1991-96 के दौरान भारत-चीन सम्बन्धों की प्रगति
1991-96 के दौरान भारत-चीन सम्बन्ध
दिसम्बर 1988 में भारतीय प्रधानमन्त्री की चीन यात्रा वास्तव में दोनों देशों के सम्बन्धों में सकारात्मक और सर्वोत्तम मोड़ था। इसने भारत-चीन सम्बन्धों की प्रक्रिया शुरू करने के लिए तथा सीमा-विवाद को सुलझाने के लिए प्रभावशाली तथा सक्रिय आधार प्रदान किया। संयुक्त संचालन समूह (Joint Working Group) की स्थापना से विवाद-सुलझाव के लिए तथा सम्बन्धों को चलाने के लिए एक परिचालन ढाँचा (Operational Framework) बनाया गया। इसके अतिरिक्त, 1988 की यात्रा ने भारत तथा चीन के बीच उच्चस्तरीय सम्पर्कों की प्रक्रिया को तीव्र कर दिया तथा इसके परिणामस्वरूप व्यापार, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा तकनीकी सहयोग तथा सम्बन्धों को बढ़ावा देने के लिए कई समझौते किये जाने की प्रक्रिया आरम्भ हो गई। नवम्बर 1989 से जून 1991 तक (भारत में राष्ट्रीय मोर्चे तथा जनता दल (S) के शासन के दौरान) बीजिंग (Beijing) ने स्वर्गीय प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी द्वारा आरम्भ की गई प्रक्रिया को बनाए रखने का प्रयत्न किया तथा नई दिल्ली भी चीन के इस सद्भावना भरे हावभाव का प्रत्युत्तर उसी भावना से देखकर सन्तुष्ट रही। दिसम्बर 1991 में चीन के प्रधानमन्त्री श्री ली पिंग ने भारत की यात्रा की।
जून 1992 में तत्कालीन राष्ट्रपति आर० कटरमन ने बीजिंग की यात्रा की तथा उसके कुछ देर बाद तत्कालीन प्रतिरक्षा मन्त्री (Defence Minister) श्री शरद् पवार ने बीजिंग की यात्रा की। इन यात्राओं, संयुक्त कमीशनों की बैठकों, संयुक्त संचालक समूह की कार्रवाइयों ने भारत तथा चीन के सम्बन्धों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया को सक्रिय रूप में बनाए रखा। संयुक्त संचालन समूह अब तक सात बैठकें कर चुका था। सातवीं बैठक जून 1993 में भारत में हुई थी। इसकी बैठक में इसने सीमा के साथ शांति तथा चुप्पी बनाए रखने के लिए प्रबन्धों के संस्थानीकरण पर उच्चस्तरीय सैन्य रचनातन्त्र स्थापित करने का निर्णय किया गया था। फरवरी 1992 में दोनों देशों ने बम्बई तथा शिंघाई में वाणिज्य दूतावास स्थापित करना स्वीकार किया तथा विभिन्न स्तरों पर जो समझौते किए गये इन सबके पीछे प्रेरणा स्रोत न केवल अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के बदलते परिवेश में भारत-चीन सम्बन्धों को ही बढ़ावा देना था, बल्कि ऐसा वातावरण भी तैयार करना था जो सीमा विवाद को हल करने में सहायक हो।
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1990 के दशक के भारत-चीन सम्बन्धों का वातावरण-
भारत-चीन सम्बन्धों के स्वरूप तथा प्रगति का विश्लेषण करने के लिए हमें अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण में आए परिवर्तनों को तथा दोनों देशों पर पड़ने वाले दबावों या समस्याओं या अवबोधनों को ध्यान में रखना होगा। इस समय में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था विभिन्न तत्त्वों के प्रभाव तले महान् परिवर्तनों से गुजरी जैसे शीत युद्ध की समाप्ति, पूर्वी यूरोप के देशों में उदारवाद का आगमन तथा समाजवाद का ह्रास, वार्या समझौते की समाप्ति, सोवियत संघ का विघटन, एकीकृत जर्मनी का प्रादुर्भाव, यूरोपीय समुदाय का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एकीकरण, एक विशाल आर्थिक रूप से उन्नत देश के रूप में जापान का प्रादुर्भाव, एसियान (ASEAN) की बढ़ती हुई शक्ति, पश्चिमी तथा केन्द्रीय एशिया में बढ़ता मुश्किल कट्टरवाद, रूस तथा स्वतन्त्र राज्यों के राष्ट्रमण्डल के अन्य सदस्यों की दुर्बलता, चीन, वियतनाम तथा क्यूबा साम्यवादी देशों का लगभग एकाकीपन, बचे हुए साम्यवादी शासनों को समाप्त करने के प्रयल, अमेरिका का एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरना, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में एक-ध्रुवीयता का प्रादुर्भाव, तथा एशिया, अफ्रीका एवं लेटिन अमेरिका के विकासशील राष्ट्रों में आपसी प्रगाढ़ सम्बन्ध बनाने की नई आवश्यकता ।
इस नए वातावरण में चीन को अलग-थलग पड़ने, अमरीका के वर्चस्व तथा अपने निर्यातों को बनाए रखने तथा बढ़ाने की समस्या का डर था। मुस्लिम कट्टरवाद की बढ़ती शक्ति को भी साम्यवादी चीन अच्छा नहीं समझता था क्योंकि चीन में मुस्लिम जनसंख्या का प्रतिशत बढ़ा था। चीन को यह भी डर था कि अमरीका अपने नेतृत्व के नीचे एक नई विश्व व्यवस्था स्थापित करना चाहता था। मानव अधिकारों के मुद्दे को लेकर पश्चिम के देश कभी इस पर बहुत दबाव डाल रहे थे। चीन द्वारा अमरीकी कानून सुपर 301 को टालने के लिए उठाए गये अप्रत्यक्ष कदम अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के उत्तर-शीत युद्ध काल, उत्तर-सोवियत संघ तथा उत्तर-साम्यवादी ब्लॉक के युग में चीन की नीतियों पर पड़ रहे दबावों को प्रतिबिम्बित करते थे।
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भारत के प्रति चीन के अवलोधन में परिवर्तन के तत्त्व-
1990 के दशक में भारत के साथ सम्बन्धों में चीन के अवबोधन में विभिन्न तत्त्वों के प्रभावाधीन परिवर्तन आया।
- ऐसा लगा कि चीन अब बुद्धिमान हो गया था तथा यह इतिहास से सबक सीख रहा था। 1955 से 1971 तक भारत के प्रति उसकी नीति ने भी भारत को सोवियत संघ की गोद में डाल दिया था। भूतकाल में मास्को तथा नई दिल्ली के साथ सुदृढ़ सम्बन्धों के कारण चीन को सीमित रहना पड़ा था। अब जब उत्तर-शीत युद्ध के युग में वाशिंगटन तथा नई दिल्ली एक दूसरे के निकट आ रहे थे तो चीन आक्रामक नीति अपना कर भारत को अनावश्यक रूप से अमरीका के अधिक निकट नहीं आने देना चाहता। चीन अपने पड़ोस में सुदृढ़ अमरीकी उपस्थिति नहीं चाहता था। वह यह भी नहीं चाहता था कि उत्तर-शीत युद्ध काल में भारत तथा रूस वही पुराने उच्चस्तरीय मास्को-नई दिल्ली सम्बन्ध स्थापित कर रहे थे।
- इसके अतिरिक्त चीन को इस बात का अहसास हो रहा था कि मुस्लिम पाकिस्तान जो केन्द्रीय तथा पश्चिम एशिया में मुस्लिम कट्टरवाद को सुदृढ़ करने तथा इसका नेतृत्व करने का प्रयास कर रहा था, उससे भविष्य में तनाव पैदा हो सकता था।
- भारत एक विकासशील शक्ति था तथा चीन इसकी और अपेक्षा नहीं कर सकता।
- चीन तिन्नत तथा मानवीय अधिकारों के बारे में अपनी नीतियों के सम्बन्ध में पश्चिमी देशों के दबाव को तभी सहन कर सकता था यदि भारत के साथ इसके सम्बन्ध अच्छे हों क्योंकि भारत ने सदैव ही तिब्बत में चीन के मत को स्वीकार किया था। फिर भारत तिनानमेन स्कवेयर (Tiananmen Square) की घटना को लेकर चीन की भूमिका के प्रति नरम रवैया रखा था।
- आर्थिक उदारवाद के इस युग में चीन भारत के साथ व्यापारिक, औद्योगिक, सांस्कृतिक तथा यहाँ तक कि सैन्य सम्बन्ध स्थापित करके ही लाभान्वित हो सकता था।
- भारत के चीन के साथ सहयोग को विकसित करने के निरंतर प्रयलों ने भी बीजिंग को भारत-चीन सम्बन्धों को प्रोत्साहित करने के लिये प्रोत्साहित किया।
- इसी प्रकार मानवीय अधिकार तथा परमाणु शस्त्रों के मुद्दों को अमरीका तथा पश्चिमी देशों द्वारा अन्य स्वतन्त्र देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के हथकंडों के रूप में न प्रयोग किया जा सके, इसके सम्बन्ध में भारत तथा चीन के अवबोधन एक जैसे थे।
- अपनी आर्थिक सीमाओं के कारण, चीन की राजनीति (एक दल एक नेतृत्व राज्य) में विद्यमान राजनीतिक सत्तावाद, अमरीका के साथ अपने MFN व्यापार स्तर को बनाने की इच्छा, जो 12 करोड़ डालर के अतिरिक्त व्यापार का साधन था तथा सुपर 301 कानून के अन्तर्गत अमरीकी दबावों का सामना करने की अयोग्यता, आदि तत्त्वों के कारण चीन अमरीका के विरोध में कोई अभियान (Crusade) नहीं छोड़ना चाहता था तथापि यह एशिया में विशेषतया दक्षिण एशिया में अमरीका की शक्ति को सीमित रखना चाहता था क्योंकि इसे डर था कि संयुक्त राज्य अमरीका चीन में साम्यवाद का तख्ता पलटना चाहता था।
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चीन के अवबोधन में परिवर्तन-
इस सभी तत्त्वों ने भारत के साथ सम्बन्धों को लेकर चीन के अवबोधन में कुछ परिवर्तन कर दिया। चीन को इस बात का अहसास होने लगा कि भारत के साथ सीमा विवाद को बहुत लम्बे समय तक नहीं लटकाया जा सकता इसलिए वह भारत के साथ सम्बन्धों में सुधार लाना चाहने लगा। क्योंकि भारत-चीन सम्बन्धों में सार्थक एवं बड़ा सुधार सीमा विवाद को हल किए बिना नहीं किया जा सकता इसलिये चीन ने झगड़े को सुलझाने के लिए प्रयल करने का निश्चय किया। इन सबसे अधिक शीत युद्ध की समाप्ति तथा सोवियत संघ के टूट जाने के कुछ समय पहले ही भारत चीन सम्बन्धों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया को दिसम्बर 1988 में उस समय काफी प्रोत्साहन मिला था जब भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी ने चीन की यात्रा की थी। इससे चीनी नेताओं को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के उत्तर-शीत युद्ध तथा उत्तर-सोवियत संघ युग में भारत के साथ सम्बन्धों को सुधारने की दिशा में और भी प्रोत्साहन मिला।
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चीन के साथ सम्बन्धों के सम्बन्ध में भारत के अवबोधन में परिवर्तन के तत्व-
अपनी स्वतन्त्रता के ठीक बाद भारत ने अपने पड़ोसी चीन के साथ उच्चस्तरीय मैत्रीपूर्ण (भाई-भाई वाद) सम्बन्ध स्थापित करने का निर्णय किया था। इस उद्देश्य को लेकर इसने साम्यवादी चीन को पूर्ण मान्यता दी, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा इसकी सुरक्षा परिषद् में एक स्थायी सदस्य के रूप में चीन को प्रवेश देने का पूरा समर्थन किया था। भारत ने चीन के साथ तिब्बत समझौता तथा पंचशील समझौता किया तथा चीन को बांडुंग सम्मेलन: अफ्रीकी-एशियाई एकता सम्मेलन में प्रवेश दिलाने का गौरव भारत ने प्राप्त किया। तथापि भारत के विरुद्ध चीन की आक्रामक नीति तथा अक्तूबर 1962 में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण से भारत के प्रयलों को गहरा धक्का लगा था। भाई-भाई की भारत-चीन धारणा हिमालय की बर्फ में दब कर रह गई थी। साम्यवादी चीन के साथ सम्बन्धों का संचालन, जिसने पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों के प्रत्येक क्षेत्र में मेज़बान बनता तथा पाकिस्तान को भारत पर अधिमान देना शुरू कर दिया था, भारतीय नेताओं के लिए वास्तव में एक बड़ी समस्या बन गया। भारत के चीन के साथ सम्बन्ध एक गतिरोध में उलझ कर रह गये। फिर आठवें दशक के आरम्भ में जब भारत ने चीन के साथ राजनयिक सम्बन्ध फिर से सुधारने शुरू किए तब कहीं जाकर यह गतिरोध समाप्त हो सका। भारत के इस निर्णय ने भारत-चीन सम्बन्धों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया को ठोस आधार प्रदान किया। 1979 में भारत के तत्कालीन विदेश मन्त्री श्री वाजपेयी ने चीन का दौरा किया लेकिन यह दौरा चीन द्वारा वियतनाम पर आक्रमण के कारण बीच में ही रद्द करना पड़ा। फिर 1980 में जब श्रीमती गाँधी पुनः सत्ता में आई तो सम्बन्धों के ये टूटे धागे फिर से जोड़ने का प्रयल किया गया। 1981 में उस समय के चीन के विदेश मन्त्री ह्वांग ह्वा (Haung Hua) ने भारत का दौरा किया ।तब से भारत-चीन सम्बन्धों को सामान्य बनाने की प्रक्रिया में गति आई, यद्यपि चीन भारत के अरुणाचल प्रदेश में गम्भीर हरकतें करता रहा। 1984 की गर्मियों में उत्पन्न सीमा संकट को सीमित रखा गया तथा भारत एवं चीन के बीच बातचीत को खुला रखा गया।
महत्वपूर्ण लिंक
- 1962 ई० में भारत-चीन सीमा युद्ध की प्रकृति एवं प्रभाव
- 1980 के दशक में भारत-चीन के संबंध
- “भारत की विदेश नीति” के मूलभूत कारक (उद्देश्य एवं सिद्धांत)
- भारत-चीन सम्बन्धों का इतिहास एवं विवाद के मुद्दे
- आसियान (ASEAN)- संगठन, स्वरूप, उद्देश्य
- आसियान के कार्य एवं भूमिका (Functions & Role of ASEAN)
- सार्क (SAARC)- कार्य, शिखर सम्मेलन, उद्देश्य, सिद्धांत, एवं भूमिका
- अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उत्तर-दक्षिण विभाजन के स्वरूप का आलोचनात्मक परीक्षण
- नई अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था (NIEO)- अर्थ, आवश्यकता, मुख्य विचार एवं वाद विवाद
- गुटनिरपेक्षता का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं
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