भारत शासन अधिनियम 1919 की स्थापना, उद्देश्य एवं कार्य
मांटेग्यू योजना भारतीयों के लिए वस्तुतः झगड़े की जड़ सिद्ध हुई। पर्याप्त कोशिश और बलिदान के बाद भारत में जो एकता स्थापित हुई थी, वह तुरंत नष्ट हो गई। दस वर्ष के बाद राष्ट्रवादी और उग्रवादी पुनः एक हो गए थे, परन्तु इस योजना ने उन्हें एक बार फिर विभाजित कर दिया। जो सांप्रदायिक संस्थाएँ पहले तक कार्य रह रही थी, उन्हें इस योजना से और बल मिला। इनका उद्देश्य प्रस्तावित सुधारों में अपने वर्ग अथवा समुदाय के लिए विशेषाधिकार प्राप्त करना था। इस योजना से उग्रवादियों के बीच जो विरोध हुआ उससे देश के राष्ट्रीय आंदोलन में असहयोग का प्रवेश हुआ। फलस्वच्प देश के राजनीतिक वातावरण में तनाव पैदा हुआ।
अगस्त घोषणा के बाद मांटेग्यू के साथ एक दल राजनीतिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए भारत आया। इसके अध्ययन के आधार पर जुलाई 1918 में ‘मांटेग्यू-चैम्सफोर्ड रिपोर्ट’ प्रकाशित की गई। यही रिपोर्ट 1919 के भारतीय शासन के अधिनियम का आधार बनी। इसी के आधार पर ब्रिटिश संसद ने 1919 में भारत के औपनिवेशक प्रशासन के लिए नया शासन विधान बनाया जो 1921 में कार्यान्वित किया गया।
1919 का भारतीय शासन अधिनियम हमारे सांविधानिक विकास में एक नए दौर के आरंभ का सूचक था जिसकी विशेषता थी उत्तरदायी शासन की प्रगति। इस अधिनियम की प्रस्तावना में 20 अगस्त, 1917 की घोषणा के मूल सिद्धान्तों का समावेश था। प्रस्तावना में निम्नलिखित बाते स्पष्ट कर दी गई थीं :-
- प्रशासन में भारतीयों का संपर्क बढ़ाया जाएगा।
- भारत ब्रिटिश साम्राज्य का अभिन्न अंग बना रहेगा।
- स्वशासन की संस्थाओं का विकास किया जाएगा।
- भारत में ब्रिटिश-नीति का लक्ष्य उत्तरदायी शासन की स्थापना होगा।
- उत्तरादायी शासन और स्वशासन की संस्थाओं की स्थापना का काम धीरे-धीरे और क्रमिक ढंग से होगा।
1919 का भारतीय शासन अधिनियम : गृह सरकार
1919 के सुधार अधिनियम का उद्देश्य भारतीय मामलों में गृह सरकार के नियंत्रण को शिथिल करना था। शासन का दो भागों में विभाजन भारत के ब्रिटिश शासन पद्धति की मुख्य विशेषता थी। इसका एक भाग इंग्लैंड में कार्य करता था और दूसरा भारत में। शासन का जो भाग इंग्लैंड में कार्य करता था ‘गृह सरकार’ कहलाता था। गृह सरकार में भारत-मंत्री का पद सबसे महत्वपूर्ण था। भारत के विधायी, प्रशासकीय तथा आर्थिक मामलों पर भारत-मंत्री का पूर्ण नियंत्रण था। उसकी सहायता प्रदान करने के लिए एक परिषद् थी। भारत-मंत्री भारत के शासन-संबंधी मामलों के लिए ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था।
इस अधिनियम के द्वारा भारत सचिव की शक्तियों पर कुछ अंकुश लगाया गया। 1907 के कानून में इसकी सदस्य-संख्या कम-से-कम 10 तथा अधिक-से-अधिक 15 नियत की गई थी। 1919 में यह संख्या घटा दी गई। अब यह संस्था कम से कम 8 तथा अधिक से अधिक 12 नियत की गई। इनके वेतन में वृद्धि की गई। भारतीय सदस्यों की संख्या दो से बढ़ाकर तीन कर दी गई। सदस्यों के संबंध में यह भी परिवर्तन किया गया कि कम से कम आधे सदस्य ऐसे होंगे जिन्होंने भारत में कम से कम 10 वर्ष तक सेवा की हो। उनकी शक्तियों को बढ़ा दिया गया। अब सभी प्रकार के विषय परिषद् के सम्मुख रखे जाने लगे। कार्यकाल 7 वर्ष से घटाकर पाँच वर्ष कर दिया गया।
इस अधिनियम के अंतर्गत इंग्लैण्ड में भारत के लिए एक हाई कमीशन (उच्च आयुक्त) की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। इस पदाधिकारी की नियुक्ति (जिसमें उसकी परिषद् भी शामिल थी) गवर्नर जनरल के हाथ में थी, परन्तु इसे स्वीकृति प्रदान करना भारत सचिव का कार्य था। जहाँ तक भारत सरकार तथा गृह सरकार का प्रश्न था गृह सरकार की सर्वोच्चता थी यह गृह सरकार से सम्बन्धित जो परिवर्तन भारतीय परिषद् में हुए, भी केवल सैद्धान्तिक ही थे। इस प्रकार परिषद् एक कमजोर संस्था बनकर रह गई। यह केवल परामर्शदात्री संस्था थी जिसे किसी प्रकार की पहल करने का अधिकार नहीं था। दूसरे, चूँकि कौंसिल के सदस्य प्रायः अवकाश प्राप्त लोक सेवक होते थे, इसलिए इसका रुख अनदार तथा प्रतिक्रियावादी होता था। अंत में 1919 तक इस परिषद् के खर्च का भार भारतीय राजस्व पर था जो भारत के हानिकारक तथा अपमानजनक था। 1919 के अधिनियम द्वारा इस त्रुटि को दूर कर दिया गया। इस अधिनियम के द्वारा सुधार हेतु हाई कमीशन के पद की रचना की गई परन्तु इसकी नियुक्ति की विधि से भारतीयों को संतोष नहीं हुआ। चूंकि परिषद्-सहित इसकी नियुक्ति गवर्नर जनरल द्वारा होती थी, इसलिए ख़रीद-बिक्री के संबंध में भारतीय हितों की अपेक्षा ब्रिटिश हितों की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देता था।
केन्द्रीय स्तर पर कार्यपालिका सरकार गवर्नर जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् से मिलकर बनती थी। 1919 के अधिनियम ने कार्यपालिका सरकार के विषय में बहुत कम तथा महत्वहीन परिवर्तन किए। कार्यकारिणी परिषद् में आवश्यकतानुसार एवं समयानुसार विस्तार किया जा सकता था। व्यावहारिक तौर पर गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में छह सामान्य सदस्य थे जिनमें से तीन भारती थे। परन्तु ये सदस्य केन्द्रीय विधान सभा के प्रति उत्तरदायी नहीं थे, बल्कि वे गवर्नर जनरल तथा भारत सचिव के प्रति उत्तरदायी थे। गवर्नर जनरल को व्यापक शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिसके कारण यह कार्यकारिणी परिषद् कभी उनके विरुद्ध एक नहीं हो सकती थी। सत्य तो यह है कि 1919 के अधिनियम के अंतर्गत केन्द्रीय सरकार का रूप भारत के स्वंतत्र होने तक केवल मामूली परिवर्तनों के साथ वैसा ही लागू रहा।
इस अधिनियम के अंतर्गत केन्द्रीय विधान सभा में भारतीयों के प्रतिनिधित्व में पहले की अपेक्ष वृद्धि की गई। सबसे उल्लेखनयी बात यह है कि केन्द्र में प्रथम बार द्विसंसदीय व्यवस्थापिका स्थापित की गई। ये सदन ‘विधान-सभा’ तथा ‘राज्य सभा’ कहलाए। राज्य सभा, जो कि द्वितीय सदन थी; पहली बाद इस अधिनियम के द्वारा स्थापित की गई। इसके सदस्यों की संख्या अधीक से अधिक 60 निर्धारित की गई इनमें से 34 सदस्य निर्वाचित तथा 26 मनोनीत किए जाते थे। मनोनीत सदस्यों में से 20 सदस्य सरकारी तथा 6 गैर-सरकारी होते थे। 34 निर्वाचित सदस्यों में से 19 सामान्य चुनाव क्षेत्रों से तथा शेष सांप्रदायिक तथा विशेष चुनाव क्षेत्रों से निर्वाचित करने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार 11 मुस्लिम, 1 सिक्ख तथा 3 यूरोपीय वाणिज्यहितों का प्रतिनिधित्व करते थे। इस सदन का कार्यवधि 5 वर्ष निश्चित की गई। यद्यपि सदस्य के चुनाव के लिए प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति अपनाई गई, किंतु मताधिकार केवल सीमित मात्रा में उच्च संपत्ति के अधिकारियों को ही दिया गया, अर्थात् जो लोग 10,000 से 20,000 रुपए वार्षिक आय पर चुकाते थे अथवा 750 से 5,000 तक भूमि-कर चुकाते थे। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्यों को, म्यूनिसिपल कमेटियों और जिला बोर्ड के प्रधानों अथवा उपप्रधानों को और विशेष प्रकार की उपाधियों से विभूषित व्यक्तियों के मताधिकार प्रदान किया गया। मताधिकार की ये शर्ते इतनी कड़ी थीं कि 1925 में भारत में 1,500 व्यक्ति ही राज्य सभा के चुनाव के लिए मतदान कर सके। स्त्रियों को इस अधिकार से वंचित रहा गया।
निम्न सदन यानी विधान सभा के सदस्यों की संख्या 145 नियत की गई। इनमें 26 सरकारी, 14 मनोनीत गैर-सरकारी तथा 105 निर्वाचित सदस्य सम्मिलित थे। निर्वाचित सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है : सामान्य 5 3, मुसलमान 30, सिक्ख 2, यूरोपीय 9, भूमिपति 7 तथा भारतीय वाणिज्य-हितों के प्रतिनिधि 4। विशेष चुनाव क्षेत्र में जमींदार सदस्य चुना करते थे। प्रांतों में स्थापनों का विभाजन जनसंख्या के आधार पर नहीं अपितु महत्व के अनुसार किया जाता था। व्यापारिक एवं व्यावसायिक महत्व के कारण बंबई को मद्रास के समान ही प्रतिनिधित्व प्राप्त था यद्यपि बंबई की जनसंख्या मद्रास की जनंसख्या से आधी थी। सैनिक महत्व के आधार पंजाब को बिहार व उड़ीसा के समान प्रतिनिधित्व प्राप्त था, यद्यपि पंजाब की जनसंख्या इन प्रांतों से कम थी। इस सदन की कार्य अवधि 3 वर्ष निश्चित की गई। चुनाव के लिए प्रत्यक्ष प्रणाली अपनाई गईं मतदान की शर्ते इस प्रकार थी। 2,000 से 5,000 रुपया वार्षिक आय पर कर चुकाने वाले को मताधिकार दिया गया। यह शर्त प्रत्येक प्रांत में भिन्न थी। 50 रुपए से 150 रुपए तक भूमि-कर चुकाने वालों को मताधिकार दिया गया। यह शर्त भी प्रांतों में भिन्न-भिन्न प्रकार से लागू थी। ऐसे किराएदारों को मताधिकार प्राप्त था जो मकान का वार्षिक किराया 180 रु. चुकाते थे। इस अधिनियम की महत्वपूर्ण बात यह थी कि इसमें मुसलमानों को पृथक् प्रतिनिधित्व दिया गया था।
विधान मंडल के अधिकार एवं कर्तव्य
विधि निर्माण के दृष्टिकोण से भारतीय विधानमंडल का निम्नलिखित अधिकार क्षेत्र था :-
- ब्रिटिश भारत के भीतर सभी व्यक्तियों, न्यायालयों, स्थानों एवं वस्तुओं के विषय में;
- भारत के शेष भागों में ब्रिटिश सम्राट के सभी प्रजाजनों तथा ताज के कर्मचारियों के प्रति;
- ब्रिटिश भारत के बाहर के भीतर के भी सभी मूल भारतीय प्रजाजनों के लिए;
- रायल इंडियन मैरीन सर्विस में नियुक्त व सेवारत अथवा उससे संबंधित सभी व्यक्तियों के लिए,
- ब्रिटिश भारत में उस समय तक प्रचलित किसी भी विधि को समाप्त करने या उसमें परिवर्तन करने के लिए विधि निर्माण कर सकता है।
1919 से पहले परिषद् से गवर्नर जनरल की विधि निर्माण सत्ता पर जो प्रतिबंध थे, वे भारतीय विधान मंडल पर पुनः लगा दिए गए। ब्रिटिश संसद के अधिनियम द्वारा अधिकार मिले बिना भारतीय विधान मंडल ऐसी कोई विधि नहीं बना सकता था, जिससे निम्नलिखित का निरसन होता हो अथवा उनमें से कोई भी प्रभावित होता हो : (क) 1860 के पश्चात् संसद द्वारा पारित कोई भी अधिनियम (सैन्य अधिनियम भी) जो ब्रिटिश भारत पर लागू किया गया हो, अथवा (ख) संसद का कोई अधिनियम जिसके द्वारा तत्कालीन राज्य सचिव को इंग्लैंड में भारत सरकार के लिए धन इकट्ठा करने की अनुमति दी गई हो।
दोनों सदनों की शक्तियों पर भी अंकुश लगाए गए। कोई भी विधेयक तब तक अधिनियम का रूप धारण नहीं कर सकता था जब तक कि दोनों सदन इसे पास न कर दें और गवर्नर जनरल की स्वीकृति प्राप्त न हो जाए। प्रांतीय विषयों पर विचार करने के लिए भी गवर्नर जनरल की पूर्वानुमति आवश्यक थी। केन्द्रीय विधा सभा 1919 के अधिनियम में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती थी, भारतीयों के लिए कोई विधान जारी नहीं कर सकती थी। गवर्नर जनरल इन कानूनों को रद्द कर सकता था, किसी भी कानून को पुनर्विचार के लिए विधान-सभा के पास वापस भेज सकता था अथवा ब्रिटिश सम्राट (सम्राज्ञी) के विचार के लिए रख सकता था। यदि कोई कानून दोनों सदनों द्वारा पास नहीं हो पाता। तो गवर्नर जनरल अपनी अनुमति इस आधार पर प्रदान कर सकता था। 1921 से 1938 के दौरान इस महान एवं विस्तृत शक्ति के तहत तीन महत्वपूर्ण कानूनों को अपनी अनुमति प्रदान करके पास करवाया गया। केन्द्रीय विधान मंडल की शक्तियों पर अंकुश लगाने के लिए इसे अध्यादेश जारी करने के अधिकार भी प्राप्त थे। आर्थिक क्षेत्र में भी विधान सभा की शक्तियाँ अत्यंत संकुचित थी। कर-वृद्धि के विषय में जितने भी प्रस्ताव अथवा बिल होते थे उनका विधान सभा में
प्रस्तुत किया जाना अनिवार्य था। इसे वित्तीय बिल कहा जात था। विधान सभा वित्तीय क्षेत्र में बहुत से विषयों पर कानून पास नहीं कर सकती थी। निम्न सदन को बजट के प्रत्येक विभाग की अनुदान माँग के विषय पर मतदान का अधिकार दिया गया था। परन्तु यह अधिकार केवल नाममात्र का ही था। 80 प्रतिशत बजट पर मतदान नहीं किया जा सकता था तथा शेष 20 प्रतिशत पर गर्वनर जनरल को किसी भी अनुदान की राशि के कटौती को पुनः स्थापित करने की शक्ति प्रदान की गई थी। किसी भी कटौती को गवर्नर जनरल इस आधार पर फिर से बढ़ा सकता था कि यह उसके विशेष उत्तरदायित्व के अधीन है।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि 1919 के अधिनियम के अतर्गत गवर्नर जनरल की विशेष शक्तियाँ कार्यपालिका एवं विधान सभा के क्षेत्रों में अत्यन्त व्यापक तथा शक्तिशाली थीं। वह न तो केन्द्रीय कार्यपालिका परिषद् के प्रति उत्तरदायी था और न ही उसकी परिषद् के सदस्य केन्द्रीय विधान सभा के समक्ष उत्तरदायी थे। दूसरे शब्दों में कार्यकारिणी तथा विधान सभा के बीच पहले के समान ही संघर्ष जारी रहे। परन्तु एक बात स्मरणीय है कि इस अधिनियम के अंतर्गत विधान सभा कार्यकारिणी सभा को पहले की अधिक प्रभावित कर सकती थी। सदस्य विभिन्न प्रश्नों तथा अतिरिक्त प्रश्नों अथवा प्रस्ताव पस करके कार्यकारिणी को प्रभावित कर सकते थे। यद्यपि प्रश्नों को स्वीकार अथवा अस्वीकार करने का अधिकार गनर जनरल को था तथापि इस संकुचित अधिकार का राजनीतिक मूल्य महत्वपूर्ण रहा। दोनों सदनों में राजनीतिक चर्चा जनता के आकर्षण की एक वस्तु बन गई। तत्कालीन जन-महत्व तथा विशेष प्रकृति के विषयों को प्रस्तुत करके सरकार का ध्यान जन-असंतोष के कारणों के प्रति केन्द्रित किया जाने लगा। सरकार कभी-कभी इन आलोचकों द्वारा की गई आलोचनाओं के प्रति जागरूक हो जाती थी।
1919 के अधिनियम द्वारा गर्वनर जनरल को इतने विशेषाधिकार प्रदान किए गए कि वह इंग्लैंड के प्रधानमंत्री अथवा अमरीका के राष्ट्रपति से भी अधिक व्यापक शक्तियों का प्रयोग कर सकता था। उसके संबंध में कहा जाता था, इंग्लैड का सम्राट राज्य करता है, पर शासन नहीं; अमरीका का राष्ट्रपति शासन करता है, राज्य नहीं, फ्रांस का राष्ट्रपति न राज कता है और न ही शासन; परन्तु भारत का गवर्नर जनरल राज भी करता है और शासन भी। यद्यपि उस ब्रिटिश संसद, भारत-मंत्री के माध्यम से, नियंत्रण रखती थी परन्तु रि भी उसका उतने विस्तृत अधिकार प्राप्त थे कि वह एक स्वेच्छाचारी शासक बन गया। उसका परामर्श देने के लिए एक कार्यकारिणी परिषद् थी परन्तु वह भी गवर्नर जनरल के हाथ में एक खिलौना मात्र थी। वह परिषद् के परामर्श को झुकरा कसता था। इस अधिनियम के अंतर्गत केन्द्रीय कार्यकारिणी में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए। शासन की समस्त शक्तियाँ गवर्नर जनरल और उसकी कार्यकारणी परिषद् में रही। कार्यकारिणी परिषद् की सदसय संख्या, पर कोई रोक नहीं यद्यपि 1919 के सुधारों के उपरान्त भी बहुत समय तक कार्यकारिणी परिषद् में गवर्नर जनरल और प्रधान सेनापति को छोड़कर छह ही सदस्य रहे। भारतीय सदस्यों की संख्या भी एक से बढ़ाकर तीन कर दी गई। इस विषय में 1919 के अधिनियम में कोई संकेत नहीं था। सदस्य संख्या भले ही बढ़ गई थी परन्तु जो विभाग भारतीयों को दएि गए थे वे बहुत ही कम महत्व के थे तथा ये सदस्य विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं थे। शासन की सारी ज़िम्मेदारी गवर्नर जनरल की थी।
इस अधिनियम के द्वारा प्रान्तों में द्वैध शासन की स्थापना की गयी। प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषद् को दो भागों में विभाजित किया गया। गवर्नर के सम्बन्ध दोनों भागों से अलग-अलग थे। भारत-सचेत तथा गवर्नर जनरल का प्रान्तीय सरकारों पर नियंत्रण पहले की अपेक्षा कुछ ढीला था। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने इस द्वैध शासन प्रणाली को एक प्रयोगात्कक तथा परितर्वनशील प्रणाली बलताया था।
महत्वपूर्ण लिंक
- मुस्लिम समाज का धर्म और सामाजिक सुधार आंदोलन
- सुधार आन्दोलन में जाति प्रथा और अछूतोद्धार / हरिजन आन्दोलन
- 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश नीति में परिवर्तन
- भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण
- भारतीय राजनीति में उदारवादी नीति (1885 से 1905 तक)
- उग्रवादी के उदय के प्रमुख कारण
- उदारवादी राष्ट्रीयता का मूल्यांकन
- कांग्रेस विभाजन (सूरत फूट) का संक्षिप्त वर्णन
- क्रान्तिकारी दल- स्थापना, प्रमुख कार्य एवं उनकी असफलता के कारण
- मार्ले मिन्टो सुधार अधिनियम- प्रमुख शर्तें एवं आलोचनात्मक विवरण
- 1857 की क्रांति- प्रारम्भ एवं विकास
- 1857 की क्रान्ति की असफलता के कारण
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