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श्रीमती इंदिरा गाँधी के द्वितीय काल (1980-84) में भारत तथा अमेरिका संबंध

भारत-अमेरिका संबंध- इंदिरा गाँधी के द्वितीय काल (1980-84) में

भारत-अमेरिका संबंध

जनवरी 1980 में श्रीमती गाँधी पुनः भारत में सत्ता में आई। सितम्बर 1980 में रीगन अमरीका के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। नेतृत्व में, विशेषतया एशिया में, इन परिवर्तनों के साथ-साथ वातावरण में परिवर्तन से अमरीका तथा भारत के सम्बन्धों में कुछ परिवर्तन हुआ तथापि सम्बन्ध पहले की तरह मैत्रीपूर्ण तथा सहयोगात्मक परन्तु माधुर्य, गहनता तथा उत्साह से रहित ही बने रहे- (i) अफगानिस्तान संकट, (ii) पाकिस्तान को अत्यधिक आधुनिक शस्त्र तथा जंगी विमानों की आपूर्ति, (iii) डियागो गार्शिया की समस्या, (iv) कम्पूचिया को मान्यता देने की समस्या पर मतभेद तथा (v) भारत की परमाणु नीति के प्रति दोनों देशों के बीच अन्तर के कारण सम्बन्धों के अच्छे बनने के रास्ते में कड़ी रुकावट बनी रही।

अमरीका अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हस्तक्षेप का कड़ा आलोचक बना। इसे उसने सोवियत संघ के विस्तारवाद का सर्वाधिक खतरनाक पक्ष माना है। अमरीका का विश्वास था कि अफगानिस्तान में (भू० पू०) सोवियत संघ की उपस्थिति अवैध, अनैतिकत तथा अफगानिस्तान के लोगों की इच्छाओं तथा अधिकारों के विरुद्ध थी। यह सोवियत संघ की इस चाल को (i) चीन को घेरना, (ii) पाकिस्तान पर दबाव, डालना, तथा (iii) फारस की खाड़ी के गर्म पानी तक पहुँचने, के प्रयत्न मानता था। अमरीका ने अफगानिस्तान के मामले पर सोवियत संघ की तीव्र भर्त्सना तथा आलोचना की। दूसरी तरफ भारत ने खुले रूप में सोवियत संघ की आलोचना करने की अनिच्छा का प्रदर्शन किया क्योंकि वह यह महसूस करता था कि सोवियत संघ को यह हस्तक्षेप इसलिए करना पड़ा कयोंकि कुछ दूसरे देशों ने अफगानिस्तान में गैर-साम्यवादी तथा सोवियत संघ विरोधी शासन की स्थापना के प्रयल किए थे। भारत ने अनुभव किया कि न तो सोवियत संघ की भर्त्सना करने तथा न ही अफगान छापामारों को शस्त्र आदि देने के अफगानिस्तान की समस्या सुलझाई जा सकती थी। भारत महसूस करता था कि केवल शांतिपूर्ण बातचीत द्वारा तथा बाहरी हस्तक्षेप को समाप्त करके ही सोवियत सेनाओं को अफगानिस्तान से हटाया जा सकता था। इस प्रकार भारत ने अमरीका के दृष्टिकोण का समर्थन नहीं किया। इसके अतिरिक्त भारत ने यह भी स्वीकार नहीं किया अफगानिस्तान में सोवियत संघ की उपस्थिति से पाकिस्तान या दक्षिण एशिया को कोई खतरा है। अमरीका ने सोवियत संघ की शक्ति के और सम्भावित विस्तार को नियन्त्रित करने के लिए पाकिस्तान की सेना को सुदृढ़ बनाना चाहा। परिणामस्वरूप अमरीका ने (बहुत कम कीमतों पर) पाकिस्तान को आधुनिकतम शस्त्र तथा वायुयान बेचने तथा इनकी आपूर्ति करने का निर्णय किया। भारत ने अमरीका द्वारा इन हथियारों की आपूर्ति का कड़ा विरोध किया। इसमें अत्याधुनिक F-16 युद्धक विमान भी शामिल थे जो उसने पाकिस्तान को दिए। भारत यह महसूस करता था कि यह आपूर्ति पाकिस्तान की सुरक्षा आवश्यकताओं से कहीं अधिक थी। भारत को इस बात का भी डर था कि पाकिस्तान इन हथियारों का प्रयोग भारत के विरुद्ध करेगा। भारत को, पाकिस्तान की परमाणु तकनीक की बढ़ती योजनाओं के विकास पर नियन्त्रण करने की अमरीका की अयोग्यता, से भी गहरी चिन्ता थी क्योंकि ऐसा लगता था कि पाकिस्तान परमाणु-शस्त्र तकनीक की योग्यता के रूप में परमाणु-शस्त्र तकनीक विकसित करने का प्रयास किया जा रहा था।

एक दूसरी समस्या पर भी भारत तथा अमरीका के बीच मतभेद उत्पन्न हो गये। अमरीका ने हिन्द महासागर में डियागो गार्शिया सुदृढ़ सैनिक अड्डे के रूप में परिवर्तित किया क्योंकि वह महसूस करता था कि ऐसा करना एशिया तथा हिन्द महासागर क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिए आवश्यक था। भारत ने अमरीका की इस चाल का विरोध किया क्योंकि यह महसूस किया कि इससे हिन्द महासागर में महाशक्तियों की प्रतिद्वन्द्विता बढ़ जाएगी तथा परिणामस्वरूप भारत के हितों को खतरा पैदा हो जायेगा। इस प्रकार भारत तथा अमरीका डियागो गार्शिया के बारे में एक-दूसरे के विपरीत नीतियों पर चलने लगे। भारत डियागो गार्शिया मारिशस को वापस दिए जाने की मांग का समर्थन करने लगा। दूसरी तरफ अमरीका डियागो गार्शिया को सुदृढ़ नौसेना का तथा अपनी नई बनाई द्रुत विकास बल को ठहराने का अड्डा बनाने और इसको और विकसित करने की नीति पर चलता रहा।

इसके अतिरिक्त नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था तथा उत्तर तथा दक्षिण के बीच आर्थिक व्यवस्था तथा उत्तर तथा दक्षिण के बीच आर्थिक सम्बन्धों की समस्या पर भारत तथा अमरीका में आपसी मतभेद बने रहे।

जून 1982 ई० में श्रीमती इंदिरा गाँधी अमरीका गईं तथा राष्ट्रपति रीगन के साथ महत्त्वपूर्ण बातचीत की। दोनों ही नेताओं ने अमरीका-भारतीय सम्बन्धों की बेहतर समझ को दर्शाया तथा अधिक मैत्रीपूर्ण एवं सहयोगात्मक सम्बन्धों के लिए काम करना स्वीकार किया। दोनों ही पक्षों ने आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों में और अधिक सहयोगात्मक सम्बन्धों की स्थापना की इच्छा व्यक्त की। दोनों ने इस बात को स्वीकार किया कि सुदृढ़ तथा मधुर द्विपक्षीय सम्बन्ध पिछले सम्पर्कों एवं मैत्री की इच्छाओं के आधार पर स्थापित किए जा सकते हैं। इस यात्रा के दौरान भारत की यूरेनियम की आपूर्ति की समस्या को भी बुद्धिमानी से सुलझा लिया गया। नए समझौते के अनुसार अमरीका के स्थान पर फ्रांस ने पुष्ट यूरेनियम के संभरण करने का उत्तरदायित्व स्वीकार कर लिया। इससे दोनों देशों के बीच एक मुख्य रुकावट दूर हो गई तथा दोनों देशों के बीच पहले से अधिक अच्छे सहयोग के अवसर दिखाई देने लगे हैं।

तथापि 1982 से 1984 तक के काल में वास्तव में सम्बन्धों में कोई विशेष सुधार दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अमरीका का पाकिस्तान को अत्याधुनिक शस्त्रों को देते रहने का निर्णय, अमरीका की नई अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (NIEO) की माँग के प्रति उदासीनता, अमरीका का अधिक से अधिक आधुनिक शस्त्रों का विकास करने तथा उन्हें लगाने का निर्णय, अमरीका का अपनी भूमि पर भारत विरोधी उग्रवाद को नियन्त्रण कर सकने की समस्या के प्रति अमरीकी निर्णय, तथा भारत की सोवियत संघ के साथ बढ़ती मैत्री तथा सुदृढ़ सहयोगात्मक सम्बन्ध, सभी ने मिलकर भारत तथा अमरीका के सम्बन्धों को कुछ विशिष्ट क्षेत्रों तक ही सीमित रखा।

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