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भारत-जापान संबंध

भारत-जापान संबंध

1952 में भारत तथा जापान के बीच जब से शांति संधि हुई थी, जिसके द्वारा एशिया के इन दो देशों के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध कायम हुए थे, तभी से भारत तथा जापान के बीच सम्बन्ध धीरे-धीरे और एक निश्चित आकार धारण करने लगे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत ने जापान में मित्र राष्ट्रों की सेना (Allied Occupation Force) में से अपनी सैनिक टुकड़ियाँ वापस बुला लीं। 1951 में भारत ने जापान को दिल्ली में खेली जा रही प्रथम एशियाई खेलों में भाग लेने का निमंत्रण दिया। भारत ने अण्डमान में जापानियों द्वारा किये गये अत्याचारों का न तो प्रश्न उठाया और न ही जापान के साथ की गई शान्ति संधि में हर्जाने का दावा प्रस्तुत किया। जापान ने भारत के साथ शांति संधि पर एक पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न राज्य के रूप में हस्ताक्षर किए क्योंकि भारत ने कभी भी इसे पराजित देश नहीं माना था। इस संधि में घोषणा की गई कि भारत एवं जापान तथा इनके लोगों के बीच सदैव सुदृढ़ तथा चिरस्थायी शांति तथा मैत्री रहेगी।

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भारत-जापान सम्पर्क

भारत तथा जापान की मित्रता को अच्छा आधार देने के लिए दोनों देशों के बीच परम्परागत सांस्कृतिक तथा धार्मिक सम्बन्धों पर बल दिया गया। जापानी महात्मा गौतम बुद्ध की धरती को सम्मान से देखते हैं तथा बौद्ध धर्म से सम्बन्धित सभी पवित्र स्थलों तथा मंदिरों की देखभाल तथा मरम्मत आदि के लिए भारत की सहायता करने में गहरी रुचि रखते हैं। भारत तथा जापान के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों की 40वीं वर्षगांठ के अवसर पर अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के संस्थान टोक्यो में 23 जून, 1992 को बोलते हुए भारत के प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने दोनों देशों के बीच दृढ़ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा बौद्धिक सम्बन्धों पर बल दिया। उन्होंने कहा, “भारत तथा जापान के बीच के सम्बन्धों की एक शानदार विशेषता इसके लम्बे इतिहास के अतिरिक्त इसकी बौद्धिक गहराई है। भारत का जापान को पहले निर्यात शायद पवित्र हस्तलेख तथा दार्शनिक पुस्तकें थीं। हमारे आधुनिक समय के दार्शनिक टैगोर तथा तेनशिन ओकेकुरा उन पहले व्यक्तियों में से थे जो एक-दूसरे के देश तथा संस्कृति की तरफ आकर्षित हुए थे। एक शताब्दी से भी कम वर्ष पहले, टैगोर तथा तेनशिन ओकेकुरा ने जापान तथा भारत के बीच सद्भावना तथा समझ का पुल बांधा तथा यह घोषणा की थी कि एशिया एक है तथा इस एकता का सार आध्यात्मिक है।’ 76 साल पहले टोकियो के शहर में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ‘भारत तथा जापान का सन्देश’ सुनाया था। उन्होंने भारत तथा जापान के बीच समान रूप में विद्यमान प्राचीन काल से श्रद्धा, बिछड़े हुए लोगों के लिए तथा पारिवारिक रिश्तों के लिए सम्मान का हवाला दिया था। ‘मैत्री’ का आदर्श तथा मानव के साथ मानव तथा प्रकृति के बीच गहरा रिश्ता, जैसा कि टैगोर कहते हैं, हमारे दोनों देशों की संस्कृतियों का आधारभूत और महान् विचार रहा है।

“इस प्रकार जबकि 1992 का वर्ष भारत तथा जापान के बीच औपचारिक कूटनीतिक सम्बन्धों की 40वीं वर्षगांठ का वर्ष है, हमारे लोगों तथा हमारी संस्कृतियों के बीच सम्बन्ध प्राचीन काल से ही चले आ रहे हैं। एक हजार वर्ष से भी पहले हमारे देश के बौद्ध भिक्षु बोधिसेन जापान आए थे तथा नारा के तादायजी मन्दिर में महान् बुद्ध देवूत्सन के प्रतिष्ठापन समारोह में शामिल हुए थे। आज दारूना, जो जेन प्रतिधर्माध्यक्ष हैं और जिनका जापान में बड़ा सम्मान किया जाता है, और कोई नहीं बल्कि भारतीय मास्टर बुद्धिधर्मा ही हैं। ऐसी वर्षगांठें हमें पीछे मुड़ कर यह देखने का लाभप्रद अवसर प्रदान करती हैं कि हमने अपने बीते काल में क्या पाया, तथा इससे भी कहीं अधिक, ये निरन्तर परिवर्तित तथा विकसित होने वाले विश्व में आने वाले समय में हमारे सम्बन्धों के बारे में सोचने के अवसर प्रदान करती हैं। इसलिए यह भारत-जापान सम्बन्धों में शक्ति तथा प्रतिफल के स्रोतों पर दृष्टिपांत करने का अवसर है।”

1952 से 1985 तक भारत-जापान सम्बन्धों का धीमा विकास

(Slow growth of Indo-Japan relations between 1952 to 85)

करीब चारदशकों में भारत तथा जापान के सम्बन्ध निम्न स्तर के तथा साधारण ही बने रहे। यह इस तथ्य से स्पष्ट पता चलता है कि आज भी भारत तथा जापान के बीच व्यापार, जापान के समस्त विश्व व्यापार का केवल एक प्रतिशत है। भारत तथा जापान के बीच राजनीतिक सम्बन्ध भी 1985 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की टोकियो यात्रा से पहले तक सीमित ही रहे, लेकिन प्रधानमंत्री की इस यात्रा के कुछ समय बाद ही भारत के (भू0 पू0) राष्ट्रपति वेंकरटमन ने जापान यात्रा की। उत्तर-युद्ध काल में जापान अमरीका के साथ सुरक्षा सन्धि में शामिल हो गया तथा भारत ने गुटनिरपेक्षता अपनाने का निर्णय किया जो सुरक्षा संधि व्यवस्थाओं के विरुद्ध थी। भारत की गुटनिरपेक्षता को पश्चिम विरोधी माना गया तथा कभी-कभी इसमें सोवित संघ के पक्ष की झलक भी मिलती थी। जापान क्योंकि अमरीका से संधि का सहभागी था, वह भारत की गुटनिरपेक्षता को अच्छी नजर से नहीं देखता था। इसने भारत के चीन तथा पाकिस्तान के साथ झगड़े के कारण भी अलग रहना अच्छा समझा। 1965 तथा 1971 के भारत-पाक युद्धों के दौरान इसने दोनों देशों को ही सहायता देना स्थगित कर दिया। 1971 की भारत-सोवियत संधि तथा 1974 के भारत के शांतिपूर्ण परमाणु विस्फोट की जापानी अखबारों तथा सरकारी कथनों में काफी आलोचना की गई। भारत भी गुटनिरपेक्षता को शक्तिशाली बनाने तथा पूर्व-पश्चिम टकराव के प्रति अपने अति नैतिक रवैये को दृढ़ करने में जुटा रहा। यह जापान को प्रतिबद्ध राज्य एक ऐसा राज्य जो अमरीका के प्रभाव में था, मानता रहा। भारत का यह मानना था कि जापान कभी-कभी भारत को अमरीका की नजरसे देखता था। पहले पहल बहुत से भारतीय लेखक तथा टीकाकार एशिया में जापान की भूमिका को अधिक महत्व नहीं देते थे क्योंकि उनका विचार था कि भू0 पू0 सोवियत संघ, संयुक्त राज्य अमरीका, भारत तथा चीन ही एशिया की राजनीति में मुख्य अभिनेता रहेंगे। पतवंत सिंह ने अपनी पुस्तक ‘Struggle for Power in Asia’ में लिखा, “मेरा विश्वास है, जापान इस श्रेणी में नहीं आता, यद्यपि बहुत से सुयोग्य विश्लेषकों द्वारा दिये ऐसे तर्कों का निष्कर्ष ऐसा था कि आने वाले वर्षों में जापान एशिया में महत्वपूर्ण, यहां तक कि अशान्त कर देने वाली भूमिका निभाएगा। क्योंकि जापान वास्तविक शक्ति नहीं पैदा कर सकता, इसलिए मैं इसे इस दृष्टि से नहीं देखता जिससे मैं दूसरी चार शक्तियों (चीन, रूस, अमरीका तथा भारत) को देखता हूँ।” शायद भारत के नीति-निर्माताओं का भी यही विचार था या फिर वे जापान-एक ऐसे देश के साथ जो अमरीका से बंधा था, के साथ सम्बन्धों में तेजी से विकास की आवश्यकता को पूरी तरह अनुभव नहीं कर पाये।

इस प्रकार प्रारम्भ में प्रेरणा की कमी के कारण भारत तथा जापान में सम्बन्ध स्थापित रहे। यद्यपि आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध कायम हुए तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों पर बल दिया, तकनीकी, व्यापारिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों के उच्च स्तरीय सर्वतोमुखी सहयोग को विकसित करने के बड़े कदम नहीं उठाये गये। केवल 1980 के आसपास जापान द्वारा आर्थिक तथा औद्योगिक विकास में भारत को बड़े पैमाने पर सहायता दे सकने की क्षमता को भारत ने पहचाना तथा दोनों देशों के बीच उच्च स्तरीय व्यापार के संभावित बड़े क्षेत्र की शक्ति को स्वीकार करना आरम्भ कर दिया। इस समय तक जापान एक महान् आर्थिक शक्ति के रूप में उभर चुका था, इसने बहुत से देशों विशेषतया दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों के साथ उच्च स्तरीय आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिए थे। 1978 में चीन के साथ शांति तथा मैत्री की संधि करने के बाद, जापान इस साम्यवादी देश के साथ भी महत्वपूर्ण व्यापारिक सम्बन्ध कायम करता जा रहा था परन्तु भारत के साथ जापान के सम्बन्धों की गति धीमी ही रही थी।

इस वास्तविकता का कारण कोई मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक या सामरिक अवरोध नहीं था। दोनों ही देश अपनी इस असफलता के लिए वास्तव में उत्तरदायी नहीं थे। आंशिक रूप में कुछ तो जापान भारत से सिवाय कच्चे लोहे के कुछ भी आयात करने में रुचि नहीं रखता था और कुछ भारत के पास जापानी निवेश को फलने-फूलने के लिए पर्याप्त औद्योगिक आधारभूत संरचना नहीं थी। इस असफलता के बावजूद भारत जापान सम्बन्ध इस समय में मधुर रहे। किसी न किसी कारण से भारत जापान की व्यापारिक रुचि में फिट नहीं बैठता था जिसका मूल उद्देश्य अच्छे लाभ कमाना था।

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