध शुरू हो गया था।

  1. शिथिल द्विधुवीय अवस्था:

    शक्ति-सन्तुलन व्यवस्था की सफलता द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था को जन्म देती है। इसकी अभिव्यक्ति के दो तरीके हैं- शिथिल द्वि-ध्रुवीय तथा कठोर द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था। शिथिल द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था वह है जब दो शक्तिशाली राष्ट्र बाकी के राष्ट्रों को अपने-अपने गुट में संगठित करने में सफल हो जाते हैं। यद्यपि गुटों का संगठन शिथिल होता है तथा दोनों गुटों के सदस्यों के मध्य आन्तरिक मतभेद विद्यमान रहते हैं और भी कई राष्ट्रोपरि तथा क्षेत्रीय कार्यकर्ता विद्यमान होते हैं। दूसरे शब्दों में, शिथिल द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था दो बड़े गुट राष्ट्रों, असदस्यीय गुट राष्ट्रों (जैसे गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों का समूह) तथा सार्वभौम कार्यकर्ता जैसे संयुक्त राष्ट्र संगठन (N.O.) से बनती है। यह युद्धोत्तर काल की शिथिल द्वि-ध्रुवीय शीत-युद्ध के मॉडल की तरह होती है। यहाँ गुट अपनी-अपनी क्षमताओं में वृद्धि करने के लिए सार्वभौम कार्यकर्ता का समर्थन करते हैं तथा गुटों के मध्य युद्ध के खतरे को समाप्त करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। गुट अपनी-अपनी सदस्यता को बढ़ाने के प्रयत्न तो करते हैं साथ-साथ गुट-निरपेक्ष कार्यकर्ताओं के प्रतिष्ठा स्तर को भी सहन करने की ओर प्रवृत्त होते हैं।

  2. कठोर द्विधुवीय व्यवस्था:

    शिथित द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था बड़ी आसानी से कठोर द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है यह द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था ही है कि जिसमें दो महाशक्तियाँ अपने गुटों के साथ जुड़ी शक्तियों का नेतृत्व करती हैं। हर गुट का एक महा-शक्ति नेतृत्व करती हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संगठन बहुत कमजोर होता है तथा तटस्थ गुट या राष्ट्र भी सक्रिय नहीं रहते।

  3. सार्वभौम व्यवस्था:

    चौथा मॉडल सार्वभौम व्यवस्था मॉडल है जिसमें सभी राष्ट्र एक संघात्मक प्रणाली में संगठित हो जाते हैं। एक सार्वभौम कार्यकर्ता, अन्तर्राष्ट्रीय संगठन द्वारा सारा विश्व एक संघात्मक विश्व राज्य में बदल जाता है जो परस्पर सहनशीलता तथा सार्वभौम कानून तथा उसकी कार्य-प्रणाली पर आधारित हो जाता है। सार्वभौम कार्यकर्ता इतना शक्तिशाली होता है कि वह युद्ध रोक सकता है तथा शान्ति और सन्तुलन बनाए रख सकता है।

  4. श्रेणीबद्ध व्यवस्था:

    ऐस मॉडल तभी अस्तित्व में आ सकता है जब एक बड़ी महाशक्ति विजय अथवा सन्धि द्वारा सभी राष्ट्रों को अपने नियन्त्रण में कर लेती है। राज्य प्रादेशिक इकाइयों में बदल कर क्रियात्मक इकाइयों में बदल जाते हैं। महा-शक्ति सार्वभौम हो जाती है तथा अपने में सभी दूसरे राज्यों को समा लेती है। अगर जीत द्वारा इस तरह की व्यवस्था अस्तित्व में आ जाए तो यह एक निर्देशात्मक व्यवस्था होती है परन्तु अगर यही बात लोकतान्त्रिक तरीके से अस्तित्व में आए तो यह गैर-निर्देशात्मक इकाई बन जाती है।

  5. इकाई निषेधाधिकार व्यवस्था:

    यह कैपलान द्वारा दिया गया छठा प्रतिमान है। इसमें बहुध्रुवीय धारणा भी शामिल रहती है जिसमें सभी राज्य अत्यन्त शक्तिशाली होते हैं। हर एक राष्ट्र के पास ऐसे शस्त्र-परमाणु शस्त्र होते हैं जिसे वह दूसरे राज्य का विनाश करने के लिए प्रयोग कर सकता है। यह अवस्था स्थिर हो जाती है अगर प्रत्येक राज्य दूसरे राज्य की धमकियों का प्रतिकार करे तथ उनका विरोध करे।

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, पहले तीन प्रतिमान ऐतिहासिक हैं तथा बाकी के तीन परिकल्पित हैं।

इन छ: मॉडलों के साथ कैपलान ने कुछ अतिरिक्त ‘मिश्रित अनुभवसिद्ध मॉडल’ भी दिए हैं जैसे कि अतिशिथिल द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था, दीतां व्यवस्था, अस्थिर ब्लॉक व्यवस्था तथा अपूर्ण परमाणु प्रसार व्यवस्था। उसने अपने छः मॉडलों को सिद्धान्त रेखाचित्र बतलाया जिनका उद्देश्य सिद्धान्त का विकास करने वाले मॉडलों की तरह कार्य करना है।

मार्टन कैपलान के छः मॉडलों की आलोचना

(Criticism of Morton Kaplan’s Six Models)

  1. मार्टन कैपलान के मॉडल सीमित हैं:

    आलोचक मार्टन कैपलान के इस विचार को अस्वीकार करते हैं, ये प्रतिमान अभी आरम्भिक तथा सीमित हैं। सभी छ: प्रतिमान अपने आप में सीमित हैं। शक्ति सन्तुलन व्यवस्था 1945 के बाद अव्यावहारिक हो गई। उसकी यह भविष्यवाणी गलत सिद्ध हो गई कि शक्ति सन्तुलन पहले शिथिल द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था और फिर कठोर द्वि-ध्रुवीय व्यवस्था में बदलता है। 1945 के बाद के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का विकास इस बात का द्योतक है कि जो कुछ उसने कहा था उसका विपरीत सच हुआ। पचासवें दशक के पहले वर्षों में कठोर द्वि-ध्रुवीकरण का आविर्भाव हुआ तथा बाद में यही शिथिल द्वि-ध्रुवीकरण में और फिर बहु-केन्द्रवाद में बदल गया। आजकल यह एक ध्रुवी मॉडल ही बना हुआ।

  2. कैपलान के तीन परिकालनिक मॉडलों की अव्यावहारिकता:

    कैपलान द्वारा प्रस्तुत चार पूर्व काल्पनिक प्रतिमान पूर्णतया अव्यावहारिक प्रतीत होते हैं। कैपलान द्वारा कल्पना किया गया कठोर द्वि-ध्रुवीयकरण प्रतिमान की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने की सम्भावना कम ही है। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था का वास्तव में प्रभावशाली तथा शक्तिशाली सार्वभौमिक कार्यकर्ता बनने की सम्भावना नहीं है। एक अकेले राष्ट्र द्वारा सारे विश्व पर शासन करने की स्थिति न तो कभी हुई है और न ही भविष्य में हो सकती है। यह प्रतिमान किसी एक राष्ट्र के पूर्ण साम्राज्यवादी होने का गलत विचार प्रकट करता है। इकाई निषेधाधिकार व्यवस्था की सिर्फ पूर्व कल्पना की जा सकती है पर यह कभी भी सम्भव तथा व्यावहारिक नहीं हो सकता। इस तरह मार्टन कैपलान के सभी छः प्रतिमानों की गम्भीर तथा बड़ी सीमाएं हैं। हैडले बुल ने कहा है कि, “यह मॉडल केवल बौद्धिक अभ्यास है और कुछ नहीं।

  3. कैपलान ने भूराजनीतिक तत्वों की उपेक्षा की है:

    कैपलान के प्रतिमान आर्थिक तकनीकी व्यक्तित्व तथा भू-राजनीतिक तथा राजनीतिक तत्वों की भूमिका की उपेक्षा करते हैं।

  4. कैपलान के मॉडल राष्ट्रीय और उपराष्ट्रीय तत्वों के अध्ययन की उपेक्षा करते हैं:

    अर्नस्ट हासने अपनी रचना ‘Beyond the Nation State’ तथा स्टानले हॉफमैन ने पुस्तक ‘The Long Road to Theory’ में कैपलान पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में राष्ट्रीय तथा उपराष्ट्रीय कारणों की उपेक्षा करने का दोष लगाया है।

  5. मार्टन कैपलान का विश्लेषण अति साधारण भी है:

    मार्टन कैपलान ने प्रतिमानों का विश्लेषण तथा उनकी पहचान के लिए पांच मुख्य तत्वों का वर्णन किया है परन्तु इन तत्वों में प्राथमिकताओं का विशेष रूप से उल्लेख करने में वह असफल रहा है। मैक्कालीलैंड ने लिखा है कि, “मॉडल इतने साधारण स्तर पर बने हैं कि वास्तविकताओं को क्रम देने में सहायक सिद्ध नहीं सकते।

  6. स्वेच्छाचारी वर्गीकरण:

    अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को छः प्रतिमानों में वर्गीकृत करना.मार्टन कैपलान की स्वेच्छाचारिता ही है। इनकी संख्या को घटाया बढ़ाया भी जा सकता है।

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